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Thursday, February 27, 2020

नृत्य ने मुझे अनुशासन सिखाया-विधा लाल,कथक नृत्यांगना


                      

                                   नृत्य ने मुझे अनुशासन सिखाया-विधा लाल,कथक नृत्यांगना


कथक नृत्यांगना विधा लाल गुरू गीतांजलि लाल की शिष्या हैं। विधा  लेडी श्रीराम काॅलेज की छात्रा रही हैं। वर्ष 2011 में गीनिज वल्र्ड रिकार्ड में उनका नाम दर्ज हुआ, जब उन्होंने एक मिनट में 103चक्कर कथक नृत्य करते समय लगाया। उन्हें नृत्य में पोस्ट ग्रेजुएशन के लिए खैरागढ़ विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक मिला है। इसके अलावा, विधा लाल को बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार, जयदेव राष्टीय युवा प्रतिभा पुरस्कार, कल्पना चावला एक्सीलेंस अवार्ड व फिक्की की ओर से यंग वीमेन अचीवर्स अवार्ड मिल चुका है। इस बार आप रूबरू हो रहें हैं, जयपुर घराने की कथक नृत्यांगना विधा लाल से। 

-प्रस्तुति शशिप्रभा तिवारी

नृत्य आपके लिए क्या महत्व रखता है?

विधा लाल-शास्त्रीय नृत्य को पूजनीय समझती हूं। दरअसल, शास्त्रीय नृत्य बहुत सारे अनुशासन हमें सिखाता है। इस नृत्य में करने को बहुत कुछ होता हैं जिन्हें हम अपने जीवन का हिस्सा बनाते हैं। गुरू के सानिध्य में रहकर, हम नृत्य के साथ-साथ और भी बहुत कुछ सीखते हैं। गुरू और नृत्य दोनों जीवन के मार्गदर्शक बन जाते हैं। जो हमें ईश्वर की तरह रास्ता दिखाते हैं। वास्तव में, नृत्य मेरा जीवन, मेरा पहला प्यार, मेरा सबकुछ है। आज मैं जो कुछ भी हूं, वह नृत्य की वजह से ही हूं। इससे मुझे दुनिया में पहचान मिली है।

नृत्य से आपके जीवन में क्या बदलाव आया?

विधा लाल-नृत्य के तालीम की शुरूआत का पहला अध्याय ही-अनुशासन है। अनुशासित जीवन जीने के साथ हमारा स्वभाव खुद-ब-खुद सौम्य होता जाता है। अक्सर, हम कलाकार पौराणिक कथाओं में रमे रहते हैं। उन्हीं को सुनते हैं, उन्हीं की व्याख्या नृत्य में करते हैं। इससे हमारा स्वभाव मृदु हो जाता है। साथ ही, हम माफ करना सीख जाते हैं। मेरे अंदर अध्यात्मिक भावना जागृत हुई है। मैं अपने पहले की अपेक्षा काफी बदलाव महसूस करती हूं।

मैं अपने को ज्यादा संवदेनशील मानती हूं। मैं पहले से ज्यादा खुश रहती हूं। हम कभी राम के भावों को महसूस कर रहे होते हैं, कभी कृष्ण तो कभी शिव-पार्वती। ऐसे में बाहरी दुनिया की चीजें धीरे-धीरे हम पर कम असर डालने लगती हैं। और हम दिल से प्रेम करने की प्रक्रिया से गुजरने लगते हैं। मुझे लगता है कि हम जीवन के वास्तविक सत्य से साकार होने लगे हैं। यह हमारे लिए बहुत उपयोगी हीलर की तरह है। क्योंकि हर परफाॅर्मेंस हमारे लिए किसी बोर्ड परीक्षा की तरह होता है। हर पल उससे बेहतर करने की कोशिश में लगे रहते हैं।








आप अपने करियर का लगभग बीस वर्ष पूरी कर चुकी हैं। अब आप किस तरह का परिवर्तन अपने नृत्य में महसूस करती हैं?

विधा लाल-मैंने कथक नृत्य बहुत कम उम्र में सीखना शुरू कर दिया था। शुरूआती दिनों में मुझे दु्रत लय में नृत्य का तकनीकी पक्ष आकर्षित करता था। उसी उर्जा से मैं काम भी करती थी। यह सच है। धीरे-धीरे महसूस हुआ कि नृत, नृत्य और नाट्य तीनों का समावेशन नृत्य में जरूरी है। अब मुझे लगता है कि फुट वर्क या चक्कर करने से नृत्य पूरा नहीं होता है। फिर यह भी महसूस करती हूं कि भाव कोई सिखा नहीं सकता। यह उम्र के साथ हमारे भीतर से उपजता है। अगर, किसी सोलह साल की बच्ची को माता यशोदा का भाव करने को कहा जाएगा, तब उसे मुश्किल होगी ही। लेकिन, उसके लिए अभिसारिका या मुग्धा नायिका का भाव करना कुछ सरल होगा। हम जीवन के अनुभव के जरिए बहुत कुछ आत्मसात करते हैं और उसे अपनी कला में पिरोते हैं।
आपको किस नृत्यांगना का नृत्य बहुत भाता है?

मेरी कोशिश होती है कि हम नृत्य शैली के नृत्य को देखूं। मुझे भरतनाट्यम नृत्यांगना रमा वैद्यनाथन का नृत्य बहुत पसंद है। वह बहुत सोचती हैं। चीजों की बारीकियों को सोच-समझ कर और उसे तैयार करना। नए-नए विषय को तलाशना उनकी खासियत है।


अपनी गुरू के किस गुण को आप खुद में समाहित करना चाहती हैं?

विधा लाल-गुरू जी नृत्य की तो महारथी हैं ही। वह गाती बहुत अच्छा हैं। उन्होंने शास्त्रीय नृत्य के साथ संगीत भी सीखा है। वह नृत्य के लिए जो संगीत क्रिएट कर सकती हैं, उसकी परिकल्पना कर पाना सबके वश की बात नहीं है। मेरा सपना है कि मैं भी उनकी तरह शास्त्रीय संगीत को सीख सकूं। हालांकि, कुछ-कुछ शास्त्रीय गायन सीखा है। लेकिन मैं गायन को और गहराई के साथ सीखने की इच्छुक हूं।




Friday, February 21, 2020

shashiprabha:                                               ...

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:                                                                 संगीत के सुरों का संगत  और   पंडित राजेंद्र प्रसन्ना                 ...

shashiprabha: शास्त्रीय नृत्य की एक अनवरत परंपरा है।

shashiprabha: शास्त्रीय नृत्य की एक अनवरत परंपरा है।: शास्त्रीय नृत्य की एक अनवरत परंपरा है। इसके तहत गुरूओं के सानिध्य में शिष्य-शिष्याएं कला की साधना करते हैं। गुरूमुखी विद्या का यह अवगाहन गु...

shashiprabha: सत्रीय नृत्य का अखिल भारतीय विस्तार जरूरी है

shashiprabha: सत्रीय नृत्य का अखिल भारतीय विस्तार जरूरी है:                                               सत्रीय नृत्य का अखिल भारतीय विस्तार जरूरी है                                             ...

Thursday, February 20, 2020

सत्रीय नृत्य का अखिल भारतीय विस्तार जरूरी है




                                             सत्रीय नृत्य का अखिल भारतीय विस्तार जरूरी है
                                              -अन्वेषा मोहंता

अन्वेषा मोहंता गुरू घनाकांत बोरा की शिष्या हैं। अन्वेषा देश-विदेश में सत्रीय नृत्य पेश करती रही हैं। उन्हें उस्ताद बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार और भारत कला रत्न सम्मान मिल चुके हैं। कल यानि 20 फरवरी को खजुराहो नृत्य समारोह में सत्रीय नृत्य के गुरू जतीन गोस्वामी कालिदास सम्मान से मध्य प्रदेश सरकार ने सम्मानित किया है। उसी के मद्देनजर सत्रीय नृत्य  कलाकार अन्वेषा मोहंता रूबरू हो रहे हैं-शशिप्रभा तिवारी

आपका सत्रीय नृत्य से परिचय कैसे हुआ?

अन्वेषा मोहंता -मैंने बचपन से ही सत्र और सत्रीय नृत्य के वातावरण हो देखा है। यह बहुत पवित्र कला थी। छुटपन में भावना यानि सत्रीय नाटक देखती थी। इसके कलाकार बहुत समर्पित भावना से अभिनय करते हैं। उनमें समर्पण भाव बहुत ज्यादा होता है। मेरे लिए सत्रीय मेरा जीवन और भगवान के प्रति समर्पण है। कलाकार आंख बंद करते हुए, नामघर में घुसते हैं, खुद को गुरू के आसन के प्रति समर्पित कर देते हैं। बाद में, मुझे पता चला कि यह सत्र की परंपरा है।

आप अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताईए?
अन्वेषा मोहंता -हमारे पूर्वज सत्र से जुड़े हुए हैं। हमलोग शिवसागर जिले के कंुवरपुर गांव में रहते थे। फिलहाल तो गुवाहाटी में रहते हैं। जो रीति-रिवाज सत्र में होते हैं, वही हमारे घर में भी निभाई जाती है। हमारे दादाजी सत्राधिकारी थे। हमने सत्र की परंपरा अपनी दादी मां से सीखा। वह हम बच्चों को कीर्तन सिखाती थीं। उन्होंने ही सिखाया कि शंख, नगाड़ा या झाल बजता है, उस समय किस तरह बैठना है। वह सब देखते-समझते अपने-आप ही समर्पण भाव जाग जाता है। इसके लिए अलग से प्रयास करने की जरूरत नहीं पड़ती। दादी सत्र के ग्रंथों को पढ़ती थीं और हम सुनते थे। हम सुनते-सुनतते याद किया और वो धीरे-धीरे हमारे तन-मन का हिस्सा बन गया। कीर्तन के समय की प्रार्थना का असर दिलो-दिमाग पर बहुत ज्यादा होता है।

आप किस सत्र से जुड़ी हुई हैं?
अन्वेषा मोहंता -हमलोग पालनाथ सत्र के साथ संबंधित हैं। साल में सात-आठ बार, विशेष अवसरों पर तो हमलोग सपरिवार शिवसागर चले ही जाते हैं। वहां सत्र में सभी भक्तगण जुटते हैं। सभी गाते हैं, सभी भाव करते हैं। दादाजी की पुण्यतिथि और बिहू के अवसर पर हम शिवसागर जरूर जाते हैं। सत्र में ‘भावना‘ की प्रस्तुति मुझे बहुत आकर्षित करता है। वहां वही आदमी शाम को नामघर में अभिनय करता है, अगले दिन सुबह उसे ही खेत में किसानी करते देखती हूं। इस उम्र में सोचती हूं कि एक-एक इंसान को कितने किरदार निभाने पड़ते हैं। एक भावना रात को आठ बजे रात को शुरू होती है और सुबह पांच बजे खत्म होती है। कथावाचन, किरदार का इन्वाॅल्वमेंट ऐसे छूता है।



आप अपने गुरूजी के बारे में कुछ बताईए?
अन्वेषा मोहंता 
मैं गुरुजी के सानिध्य में छह साल की उम्र से हूं। एक बार गुरुजी को नृत्य करते देखा, उनसे पूछा कि आप ही कृष्ण थे? उनका जवाब था-वो तो मेरे साथ रहते हैं। क्या तुम कृष्ण के साथ नृत्य करोगी। इस तरह गुरुजी के साथ एक दोस्ताना रिश्ता बन गया। वह मेरे पिता की तरह मेरी हर बात समझते हैं, जो मैं उन्हें बताना चाहती हूं। आमतौर पर, गुरु काफी स्ट्रिक्ट होते हैं। पर सौभाग्य से मेरे गुरुजी बहुत ही सरल और सहज हैं। नृत्य के किसी स्टेप में बैठना है। तो उस के पीछे के भाव, आशय और तात्पर्य को वह बहुत गंभीरता से समझाते हैं। मुझे लगता है, जब तक गुरुजी का सानिध्य है, मैं नृत्य सीखती रहूंगी।
करीब दस साल सीखने के बाद भी, आज भी जब मुझे समय मिलता है। मैं गुरुजी के पास चली जाती हूं। गुरुजी के साथ-साथ टैªवल करते-करते मैंने बहुत सीखा है। मैंने कभी एक घंटे जाकर, सिर्फ क्लास करके नृत्य नहीं सीखा है। मैं गुरुजी के पास घंटों बैठकर साहित्य की चर्चा करते हैं। संगीत के बारे में बात होती है। सत्र के जीवन के बारे में समझने की कोशिश करते हैं।

Thursday, February 13, 2020

सत्रीय नृत्य समारोह



                                                          सत्रीय नृत्य समारोह

                                                          शशिप्रभा तिवारी

शास्त्रीय नृत्य सत्रीय असम का लोकप्रिय नृत्य है। अब तक सत्रीय नृत्य पूर्वोत्तर और असम में ही सीमित रहा है। संगीत नाटक अकादमी और सत्रीय नृत्य के गुरूओं व कलाकारों के प्रयास से इसे देश के विभिन्न प्रदेशों में प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है। राजधानी दिल्ली, मुम्बई, पुणे, कोलकाता में सत्रीय नृत्य को सीखने के प्रति युवाओं में रूचि बढ़ी है। इसकी झलक मेघदूत सभागार में आयोजित सत्रीय प्रवाह में दिखी।

संगीत नाटक अकादमी की ओर से आयोजित सत्रीय प्रवाह समारोह में सत्रीय नृत्य की अलग-अलग छटा को कलाकारों ने पेश किया। प्रस्तुति का आरंभ परमानंद काकोती बरबायन और साथी कलाकारों के गायन-बायन से हुआ। परमानंद और साथियों ने लयात्मक खोल वादन और सुरीले गायन से मनोहर शुरूआत की। समारोह का समापन धृति गोविंद दत्ता और मनोज कुमार दास की जुगलबंदी से हुआ। उन्होंने तबला व खोल वादन के जरिए तीन ताल व भरमान ताल बजाया। 



सत्रीय नृत्यांगना दिविका बड़ठाकुर और उनकी शिष्याओं ने सत्रीय नृत्य पेश किया। इसका आगाज साली नृत्य से हुआ। सत्रीय नृत्य की तकनीकी पक्ष, शुद्ध नृत व राजाघड़िया नृत्य पक्ष को इस पेशकश में दर्शाया गया। इसमें हस्तकों और मुद्राओं का लास्यात्मक प्रयोग किया गया। यह श्रीमंत माधवदेव की रचना ‘कृष्णम तुभ्यम नमामि‘ पर आधारित थी। इसमें भगवान विष्णु के दशावतार का विवेचन मोहक था।

सत्रीय प्रवाह की अगली प्रस्तुति बड़गीत थी। माधव देव की रचना ‘सखी देखी मदन गोपाल‘ पर आधारित नृत्य में अभिनय की प्रधानता थी। इसमें नृत्यांगनाओं ने कृष्ण के जीवन से जुड़े अनेक प्रसंगों का वर्णन किया। इस प्रस्तुति में साक्षी, श्रुतिका और बिशमिता ने शिरकत की। कृष्ण वंदना नृत्यांगना दिविका बड़ठाकुर की एकल प्रस्तुति थी। नृत्यांगना दिविका ने कृष्ण के नंदगोपाल, नारायण, गोविंद, देवकीनंदन, पंकजनाभ, वासुदेव रूपों का  विवेचन पेश किया। साथ ही, बाल कृष्ण के मिट्टी खाने, किशोर कृष्ण के गोवर्धन पर्वत, कुब्जा उद्धार, कंस व चाणूर वध प्रसंग को चित्रित किया। इस प्रस्तुति में वात्सल्य व भक्ति रस का संुदर समन्वय था।

सत्रीय नृत्य के रामदानी यानि कोमल तांडव पक्ष को नादुभंगी नृत्य में पेश किया गया। शुद्ध नृत की इस प्रस्तुति में विभिन्न बोलों पर देह की अलग-अलग मुद्राओं को नृत्यांगनाओं ने विशेषतौर पर पेश किया। यह नृत्य सूता ताल में निबद्ध था। श्रुतिका और श्रावणी की युगल प्रस्तुति आकर्षक थी। अगली युगल प्रस्तुति नर्तक मंजीत कलिता और देवजीत दत्ता की थी। यह बाहार नृत्य थी। श्रीमंत माधव देव की रचना को आधार लेकर, कलाकारों ने बाहार नृत्य पेश किया। यह गीत ‘अरे बंृदावने भीतलो हरि, ए गुणेरिोरनिधि‘ पर आधारित थी। नर्तक मंजीत व देवजीत ने नृत्य प्रस्तुति में उत्प्लावन, भ्रमरी और पद संचालन संतुलित अंदाज में पेश किया। साथ ही, उन्होंने भंगिमाओं के प्रयोग के जरिए कृष्ण के माधुर्य रूप का मोहक चित्रण किया। इस प्रस्तुति को देखकर अष्टछाप कवि वल्लभाचार्य की रचना ‘अधरं मधुरं‘ का भान सहज ही हो आया। वाकई, यह युगल नृत्य भावपूर्ण थी।

Wednesday, February 12, 2020

शास्त्रीय नृत्य की एक अनवरत परंपरा है।

शास्त्रीय नृत्य की एक अनवरत परंपरा है। इसके तहत गुरूओं के सानिध्य में शिष्य-शिष्याएं कला की साधना करते हैं। गुरूमुखी विद्या का यह अवगाहन गुरू के सम्मुख बैठकर ही संभव है। भले ही, आज इंटरनेट के जरिए सब कुछ आसान हो गया है। पर मानस और मानवीय भावनाओं का जो आदान-प्रदान सानिध्य के जरिए होता है। उसका कोई विकल्प नहीं है। इसी के मद्देनजर युवा प्रतिभाओं की भावनाओं को उजागर करने के लिए, हम हर शुक्रवार को आपके सामने उन्हीं के भावों को पेश करने की कोशिश करेंगें। हमें आशा है कि आप सुधि पाठकों और रसिकों का सहयोग मिलेगा ताकि हमारा उत्साह बना रहे। तो इस बार की शुरूआत कथक नृत्यांगना गौरी दिवाकर की नृत्य यात्रा के बारे में जानते हैं, उन्हीं की जुबानी-


कथक नृत्यांगना गौरी दिवाकर अभी हाल ही में प्रतिष्ठित दरबार संगीत समारोह में शिरकत करके लौटी हैं। इस यात्रा के दौरान, उन्होंने विश्व स्तर के कलाकारों के साथ मिलकर, भारत रत्न पंडित रवि शंकर की जीवन कथा को नृत्य के जरिए पिरोया। इस सामूहिक प्रस्तुति में ब्रिटेन के समीक्षकों ने गौरी दिवाकर के कथक नृत्य को खासतौर पर सराहा है। गौरी उस्ताद बिस्मिल्ला खां सम्मान, जयदेव प्रतिभा सम्मान, श्रृंगार मणि सम्मान से सम्मानित हैं। इस महीने की 21तारीख को इंडिया हैबिटाट सेंटर में गौरी दिवाकर नृत्य रचना ‘समरात्री नाइट आॅफ डिवाइन यूनियन‘ पेश करने वाली हैं।






आपका बचपन जमशेदपुर में बीता है। आपका दिल्ली कैसे आना हुआ?

गौरी दिवाकर --मैं बारहवीं की पढ़ाई के बाद दिल्ली आ गई थी। मेरी बड़ी दीदी और जिजाजी अपने साथ ले आए थे। वैसे तो मैंने जमशेदपुर में भी नृत्य सीखा था। नृत्य खासतौर में कथक के बारे में किताबी ज्ञान, जिसको कहते हैं, वह मुझे कुछ ज्यादा ही था। यहां रहते हुए, कथक कंेद्र सेे जुड़ी। कथक केंद्र में मेरा इंटरव्यू महाराजजी ने लिया था। मुझसे भारती दीदी और गुरू मुन्ना शुक्ला ने पूछा कि तीन ताल या झप ताल या धमार ताल में से किस पर नाचना पसंद करेंगी। मैं इतनी नासमझ और गर्वीली थी कि बोली रूद्र ताल पर नृत्य करूंगीं। और अपने अति आत्मविश्वास के साथ उनलोगों के सामने जितना आता था, सब प्रस्तुत कर दिया। अब सोचती हंू तो अपनी बेवकूफी और हिमाकत पर हंसी आती है। कभी-कभी अपनी मूढ़ता पर अफसोस भी होता है।

कथक केंद्र्र में समय कैसे बीता?

गौरी दिवाकर--समय बीतता गया। मैं सुबह आठ बजे कथक केंद्र पहुंच जाती। सारे दिन यहां बीताती और शाम को पांच बजे घर वापस लौट जाती थी। कथक केंद्र में मैं कथक की तकनीकी पक्ष से बखूबी वाकिफ हुई। तीन ताल की एक-एक बारीकी को जैसा गुरूओं ने सिखाया, उसे आत्मसात करने की कोशिश की। फिर, स्काॅलरशिप मिला। मुझे लगा कि अगर नीयत सही होती है तो प्रकृति आपको ऐसे ही सहयोग देती है। और आपके रास्ते खुलते जाते हैं। हां, रास्ते सही होने जरूरी हैं। बतौर, कलाकार अपनी पहचान बनाने के लिए मुझे काफी संघर्ष करना पड़ा। पर मैं खुद को सौभाग्यशाली मानती हूं, जो मुझे गुरूओं का बहुत आशीर्वाद मिला।


आपको दूसरे कलाकारों की प्रस्तुति देखने का समय मिलता है?

गौरी दिवाकर--मैंने मंडी हाउस के आस-पास काफी समय गुजारा है। क्योंकि थर्ड ईयर में जब आई तो शाम को हर रोज नाटक देखती या किसी का डंास देखती या किसी कलाकार का संगीत सुनती। मुझे कलाकारों की कलाओं को पेश करते हुए देखना बहुत भाता था। एक तरह से कहूं तो यह आदत से मन गई थी। या कहूं तो लत लग गई थी। बड़े-बड़े कलाकारों के डांस देखती तो मन में तय करती थी कि अब मैं भी जमकर रियाज करूंगी। और खूब-खूब मेहनत करूंगीं। हालांकि, आजकल पहले जितने शो तो नहीं देख पाती हूं। पर अगर दिल्ली में होती हूं तब समय निकालकर, शाम को प्रोग्राम देखने जाना पसंद करती हूं।





नृत्य सीखने के लिए क्या जरूरी मानती हैं?

गौरी दिवाकर--मुझे याद है कि मुझे स्काॅलरशिप साढ़े छह सौ रुपए मिलते थे। मैं अपना गुजारा उसी से करती थी। केंद्र में महाराज जी, चीकू भईया, गीतांजलि दीदी, प्रेरणा दीदी, मालती दीदी सबसे कुछ-कुछ सीखने की कोशिश में रहती थी। मेरे पास ईमानदारी से काम करने का जज्बा था। मुझे सीखने की भूख थी। कुछ हासिल करने या जल्दी से कुछ बन जाने का इरादा नहीं था। बहुत पैसा कमाना है, यह तो कभी सोचा ही नहीं। मैं अपने अनुभव से समझती गई हूं कि केवल वर्कशाॅप करके या यहां-वहां कुछ-कुछ सीखकर डांसर नहीं बना जा सकता है। यह तो साधना है। यह अनवरत मेहनत और लगन की अनंत यात्रा है। जो अनंत की ओर आपको अग्रसर करता है।

आपको कई गुरूओं से सीखने का अवसर मिला है। इस बारे में कुछ बताईए?

गौरी दिवाकर--मुझे पंडित बिरजू महाराज, गुरू जयकिशन महाराज और अदिति दीदी से नृत्य सीखने का अवसर मिला। गुरू जयकिशन महाराज जी जिन्हें हम सभी चीकू भईया कहते हैं। वह एक  समर्पित गुरू हैं। वह बहुत ही निस्वार्थ भाव से सिखाते हैं। वह क्लास में प्रैक्टिस के दौरान अक्सर पंखा बंद करवा देते थे। उनका कहना था कि विद्यार्थी को कष्ट सहना जरूरी है। तभी वह अपनी विद्या का महत्व समझ पाते हैं। उन्होंने हमें कथक केंद्र की रिपर्टरी के साथ जोड़ा। उन्हें नृत्य के साथ संगीत की समझ बहुत अच्छी है। महाराज जी तो अथाह सागर हैं। अदिति दीदी के बारे में मैं क्या कह सकती हूं। उन्होंने तो हमें गढ़ा है।

कोई यादगार घटना!

गौरी दिवाकर--कथक केंद्र की एक घटना याद आती है। दीपावली का उत्सव कथक केंद्र में मनाया जा रहा था। सभी से कुछ-कुछ पेश करने को कहा गया। मेरी बारी आई, महाराज जी ने कहा-बिहारी इधर आ। कुछ सुनाओ। तब मैंे गीता के पंद्रहवें अध्याय का पढंत किया। वह इतने प्रभावित हुए कि उस दिन के बाद से मुझे बिहारी के बजाय पंडिताइन बुलाने लगे। उनके सिखाने का तरीका, एक-एक लाइन को मेंटेंन करना बहुत अलग है। उनदिनों कथक केंद्र में बहुत रोक-टोक नहीं था। हम कभी महाराज जी का क्लास करते। उसके बाद, चीकू भइया के क्लास में चले जाते। वहीं रियाज चलता रहा। उनदिनों कथक केंद्र के हर कोने-कोने से घुंघुरूओं और पढंत की आवाज आती रहती थी।

Thursday, February 6, 2020





                                                                संगीत के सुरों का संगत और पंडित राजेंद्र प्रसन्ना

                                                                शशिप्रभा तिवारी




पंडित राजेन्द्र प्रसन्ना बनारस घराने के बंासुरी और शहनाई वादक हैं। उन्हें अपने पूर्वजों से बंासुरी वादन की कला विरासत में मिली है। पर अपनी लगन और प्रतिभा के बल पर उन्होंने पारिवारिक विरासत को संजोया है। पंडित राजेन्द्र प्रसन्ना ने अपने पिता पंडित रघुनाथ प्रसन्ना और चाचा पंडित भोलानाथ व पंडित विष्णु प्रसन्ना से बंासुरी की बारीकियों को सीखा। बंासुरी में गायकी अंग को समाहित करने के लिए उन्होंने रामपुर सहसवान घराने के उस्ताद हाफिज अहमद और उस्ताद सरफराज हुसैन खंा साहब से तालीम ली।

वह अपने घर की परम्परा के बारे बताते हुए, कहते हैं कि हमारे पूर्वज कूचबिहार के दरबार के कलाकार थे। वहंा वो लोग नौबत खाने में शहनाई बजाते थे। पर मेरे पिताजी को ऐसा लगा कि शहनाई में वो इज्जत नहीं मिलेगी, जिसकी उन्हें उम्मीद थी, सो उन्होंने बासुरी बजाना और सिखाना शुरू किया। उन्होंने अपने छोटे भाई भोलेनाथ और पंडित रोनू मजूमदार के पिता भानु मजूमदार को सिखाया। बाद में, उन्होंने शिष्यों को तालीम देना अपना मुख्य ध्येय बना लिया। एक समय था, जब बंासुरी वादन के क्षेत्र में मेरे पिताजी और पंडित पन्ना लाल घोष का नाम था।

पंडित राजेन्द्र प्रसन्ना आगे कहते हैं कि मुझे शहनाई बजाना मेरे दादाजी ने सिखाया। पर 70 के दशक में मैंने बंासुरी बजाना शुरू किया। पिताजी से सीखने का मौका कम मिलता था क्योंकि वो मुम्बई में रहते थे और मैं बनारस में। वह चार सौ रूपए भेज देते थे, उससे घर का खर्च मुश्किल से चलता था। मुझे याद है कि मैंने सात साल की उम्र से ही शादी-व्याह के मौके पर शहनाई बजाता था। इससे माताजी को घर चलाने के लिए कुछ मदद मिल जाती थी। आठ साल की उम्र में कलकŸो में बालकलाकारों के संगीत उत्सव में पहली बार बजाया था। उस समय मुझे चाॅकलेट मिला था। उस वक्त मैंने पहली बार चॅाकलेट देखी थी। उस समारोह में मुझे मेरे चाचाजी लेकर गए थे।

वह अपना आदर्श पंडित रविशंकर और उस्ताद अमजद अली को मानते हैं। वह एक वाकया को याद करते हुए, कहते हैं सन् 2002 में पंडित रवि शंकर के साथ लंदन में काम करने का मौका मिला। वह समारोह राॅयल अलबर्ट हॅाल में आयोजित था। प्रोग्राम से पहले सात दिनों का रिहर्सल चला। सुबह ग्यारह बजे से रिहर्सल शुरू होती थी, पर पंडित रविशंकर हम कलाकारों से पहले ही वहां पहँुच जाते थे। उनका वह अनुशासन काफी प्रेरणादायी लगा। बाद म,ें उस वीडियो को प्रतिष्ठित ग्रैमी अवार्ड मिला।

गुरू-शिष्य परम्परा के बारे बताते हुए पंडित राजेन्द्र प्रसन्ना कहते हैं कि आजकल के बच्चे सीखना तो चाहते हैं, पर उन्हें नाम कमाने के लिए जल्दीबाजी रहती है। गुरू और बुजुर्गों की दुआ से बेसुरा भी सुर में हो जाता है। दुआओं से ही कला फलीभूत होती है। गुरूओं की फटकार से कलाकार अपनी कला को माँजता है। माँ-बाप और गुरू की बददुआ से कला खत्म हो जाती है।



    पंडित राजेन्द्र प्रसन्ना के तीन बेटे हैं।उन्होंनेे भी उनसे तालीम ली है। वह कहते हैं कि मेरे बच्चों ने काॅलेज की पढाई की है। वे लोग मेहनत करें तो अच्छा कर सकते हैं। संगीत में रियाज सबसे जरूरी है। खानदानी संगीत भी बिना रियाज के टिक नहीं सकता। अगर कलाकार रियाज नहीं करेंगें तो मनचाहा स्वर नहीं निकाल पाएँगें। शहनाई वादकों की देश को बेहद जरूरी है, क्योंकि शहनाई सम्राट बिस्मिल्ला खंा के जाने के बाद इस क्षेत्र में शून्यता आ गई है। अपनी बहुमूल्य विरासत को संजोए रखने का दायित्व युवाओं पर है।

बांसुरी सीखने के बारे में वह कहते हैं कि छोटे बच्चों की तालीम की शुरूआत सरगम के साथ शुरू होती है। उसके बाद, तीव्र ‘मध्यम‘ वाले राग को प्राथमिकता दी जाती है। पहला राग ‘यमन‘ मैं सिखाता हँू। इसके बाद दूसरा राग भैरवी ली जा सकती है। लेकिन कायदे से राग को सीखने में एक शिष्य को एक या दो साल लग जाते हैं। यदि एक शिष्य अच्छे से एक राग को सीख ले तो उसे दूसरे राग को सीखने में देर नहीं लगती।