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Friday, August 30, 2013

पवस की शाम
रिमझिम फुहार
मैं खिलती हूँ
हरसिंगार बन
बाट देखती हूँ,तुम्हारी
मेरी खुशबू
 तुम्हारी देहरी तक जाती है
मैं रात भर
मिलन की आस में
महकती हूँ
फिर, उदास हो
झर जाती हूँ
तुम जानते हो
मैं फिर,
शाम ढलने का
 इंतजार करती हूँ
और, डालियों पर
कली बन मुस्कुराती हूँ
अपनी क्षणिकता पर
कितने वैभव में जीती हूँ
तुम्हारी आस में
की हर पल नया है
कल नहीं आये तो क्या ?
आज फिर
नई शाम है
मैं नई हूँ
और जीवन नया है
तुम आ कर
स्पर्श कर देखो
मैं झर जाउंगी
तुम पर भी

Thursday, August 29, 2013

एक हल्की-सी
 नरम चादर यादों की
 मैं तुम्हारे सिरहाने तान आई हूँ
 मेरी बंद मुठियों में
 तुम्हारे आँखों की
 नरमाई समाई है
जब मन अनमना-सा होता है
 मुट्ठी खोल
 तुम्हारी पुतलियों में
अपनी अक्स को निहारती हूँ
 कुछ-कुछ बादल की
 रुई-जैसी अनुभूति मन
 तुम्हारे आस-पास
छा जाने को आतुर
पता नहीं
 कब गुलाबी हो
 तुम्हारी सांसों की खुशबू से
 महक उठता है
 देखना जब आँखे खोलो
 उसी खुशबू से
 तुम्हारी सांसें महकें
तब मुझे याद कर
हल्के-से मुस्कुराना
 ताकि सुबह-सुबह बन जाए सुनहरी 

Friday, August 16, 2013

बरसे सावन  की फुहार
झुला पड़ी अमुआ की डाली

झूले राधा रानी
झुलावे कृष्ण कन्हाई

भीजे डाली-डाली
भीगे सारी फुलवारी

झूले राधा रानी
झुलावे कृष्ण कन्हाई

तुम भी आओ
देखा छटा न्यारी

झूले राधा रानी
झुलावे कृष्ण कन्हाई

मन की दुहाई
कैसी ये छवि है बनाई

झूले राधा रानी
झुलावे कृष्ण कन्हाई

खुशबु मधुबन की
हम तक कैसे आई

झूले राधा रानी
झुलावे कृष्ण कन्हाई

Thursday, August 8, 2013

देखो आज कैसी
हवाएँ ठंडी बह रही हैं

मन के कदम्ब की डाली
हिलती है

न जाने क्यों ?
कान्हा, अब तुम कदम्ब तले नहीं आते

मैं तो बावली बन
यमुना के तट और मधुबन में फिरती हूँ

आओ जरा चुपके से
जी-भर के निहार लूँ , तुम भी चुप रहना

मैं खामोश रहूंगी
तुम बांसुरी की टेर देना मन भर जाएगा

क्योंकि तब मयूर नाचने लगेंगे
और मधुबन सुरों से सुवासित हो जाएगा

Tuesday, August 6, 2013

आज तुमने भेज ही दिया
मेरे आसमान में काले-काले मेघ
बरसती रहीं
झीनी-झीनी फुहारें मेरे आंगन
तुम्हारे मन का स्पर्श था
बरसते पानी में
नेह के आलिंगन में बंध
किन-किन पलों को
गिनता रहा मन
पीपल की वह छाओं
बहती नदी और तुम्हारे मन का गाँव
घुमती रही
तभी रेल की छुक-छुक सुन
वह विदा होने का पल याद आया
हर बार तुम
अपनी हथेलियों से थप-थपा
 मीठी-सी चुभन दे अलविदा कह देते
और मैं ओझल होते
तुमको निहारती रह जाती






Thursday, August 1, 2013

        

        मैं अपने हिस्से के बादल को
        निहारती हूँ
        शायद, तुम श्याम मेघ बन आओ
        मैं सावन की फुहारों में भींग जाऊ
        आँगन में झूला डालूँ
        कजरी-झूला गाऊ
        हरी चूड़ियाँ पहन खनखानाऊँ
        हथेलियों में मेहंदी  रचाऊँ
         अब बाबुल का बुलावा नहीं आता
         न आता है भाई का कोई संदेश
        पता नहीं ,
       कब और कैसे इतनी पराई
       बन गई ?
       कि अब उस ड्योढ़ी पर
      चढ़ने से , पहले
      सौ बार सोचेगा मन कान्हा!
      यह तुम ही जानोगे
      क्यों निहारती हूँ
     मैं तुम्हारी राह