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Saturday, December 7, 2013

तुम्हारी अंगुली थाम
पहली बार चली थी
शायद
लड़खड़ाई भी थी
तुमने सहारा दिया

चलते-चलते
 यहाँ तक चली आई
तुम उसी पगडण्डी पर
पुराने बरगद के नीचे
अब तक रुक
मुझे निहारते हो

मैं जानती हूँ
तुम्हारे लिए
मेरे खातिर इतना करना
कुछ आसान नहीं होता होगा
तुम्हारी अपनी दुनिया है

जानते हो!
तुम्हारी नजर का सहारा
बेशकीमती है
क्योंकि तुम्हारी निगाहों से
आज तक देखती रही हूँ
जिंदगी को

मुझे लगता है
हर सुबह
तुम्हारी मुस्कुराहट
एक उत्सव बन आती है
मुझे नींद से जगाने
मैं सँवरने लगती हूँ
गुनगुनी सर्दी की धूप-सी



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