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Monday, December 16, 2013

यमुना के किनारे
मधुबन के पेड़ों की झुरमुट
रमन की रेती में मन रमाये

मन तुमको ही ढूंढ़ता है
तुम न जाने!
किस देश में रहते हो?

पता भी तो नहीं था
तुम्हारा हाल कभी
चाँद से पूछती थी
कभी नीले आसमान से

अपने मन की बातें
मन-मन में रखती थी,
धन्य उस पल हुई

 जब जार के वाण से घायल
तुमने मुझे अर्जुन से
 मुझे सन्देश पहुँचाने को कहा
लेकिन, इतनी हिम्मत कहाँ थी उनमें

मेरे प्रेम
मेरे विरह को
मेरे अनत समर्पण को उद्धव ने समझा था

और तुम्हारी अनंत प्रयाण की खबर वही ले कर आये
अपेक्षा दुःख देता है
मैंने सिर्फ इसे ही मान दिया
सोलह श्रृंगार कर लीन-विलीन हुई तुममे

Saturday, December 7, 2013

तुम्हारी अंगुली थाम
पहली बार चली थी
शायद
लड़खड़ाई भी थी
तुमने सहारा दिया

चलते-चलते
 यहाँ तक चली आई
तुम उसी पगडण्डी पर
पुराने बरगद के नीचे
अब तक रुक
मुझे निहारते हो

मैं जानती हूँ
तुम्हारे लिए
मेरे खातिर इतना करना
कुछ आसान नहीं होता होगा
तुम्हारी अपनी दुनिया है

जानते हो!
तुम्हारी नजर का सहारा
बेशकीमती है
क्योंकि तुम्हारी निगाहों से
आज तक देखती रही हूँ
जिंदगी को

मुझे लगता है
हर सुबह
तुम्हारी मुस्कुराहट
एक उत्सव बन आती है
मुझे नींद से जगाने
मैं सँवरने लगती हूँ
गुनगुनी सर्दी की धूप-सी



Monday, December 2, 2013

मोहन
मैं बहुत दूर से
तुम्हारे बांसुरी की धुन सुनती हूँ
उस में अपना नाम सुनती हूँ

जानती हूँ!
तुम बहुत दूर हो
तुम्हारे विरह को जीती हूँ
उसमें तुम्हारा नाम जपती हूँ

सुनती हूँ !
धड़कने बहुत दूर से
अपने करीब तुम्हें तब ही पाती हूँ
उस उन्मेष में संपूर्ण होती हूँ

देखती हूँ !
फरकते होठ दूर से
बांसुरी की स्वर लहरी बन जाती हूँ
उस पल मैं कहाँ रह जाती हूँ ......

Friday, November 29, 2013

 तुम उस जगह पर बैठे
अहसासों के
 बुलबुलों को महसूस कर लेते
जहाँ कभी
 हम साथ बैठ
कभी चहलकदमी करते हुए
 न जाने!
 कितने बार
एक-दूसरे के करीब आये थे
तुमने जब पहली बार
मेरी हथेलियों को चूमा था
 या कि मेरी आँखों के
 गहरे झील में
तुम यूँ ही समां गए थे
या मेरे चेहरे पर
पानी की कुछ बूंद रुक गए थे
 तुम्हारी नज़रों की तरह
बहुत कुछ रुक जाता है
 वहाँ जहाँ तुम होते हो
 तुम्हारी बातें होती हैं .....

Friday, November 22, 2013

ek main


एक मैं




एक हरे पेड़
बहती नदी
थिर झील
उमड़ते समंदर
इनकी विराटता
प्रवाह
धैर्य
असीमता
मन महसूस कर
सोचता है
हम क्यों नहीं जीते
दूसरों के  लिए
दूसरों को अर्पित हो
जीवन का आनंद
प्रतिपल
बहते
रुकते
सम्भलते
तुम भी
इस पल में
अपनी नरम हथेली में
मेरे अँगुलियों को
अपने होने का
अहसास दे जाओ
ताकि अब
फर्क न रह जाए
अपने
और गैर में



Thursday, November 21, 2013

सूने मन के कोने में
 चारों तरफ सन्नाटे की
फैली है चादर
मैं निशब्द
तुम्हारे आलिंगन में
जीवन के अर्थ तलाशती हूँ


तुम्हारे मन के द्वार से
तुम्हारे भीतर झांकती हूँ
उभरती है छवि
मैं निराकार
तुम्हारे हाथों में
अपना हाथ थामे साँसें गिनती हूँ


तेजस मन के चौखट पर
मैं तुम्हें जगाती हूँ कि
गूंजती है सरगम
तुम्हारे आँखों में
अपने गाए गीत के गूंज सुनती हूँ


Monday, October 28, 2013

दूर से कभी आवाज़ आती
मैं कुछ पल
सहम कर
उस आवाज़ में
 बहुत कुछ तलाशने की कोशिश करती

आवाज़ के सहारे जानना चाहती
तुम्हारे मन के भाव क्या हैं
तुम्हारी तबीयत कैसी है
तुम ठीक तो हो न

उसमें जब ख़ुशी छलकती
मन पंछी गुनगुनाता और
तुम्हारे पास उड़ आना चाहता है
लेकिन, मन चुप रह महसूस करना चाहता है

तुम जब भी अनमने रहे
मैं दूर बैठी तुम्हारी आवाज़ को
अपने भीतर बहुत गहरे गुनगुनाती रही
पल-पल की नरमी-मिठास को
तुम्हारी आवाज़ यूँ ही बयां करती है

जिसे कभी-कभी
तुम नहीं बोलते हो
तब भी मैं सुनती रहती हूँ
तुम्हारी मीठी बातें, यूँ मेरे कानो में गूंजती हैं 

Wednesday, October 23, 2013

सांवरे बदन को निरख
मन ही मन असीसता है, मन
क्यों विमुख होते हो कान्हा
तुम बिन
अब तो उदास है, मन
क्यों दूर जाते हो तुम

जानते हो
सांवले घन में से झांकता
मन ही मन अठखेलियाँ करता है, मन
क्यों उन्मेष होते हो कान्हा
तुम बिन
अब तो खामोश है, मन
क्यों चुप हो जाते हो तुम

तुम्हारे
मीठी बांसुरी की धुन में रमता
मन ही मन नाचता है, मन
क्यों अभिलासित होते हो कान्हा
तुम बिन
अब तो निरखता है, मन
क्यों नहीं बजाते हो बांसुरी तुम

Tuesday, October 1, 2013

यह लौ बहुत धीरे-धीरे जलती है
हवा का एक झोंका
कब इसे बुझा दे
डरती हूँ मैं
अपनी हथेलियों की  ओट में
छुपा कर रखा है
जानती हूँ मैं
तपन से जल जाएगी  मेरी कोमल हथेली
जानते हो बहुत कुछ बस में नहीं होता
आँख बंद कर जिन्दगी जीना
कौन चाहता होगा भला
पर सूने परकोटे पर
दीया जलाये रखना जिद नहीं
जिन्दगी की सांसों को
भरते रहने का अंदाज़ भर है
इस लौ को तुम इतनी तेज से मत सांसें देना
वर्ना जिन्दगी अँधेरे से भर जाएगी
फिर,गुमनाम से फिरने लगेंगी
मेरी सांसे जिन्दगी को
 तलाशने के खातिर

Friday, September 27, 2013

कैसी अनुभूतिओं के वो क्षण थे
एक दूसरे को जानने को
बिना कुछ कहे सब कह दिया था
अंतस में कहीं एक सूखी धमनी को
तुम्हारे स्पर्श ने
जीवंत कर दिया था
उस पल को आज भी जीती हूँ
तुमसे दूर जाते हुए
उसी स्पर्श की गर्माहट को
मैं महसूस करती रही
पता नहीं
आती-जाती रेल की पटरी
जिन्दगी की कहानी-सी कहती लगती है
वहीँ पर कहानी कभी शुरू होती है
वहीँ बहुत अनकहा रह जाता है
तब हमारा सफ़र भी पूरा नहीं होता
मैं फिर-से निहारती हूँ
गुजरती रेल-पटरी को
वह कहती-सी लगती हैं
तुम्हारी तरह
यह अहसास हर पल नया है
सिर्फ, तुम ऑंखें बंद कर
मुझे देखो तो पलकों में .....

Thursday, September 5, 2013

  बचपन के बगीचे में
  सखियाँ के संग
  आम  की डालियों का झुला
  निम्बू ,आम ,इमली  की
  कच्ची-पक्की मिठास
 
  घर से छिप-छिपा कर
  कुछ करने का संबल
  उन्होंने ही दिया
  जिनके न अब पतें हैं
  न कभी ख़त आतें हैं

  सिर्फ यादों की
  महीन डोर में
  अब वो रिश्ते जिन्दा हैं
  याद आता है, जब बुआ आती थी
   दादी से फलां-फलां का हाल पूछती थी
   मन नहीं मानता तो
   सहेलियों के घर उनकी अम्मा-बाबा से मिलती थीं

   हमारे तो कालोनी छुटी
   सबका साथ ही छुट गया
   जो जहाँ के थे लौट गए
    फिर, भी मन बात देखता है
    बचपन की सहेलियों का

    अब न गुट्टे हैं
    न पड़ोस का आँगन
    न दालान में झूलें
    नन्हीं चिड़िया के पाँव में
    एक ख़त बांध दी हूँ
    शायद वह पहुंचा दे.....
  
 
 

Friday, August 30, 2013

पवस की शाम
रिमझिम फुहार
मैं खिलती हूँ
हरसिंगार बन
बाट देखती हूँ,तुम्हारी
मेरी खुशबू
 तुम्हारी देहरी तक जाती है
मैं रात भर
मिलन की आस में
महकती हूँ
फिर, उदास हो
झर जाती हूँ
तुम जानते हो
मैं फिर,
शाम ढलने का
 इंतजार करती हूँ
और, डालियों पर
कली बन मुस्कुराती हूँ
अपनी क्षणिकता पर
कितने वैभव में जीती हूँ
तुम्हारी आस में
की हर पल नया है
कल नहीं आये तो क्या ?
आज फिर
नई शाम है
मैं नई हूँ
और जीवन नया है
तुम आ कर
स्पर्श कर देखो
मैं झर जाउंगी
तुम पर भी

Thursday, August 29, 2013

एक हल्की-सी
 नरम चादर यादों की
 मैं तुम्हारे सिरहाने तान आई हूँ
 मेरी बंद मुठियों में
 तुम्हारे आँखों की
 नरमाई समाई है
जब मन अनमना-सा होता है
 मुट्ठी खोल
 तुम्हारी पुतलियों में
अपनी अक्स को निहारती हूँ
 कुछ-कुछ बादल की
 रुई-जैसी अनुभूति मन
 तुम्हारे आस-पास
छा जाने को आतुर
पता नहीं
 कब गुलाबी हो
 तुम्हारी सांसों की खुशबू से
 महक उठता है
 देखना जब आँखे खोलो
 उसी खुशबू से
 तुम्हारी सांसें महकें
तब मुझे याद कर
हल्के-से मुस्कुराना
 ताकि सुबह-सुबह बन जाए सुनहरी 

Friday, August 16, 2013

बरसे सावन  की फुहार
झुला पड़ी अमुआ की डाली

झूले राधा रानी
झुलावे कृष्ण कन्हाई

भीजे डाली-डाली
भीगे सारी फुलवारी

झूले राधा रानी
झुलावे कृष्ण कन्हाई

तुम भी आओ
देखा छटा न्यारी

झूले राधा रानी
झुलावे कृष्ण कन्हाई

मन की दुहाई
कैसी ये छवि है बनाई

झूले राधा रानी
झुलावे कृष्ण कन्हाई

खुशबु मधुबन की
हम तक कैसे आई

झूले राधा रानी
झुलावे कृष्ण कन्हाई

Thursday, August 8, 2013

देखो आज कैसी
हवाएँ ठंडी बह रही हैं

मन के कदम्ब की डाली
हिलती है

न जाने क्यों ?
कान्हा, अब तुम कदम्ब तले नहीं आते

मैं तो बावली बन
यमुना के तट और मधुबन में फिरती हूँ

आओ जरा चुपके से
जी-भर के निहार लूँ , तुम भी चुप रहना

मैं खामोश रहूंगी
तुम बांसुरी की टेर देना मन भर जाएगा

क्योंकि तब मयूर नाचने लगेंगे
और मधुबन सुरों से सुवासित हो जाएगा

Tuesday, August 6, 2013

आज तुमने भेज ही दिया
मेरे आसमान में काले-काले मेघ
बरसती रहीं
झीनी-झीनी फुहारें मेरे आंगन
तुम्हारे मन का स्पर्श था
बरसते पानी में
नेह के आलिंगन में बंध
किन-किन पलों को
गिनता रहा मन
पीपल की वह छाओं
बहती नदी और तुम्हारे मन का गाँव
घुमती रही
तभी रेल की छुक-छुक सुन
वह विदा होने का पल याद आया
हर बार तुम
अपनी हथेलियों से थप-थपा
 मीठी-सी चुभन दे अलविदा कह देते
और मैं ओझल होते
तुमको निहारती रह जाती






Thursday, August 1, 2013

        

        मैं अपने हिस्से के बादल को
        निहारती हूँ
        शायद, तुम श्याम मेघ बन आओ
        मैं सावन की फुहारों में भींग जाऊ
        आँगन में झूला डालूँ
        कजरी-झूला गाऊ
        हरी चूड़ियाँ पहन खनखानाऊँ
        हथेलियों में मेहंदी  रचाऊँ
         अब बाबुल का बुलावा नहीं आता
         न आता है भाई का कोई संदेश
        पता नहीं ,
       कब और कैसे इतनी पराई
       बन गई ?
       कि अब उस ड्योढ़ी पर
      चढ़ने से , पहले
      सौ बार सोचेगा मन कान्हा!
      यह तुम ही जानोगे
      क्यों निहारती हूँ
     मैं तुम्हारी राह
       
       

Thursday, July 25, 2013


                    मैं जोड़ नहीं
                   घटाओ भी नहीं
                   गुणा बनना नहीं
                   विभाग क्यों बनूँ
                   मैं शून्य बन
                   अनंत में विलीन
                   होने को आतुर
                   किसके सानिध्य की
                  आकांक्षा में
                  मन तड़पता है
                 यह कोई नहीं जानता
                 एक अनहद
                 गूँजे चारों ओर
                  तुम भी सुनो
                  इसकी आवाज़
                  तुम्हें भी भर देगी
                  नाद से
                  फिर मौन की
                 मस्ती तुम्हे भी
                 भाया करेगी
                 
            

Wednesday, July 24, 2013

  कल एक सम्मान समारोह में कथक सम्राट पंडित बिरजू महाराज ने कहा

अच्छी, गहरी  और सुंदर बातों को सुनना अच्छा लगता है .

हर कोई सुनना भी चाहता है .

आज भी मैं शिष्य हूँ . गुरु बन जाऊँगा तो खोजने की , नया सीखना बंद हो जाएगा .

गुरु तो शम्भू महाराज थे , जब एक बार उनसे लाइट मैन ने पूछा कि आपके डांस के समय किस रंग की लाइट

दी जाए . इस सवाल के जवाब में गुरु जी ने कहा की सिर्फ सफ़ेद लाइट दीजिए , मैं नाचूँगा तो लोग मेरे आँखों

से भाव और नृत्य को देखेंगे .

Sunday, July 21, 2013


आज आषढ़ का अंतिम दिन
असमान में
तुम्हारे चेहरे-चाँद झिलमिला रहा है

मेरा मन इस चाँदनी रात में
यमुना के किनारे
तुमसे मिलने आ गया है

रिमझिम बूंदों की
चादर में
तुमसे मिल सराबोर हो रहा है


कितने जज्बात बातों में
सिमटने को
तुमसे  व्याकुल हो गएँ हैं


 







 

Saturday, July 20, 2013

parda-parda hota hai


करीब दो-एक साल पहले राजधानी दिल्ली में विदुषी गिरिजा जी आई हुईं थी। मैं यूँ ही बैठी उनकी बातें सुन रही थी। उनकी आवाज़ जितनी सुरीली है बातें और भी सुरीली हैं।  उनके वह बातचीत का बनारसी अंदाज और भी लुभाता है। उन्होंने संस्कारों के बारे में कहा कि हमारे संस्कार हमारे जड़ हैं। इन्हें सींचना जरुरी है। यदि जड़ मजबूत होगी तभी पेड़ सुफल देने वाला होगा। आपको मालूम है कि हमारे नन्हें-नन्हें बच्चे हमारी नई पौध हैं .इनको अपनी संस्कृति से संस्कारवान बनाना बहुत जरुरी है।
        बात आगे बढती गई तो बात आज के पहनावे खास तौर लड़कियों के पर आई .वह हंसती हुई बोली अब यह विषय तो बहुत गंभीर है . आज ऐसे लगता है कि बाज़ार ही सब कुछ तय करने लगा है , वो जो बाज़ार में आया सब बिना सोचे-विचारे खरीद-पहन रहें हैं। इसलिए, लोगों को किसी की तरफ देखने का भी वो लालसा नहीं रही जो पहले होती थी। अब पहले दुल्हन आती थी , एक घूँघट यानि नज़र का पर्दा होता था। डोली में आती थी, उसके पैर तक देख कर रंग का अंदाज लगाया जाता था . घर-बाहर  के लोगों में दिलचस्पी और कौतुहल होता था फलां की बहु कैसी है . अब तो शादी से पहले ही वरमाला के समय ही आप उसे देख लेते हैं। फिर मज़ा कहाँ रह जाता है . ऐसे ही जब इतने खुले रहने लगेंगे तो पश्चिम या अन्य देश जिस वेश-भूषा से आपको जानते हैं कैसे जानेंगे या आप उनको अपना कौन-सा आदर्श पेश कर पाएंगे।
     खैर! जैसे सब बातें आई-गई हो जाती हैं , मेरे ध्यान से भी उतर गया . लेकिन कुछ बातें मन में गहरी बैठ जाती हैं। हमें अपने गाँव की गरमी छुट्टियों में जाना याद आया। छुटपन में हर साल हमें गाँव में डेढ़-दो महीने बिताने का समय मिलता था . वहां चचेरे-फुफेरे  भाई-बहनों की टोली के साथ खूब मस्ती होती। कभी नदी में नहाने , कभी खेत से तरबूज-खरबूज लेने , कभी शहतूत तोड़ने , कभी बेल-आम तोड़ने की योजना बनती . किसी को पता चलता की पड़ोस की काकी के यहाँ नई बहु आई है तो उसे बिना घूँघट के और अच्छी तरह देखने की बाजी लग जाती. हम दही मांगने के बहाने या किसी को ढूढने के बहाने उनके घर आते-जाते, और उस नव-वधू  को सारे दिन परेशान किये रहते। लेकिन, वह भी बहुत फुर्तीली और सजग रहती। वह हमारे आहट को सुन लेती। वह कभी कभी पूरे चेहरे को पल्लू से ढँक लेती तो कभी एक कोने को दांतों तले दबा लेती .

              आज जब उन अंदाजों को कत्थक सम्राट बिरजू महाराज के घूँघट की गतों में देखती हूँ , तो लाज-शर्म-हया के वो नाजुक पल याद आ जाती हैं . आधुनिक समाज उस आनंद को शायद दकियानूसी  या कोई और नाम भले दे . पर घूँघट के पट का वो आनंद तो उन गीतों में महसूस किया जा सकता है कि राधा न बोले-न बोले रे , घूँघट के पट न खोले रे ......

Wednesday, July 17, 2013

unkaha

मेरा मन
तुम्हारे मन के
 झील के पानी की तरह थिर है

तेज हवा बहती है
बहुत कुछ उड़ाती है
आँखों में धूल भर जाता है

उसकी किरकिरी
आँखों से आँसुओं को
यूँ ढुलकाती है कि मन हल्का हो जाए

पर,क्या ऐसे
आँसुओं का कोई मोल है
नम आँखों की कहानी अनकहे बयां होती है

जब साथ-साथ
हमारे नयन और
तुम्हारे नयनों में नमी होती है

 तब मन
 तुम्हारे प्यार भरे झील में
 यूँ ही नहा कर खुश हो जाता है
कितने अकेले हैं
हम भी
 नहीं, तुम भी


शायद, साथ रहने का
एक भ्रम-सा
जिन्दगी भर पालते हैं


सब अपने मन की
आज़ादी
 तलाश रहें हैं

कभी तुम भी
साथ रह कर
चुप रहने का इशारा करते हो

कभी मैं खुद
चुप रहना चाहती हूँ
तब तुम चुप रहना बेहतर मानते हो

यह चुप्पी
कभी अच्छी लगाती है
कभी चुभती है,बबूल की काँटों-सी

Tuesday, July 16, 2013



 बचपन में जब गाँव में हम भाई-बहन जब एक-दूसरे को हंसाने के लिए खेलते थे और जबरदस्ती गुदगुदी लगा कर नाराज छोटों या बड़ों को हँसाने और मनाने की कोशिश करते थे। पता नहीं आज कल बच्चे इसे खेलते हैं या नहीं। क्योंकि वहां भी अब टीवी सीरियल देखने का ही जोर है।

अट्टा-पट्टा
नौ-दस गट्टा
खरवा-खात
पनिया पीयत
कहाँ गइल
कहाँ गइल

Thursday, July 11, 2013



मैं चली जा रही थी
उस ओर जहाँ

कोयल कूकती थी
 मोर मेघ निहार रहा था

मेरे कानों में
तुम्हारी आवाज़ आई

मैं उधर ही चल दी
बहुत जतन से संजोया सपना

कई संकल्पों की दुनिया
ख्वाहिशों के समंदर में तिरती है मन की नाव

खुद से संवारना
जब यह  नाव तुम्हारे गाँव के किनारे रुके

तब फिर से मन की
नई बस्ती बसाएँगे फूलों की खुशबू से तर

Monday, July 1, 2013

kavita



 आज मन 

जमुना किनारे है श्याम
आज मन
तुम्हारे सहारे है श्याम


आज मन
मधुबन में नाचे है श्याम
आज मन
 तुम्हारे अंग लगे है श्याम


आज मन
बंसी की धुन गूंजे है श्याम
आज मन
तुम्हारे रंग  लिए है श्याम


आज मन
हिंडोले में झूले है श्याम
आज मन
तुम्हारे संग लिए है श्याम 


Saturday, June 29, 2013


एक गीत कहूँ या कथा वह जो बचपन में अपनी दादी जी से सुना करती थी.


>बढई-बढई  तू खूंटा चीर खूंटवा में दाल बा का खाई का पिउं का ले परदेस जाई 

>राजा-राजा तू बढई डार बढई न खूंटा चीरे खूंटवा में दाल बा का खाई का पी का ले परदेस जाई


>रानी-रानी तू  राजा समझाऊ राजा ना बढ़ई डारे बढई न खूंटा चीरे खूंटवा में दाल बा का खाई का पी का ले    परदेस जाई 

>सांप सांप तू रानी डस रानी न राजा समझावे राजा ना बढ़ई डारे बढ़ई ना खूंटा चीरे खूंटवा में डाल बा का खाई का पी का ले परदेस जाई

>लाठी-लाठी  सांप मार सांप न रानी डसे रानी न राजा समझावे राजा ना बढ़ई डारे बढ़ई ना खूंटा चीरे खूंटवा में दाल बा का खाई का पी का ले परदेस जाई

>आग-आग तू लाठी जारो लाठी न सांप मारे सांप ना रानी डसे रानी ना राजा समझावे राजा ना बढई डारे बढ़ई ना खूंटा चीरे खूंटवा में दाल बा का खाई का पी का ले परदेस जाई

>सागर-सागर तू आग बुझाव आग ना लाठी जारे लाठी न सांप मारे सांप ना रानी डसे रानी न राजा समझावे राजा  ना बढ़ई डारे बढ़ई ना खूंटा चीरे खूंटवा में दाल बा का खाई का पी का ले परदेस जाई

>सूरज-सूरज तू सागर सोख सागर न आग बुझावे आग ना लाठी जारे लाठी न सांप मारे सांप न रानी डसे रानी ना राजा समझावे राजा ना बढ़ई डारे बढ़ई ना खूंटा चीरे खूंटवा में दाल बा का खाई का पी का ले परदेस जाई

 >हमें बुझाओ-उझाओ मत कोई हम लाठी जारब लोई

>हमें जराओ-ओराओ मत कोई हम सांप मारब लोई

>हमें मर-ओरो मत कोई हम रानी डसब लोई

>हमें डस-ओस मत कोई हम राजा समझावब लोई

>हमें समझाओ-बुझाओ मत कोई हम बढ़ई डारब लोई 


मन का सुख तो
तुम्हारे मन के झील में ही मिला
कहाँ पता था
तुम्हें भी
जिन्दगी के ये रंग
इतनी हंसी और ख़ुशी देंगे


मेरे  मन के झील का एक टापू
हराभरा है
शायद तुमने ही कभी हरसिंगार का बीज
उसकी खुशबू
महकती है , मेरी शामों को


 सच, यह जिन्दगी हमें
कहाँ से कहाँ ले आई
हैरान होती हूँ
लेकिन, खुशियों के पलों की खवाहिश
हमें जोडती है ,घडी की सुई की तरह

तुम्हारे मन की गहराई
जिसकी थाह पाना मुमकिन नहीं होता
लगता है , ऐसे ही
मन का झील तो खामोश रहता है
पर उसका पानी पल-पल बहता रहता है, मेरी ओर