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Monday, July 10, 2017

परवीन सुलताना

                                                                 

                                      परवीन सुलताना


           मधुर आवाज की मलिका परवीन सुलताना जन्म 10जुलाई 1950 कों हुआ था.  उनका जन्म स्थान         नौगांव, असम है। पिता  इकरामुल माजिद और  माता  मरूफा बेगम. बुद्ध पूर्णिमा को जन्मी परवीन सुलताना को संगीत अपने बुजुर्गों से विरासत में मिली। उनके दादा मोहम्मद नजीफ खां अफगानी मूल के थे, जो एक बेहतरीन रबाब वादक थे। परवीन के पिता इमरामुल माजिद को हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की अच्छी समझ थी। क्योंकि, उन्होंने करांची के गुल मोहम्मद खां और पटियाला घराने के उस्ताद बडे़ गुलाम अली खां से गायन सीखा था। शायद, इसलिए परवीन के पहले गुरू उनके पिता थे। परवीन सुलताना भाग्यशाली रहीं कि उनके परिवार के लोग उदार प्रवृŸिा और खुले विचारों के थे। बारह साल की उम्र में पहली बार सदारंग संगीत सम्मेलन, कोलकाता में परवीन सुलताना ने मंच पर गाया। उनके गायन को उस जमाने के बड़े-बड़े कलाकारों ने सराहा। असम से वह हर सप्ताहांत में कोलकाता अपने गुरू आचार्य चिन्मय लाहिड़ी के पास सीखने आती थीं। उन्हीं की सलाह से वह उस्ताद दिलशाद खां के सानिध्य में रही, जिन्होंने परवीन के आवाज तराशा और सजाया। परवीन सुलताना और उस्ताद दिलशाद खां ने कई मंचों से युगल संगीत पेश किया। उस्ताद दिलशाद खां से परवीन सुलताना की शादी हो गई। वह अपने उस्ताद को अपना गुरू, पति, मित्र और मार्गदर्शक सब कुछ मानती हैं। 
खूबसूरत और मधुर आवाज की मलिका परवीन सुलताना ने शास्त्रीय संगीत के साथ फिल्मों में भी अच्छी दखल रखी। उन्होंने हमें तुमसे प्यार कितना, पाकीजा, गदर, दुल्हा-दुल्हन, फिल्म1920, दो बंूद पानी में पाश्र्व गायन किया। पाकीजा में उन्होंने ठुमरी ‘कौन गली गयो श्याम‘ गाया था। जबकि, गदर में उन्होंने प्रसिद्ध गायक पंडित अजय चक्रवर्ती के साथ ठुमरी ‘आन मिलो सजना‘ गाया था। राजस्थान की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म दो बूंद पानी में राजस्थानी लोकगीत ‘पीतल की मोरी गागरी‘ गायिका मीनू पुरूषोŸाम के साथ गाया था, जो उस समय बहुत लोकप्रिय हुई थी। उन्हें फिल्मों में एक्टिंग के लिए सत्यजीत रे बतौर अभिनेत्री रखना चाहते थे। लेकिन, उन्होंने अभिनय को अपने को दूर रखकर, शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र को ही अपनाया। वह मानती हैं कि जिंदगी में प्रतिष्ठा पाने के लिए कभी भी छोटा रास्ता अपनाना चाहिए।
 गायिका परवीन सुलताना को सन्1976 में सिर्फ पच्चीस साल की उम्र में पद्मश्री मिला। उन्हें गंधर्व कलानिधि और संगीत नाटक अकादमी सम्मान मिल चुका है। उन्हें असम सरकार की ओर से संगीत साम्राज्ञी और श्रीमंत शंकर देव सम्मान प्रदान किया गया। उन्हें फिल्म कुदरत के गीत के लिए सन्1981 में सर्वश्रेष्ठ पाश्र्व गायिका का सम्मान प्राप्त हुआ। हिंदुस्तानी शास्त्रीय  संगीत के सुनकारों को भवानी दयानी महावाकवाणी सुनता ही परवीन जी का नाम याद आता है। आाज उनका जन्मदिन है।




Saturday, July 8, 2017

पंडित बिरजू महाराज



पंडित बिरजू महाराज


जन्म        4फरवरी, 1938
जन्म स्थान  वाराणसी
मूल नाम    बृजमोहन मिश्र
पिता का नाम-जगन्नाथ मिश्र, जो अच्छन महाराज के नाम से प्रसिद्ध थे।
पिता का व्यवसाय-रायगढ़ दरबार के राजनर्Ÿाक
माता का नाम-महादेवी
लखनऊ घराने की कथक के कालका-बिंदादीन घराने के प्रतिनिधि पंडित बिरजू महाराज का सफर लखनऊ से शुरू हुआ। वह अपने माता-पिता के सबसे छोटी संतान थे। उनसे बड़ीं उनकी तीन बहनें थीं। जब बालक बिरजू सिर्फ आठ साल के थे उनके सिर से पिता का साया उठ गया। हालांकि, बहुत छुटपने से ही वह अपने पिता के साथ कार्यक्रमों शिरकत करने लगे थे। फिर भी, तालीम से अपने को समृद्ध करने के लिए उन्होंने अपने दोनों चाचाजी पंडित लच्छू महाराज और पंडित शंभू महाराज का सानिध्य प्राप्त किया। संघर्ष के उस दौर में उनके पिता के शिष्य ‘नटराज‘ शंकर देव झा ने उनका खूब मार्गदर्शन किया। पंडित बिरजू महाराज की शिष्या कपिला वात्स्यायन ने भी उन्हें आगे बढ़ने में सहयोग दिया। इन सबके इतर किशोर बिरजू को अपनी प्यारी अम्मा की स्नेहमयी छाया में संगीत की बारीकियां सीखने को मिला। उन्होंने अपनी अम्मा से ‘जाने दे मैका‘, ‘सुनो सजनवा‘, ‘मेरी सुनो नाथ‘, ‘छोड़ो-छोड़ो बिहारी‘, ‘जागे हो कहीं रैन‘, ‘झूलत राधे नवल किशोर‘, ‘कैसे खेलूं मैं पिया घर ब्याही‘ जैसी अपने पूर्वजों की बंदिशों को सीखा और इन्हें नृत्य में पिरोया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी पंडित बिरजू महाराज एक महान कथक नर्Ÿाक और कोरियोग्राफर हैं। बल्कि, वह उतने ही महान गायक, काव्य रचनाकार, तबला वादक और नाल वादक भी हैं।
उन्होंने सन्1998 में अपने नृत्य विद्यालय ‘कलाश्रम‘ की स्थापना किया। उस समय उन्होंने कहा था कि मैं चाहता हूं कि कथक नर्Ÿाकों की दीपावली सारे देश में जगमगा उठे, हर जगह कथक के दीप झिलमिलाते रहंे। पंडित बिरजू महाराज के नृत्य की यह जगमगाहट उनके चाचाजी लच्छू महाराज जी की तरह सिनेमा जगत तक पहुंच चुकी है। पंडित लच्छू महाराज ने ‘नरसी मेहता‘, ‘भरत मिलाप‘, ‘राम राज‘, ‘एक ही रास्ता‘, ‘महल‘ फिल्मों में नृत्य निर्देशन किया। उन्हें फिल्म ‘मुगल-ए-आजम‘ में ‘मोहे पनघट पे नंद लाल छेड़ गयो रे‘ गीत पर अभिनेत्री मधुबाला द्वारा भाव प्रदर्शन को उस समय के श्रेष्ठ नृत्य में गिना गया। उसी विरासत को पंडित बिरजू महाराज ने आगे बढ़ाया है। उन्होंने सन्1977 में सत्यजीत रे की शतरंज के खिलाड़ी में पहली बार कोरियोग्राफी किया। उस फिल्म में बिंदादीन महाराज की ठुमरी ‘कान्हा मैं तोसे हारी‘ पर कथक नृत्य की रचना की थी। उन्होंने ‘दिल तो पागल है‘, ‘गदर-एक प्रेम कहानी‘ के गीत ‘आन मिलो सजना‘, देवदास के ‘काहे छेड़े मोहे‘, विश्वरूपम और डेढ़ इश्किया में कथक के रंग को पेश किया। कमल हासन के फिल्म विश्वरूपम में कोरियोग्राफी के लिए पंडित बिरजू महाराज को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया।
पंडित बिरजू महाराज को 28वर्ष की उम्र में संगीत नाटक अकादमी सम्मान मिला। उन्हें पद्मविभूषण, कालीदास सम्मान, लतामंगेशकर पुरस्कार, नृत्य चूड़ामणि, आंध्ररत्न, नृत्य विलास, राजीव गांधी शांति पुरस्कार आदि से सम्मानित किया जा चुका है। उन्हें बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और खैरागढ़ विश्वविद्यालय की ओर से मानद डाॅक्टरेट की उपाधि प्रदान की गई है।

Wednesday, July 5, 2017

कला का सर्वोच्च ध्येय सौंदर्य- भरतनाट्यम नृत्यांगना सरोजा वैद्यनाथन

           

          कला का सर्वोच्च ध्येय सौंदर्य- भरतनाट्यम नृत्यांगना                            सरोजा वैद्यनाथन



वरिष्ठ भरतनाट्यम नृत्यंागना सरोजा वैद्यनाथन इस नृत्य की पर्याय के रूप में पहचानी जाती हैं।  उन्होंने राजधानी दिल्ली में कुछ दशक पहले गणेश नाट्यालय की स्थापना की थी। उनके इस डंास स्कूल से सिर्फ भारत की ,बल्कि विदेशों की लड़कियां नृत्य सीखने आती हैं। आज की तारीख में उनके नाट्यालय से करीब डेढ़ सौ शिष्याओं को अरंगेत्रम की उपाधि  दिया जा चुका है।
शास्त्रीय नृत्य के बारे में विदुषी सरोजा वैद्यनाथन का कहना है कि देश के पूरब, पश्चिम, Ÿार और दक्षिण हिस्से में अलग-अलग नृत्य शैलियां प्रचलित हैं। सभी नृत्य विधा की अपनी नृत्य शैली और संगीत है। पर सबमें विभिन्नता होते हुए भी काफी समानता है। क्योंकि, इन सभी का एक शास्त्र एक-नाट्य शास्त्र है। ढ़ाई हजार साल पहले लिखे गए, इस ग्रंथ के हर विषय पुराने हैं फिर भी, उनमें नयापन है। नाट्य शास्त्र के Ÿाीस अध्यायों में सोलह कलाओं का विशद वर्णन है। यह भी महत्वपूर्ण है कि सभी नृत्य विधाएं मंदिरों से जुड़ी हुईं थीं। इसलिए, सभी को मंदिर शैली की नृत्य परंपराएं भी कहा जाता है।
पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी से सम्मानित नृत्यांगना सरोजा वैद्यनाथन को इस वर्ष मध्य प्रदेश सरकार की ओर से प्रतिष्ठित कालीदास सम्मान से सम्मानित किया जा रहा है। संस्कृति विभाग की ओर से यह समारोह भोपाल में उन्नीस मार्च को आयोजित है। नृत्यांगना सरोजा वैद्यनाथन अपनी बात को जारी रखते हुए, आगे कहती हैं कि मंदिरों में नृत्य करने वाली देवदासियां ज्यादातर शास्त्र में पारंगत, कला में शिक्षित और सुसंस्कृत हुआ करती थीं। वह मंदिर में देवताओं की सेवा नृत्य के जरिए करती थीं। देवदासियों के इस नृत्य को देवदासी अट्टम कहा जाता था। धीरे-धीरे इस भाव, राग और तालम पर आधारित इस नृत्य का नाम भरतनाट्यम पड़ा।
भरतनाट्यम नृत्यांगना सरोजा वैद्यनाथन नृत्य के बारे में बताते हुए, कहती हैं कि शास्त्रीय नृत्य में नवरसों का समागम होता है। श्रृंगार, हास्य, करूण, रौद्र, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स, अद्भुत एवं शांत रसों में भाव से रस की उत्पŸिा होती है। भरतनाट्म में वाचिकाभिनय की जगह संगीत की प्रधानता होती है। गायक या गायिका गीत के बोल को लय के अनुरूप बांधता है। उसी के अनुसार दुख या खुशी का समां संगत कलाकार वायलिन या बांसुरी की धुन पर या मृदंगम पर ताल पेश करते हैं। गीत, धुन और ताल की इस संगम पर हम अभिनय करते हैं। हम कथा-वस्तु के हिसाब से अभिनय करते हैं। मान लीजिए कि हमें किसी पागल नायक के भाव को पेश करना है तो उसकी मुख मुखमुद्रा के साथ उसकी हंसी का अंदाज अलग होगा। उसकी हंसी में हास्य रस के बजाय रौद्र या वीभत्स रस को प्रदर्शित करना होगा।
वह आगे बताती हैं कि उदाहरण के तौर पर जयदेव कीअष्टपदी‘-‘याहि माधव याहि केशवपर अभिनय का एक पीस करना चाहते हैं। ऐसे उस पेशकश में किसी अन्य शास्त्रीय नृत्य शैली से हमारी हस्तमुद्राओं, भंगिमाओं, स्टेप्स और वेशभूषा में फर्क हो सकता है। पर इसका केंद्रीय भाव राधा को खंडिता नायिका के रूप में चित्रित करना है, जो हर नृत्य शैली में लगभग एक सी होगी।
भरतनाट्यम नृत्यांगना सरोजा वैद्यनाथन कहती हैं कि मैं Ÿार भारत में रहती हूं, इसलिए दक्षिण के रचनाकारों के साथ-साथ मैंने Ÿार भारत के कवियोें को अपने नृत्य रचनाओं का आधार बनाया। मैंने सूरदास, तुलसीदास, ज्ञानेश्वर, ललेश्वरी की रचनाओं पर अनेक नृत्य रचनाएं की, जिन्हें लोगों ने पसंद किया। हालांकि, कला के प्रति हमारे समाज में काफी जागृति आई है। यह विजुअल आर्ट है, इसमें नई संभावनाओं को चित्रित करने की क्षमता है। मैंने आज के दौर में महिलाओं के सशक्तिकरण, बच्चों के शोषण और अन्य सामाजिक समस्याओं को भी नृत्य में शामिल करने की कोशिश की है।
नृत्यांगना और गुरू सरोजा वैद्यनाथन अपने कैरियर के शुरूआती दिनों की याद ताजा करते हुए, बताती हैं कि चालीस या पचास के दशक में नृत्य के प्रति लोगों की मानसिकता संकुचित थी। मेरे परिवार के कई सदस्य प्रशासनिक सेवाओं में थे। कला के मामले में उन सबका दृष्टिकोण संगीत सीखने तक सीमित था। लेकिन, शुरू से ही मेरा झुकाव संगीत की अपेक्षा नृत्य के प्रति अधिक रहा। इसलिए मैं गुरू कमला लक्ष्मण से नृत्य सीखने लगी। पंद्रह वर्ष की उम्र में अभिनय और बाॅडी मूवमेंट पर अच्छी पकड़ हो गई और उसी दौरान मैंने अपना पहला परफाॅर्मेंस दिया। हालांकि मेरे पिता को मेरा नृत्य करना पसंद नहीं था। लेकिन , मेरी प्रतिभा और नृत्य के प्रति लगन को देखकर उन्होंने मुझे कभी रोका नहीं।
वह अपने अतीत में झांकते हुए, कहती हैं कि मेरे पति मुझे हमेशा प्रोत्साहित किया करते थे। शुरूआत में उन्हीं की वजह से मैंने चेरिटेबल परफाॅर्मेंस देना शुरू किया। फिर भागलपुर में कथक स्कूल की नींव रखी। कुछ समय बाद पति का तबादला दिल्ली हो गया, जहां मैं प्रोफेशनल आर्टिस्ट बन गई।
नृत्य एक साधना है। इसे आत्म आनंद और आत्म संतोष के लिए करना बेहतर है। प्रदर्शन कलाओं से पैसे कमाने की चाह रखना उचित नहीं है। ऐसा नृत्यंागना सरोजा वैद्यनाथन मानती हैं। वह कहती हैं कि आज कल के युवाओं में जल्दीबाजी नजर आती है। वह जल्दी से जल्दी नाम, यश और पैसा कमाना चाहते हैं, जो इतना आसान नहीं होता है। मेरे पास एक-दो महीने नृत्य सीखने के बाद ही पेरेंट्स पूछने लगते हैं कि अरंगेत्रम कब होगा? मैं ऐसे पेरेंट्स से कहती हूं कि कम-से-कम आपको पंाच-छह साल तक इंतजार करना होगा। यह तो तपस्या का मार्ग है। कला का संसार तो अथाह सागर है। इसे लंबे समय तक रियाज से तन-मन में बसाया जाता है। जब इसकी खुशबू आर्टिस्ट के शरीर में समा जाता है, तब वह अपने आस-पास को सुवासित करता है, जिससे परिवार ही नहीं पूरा समाज लाभान्वित होता है।
आज बस इतना ही






                               
                               


Monday, July 3, 2017

जानीमानी नृत्यंागना सोनल मानसिंह

शशिप्रभा तिवारी

   नृत्य के विशाल पटल पर वरिष्ठ नृत्यंागना और नृत्य गुरू सोनल मानसिंह ने पंाच दशक पूरे किए हैं। पद्मभूषण से सम्मानित नृत्यंागना सोनल मानसिंह ने भरतनाट्यम और ओडिशी दोनों ही नृत्य को सीखा है। वह मानती हैं कि शास्त्रीय नृत्य शैलियां मुख्यतः एकल नृत्य शैलियां हैं, पर इनदिनों बैले या नृत्य-नाटिकाओं का फैशन चल पड़ा है। वह कहती हैं कि एक अजीबोगरीब परिपाटी अब चल पड़ी है। अंतरराष्ट्रीय समारोहों में समूह नृत्य के लिए बुलाया जाता है। उनके यहां सोलो नहीं चलता। तो अब सिर्फ नृŸा ही नृŸा हो रहा है। नृत्य की आत्मा न जाने कहां भटक गई है। अभिनय कहां है किसी को मालूम नहीं है।
नृत्य के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाली नृत्यांगना सोनल मानसिंह के लिए जीवन ही नृत्य है, नृत्य ही जीवन है। वह कहती हैं कि जहां हम खड़े हो जाते हैं वहीं मंदिर बन जाता है। मैं देवदासी हंू। मैं साधना के उस पथ पर अग्रसर हंू, जहां नृत्य के अलावा मुझे कुछ सूझता ही नहीं। नृत्य की परिभाषा लाखों हैे, क्यांेकि इसके आयाम लाखों हैं। मेरे खातिर जीवन ही नृत्य है, नृत्य ही जीवन हैै। नींद में सांस चल रही है, वह भी लयात्मक नृत्य है। जहां गति है, वहां नृत्य है। हमारे पूर्वजों ने इसे उŸाम स्थान दिया है। हमारे जीवन से नृत्य इस कदर जुड़ा है कि जीवन का शिव तत्व ही नटराज है। सबसे मोहक रूप, जिसका अजन्म रूप है। उसकी जटाएं हिमालय की सघन वन की प्रतीक हैं। कल्पना कितनी विराट है कि यदि वो जंगल नहीं होते तो कैसा उधम मचता? फिर गंगा यानी ‘गम गच्छति इति गंगा‘। जो बहता है, वह सब कुछ गंगा है। इधर गंगा का मार्ग अवरूद्ध हो रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि गंगा का उद्गम, जो गोमुख ग्लेशियर है, वह हर वर्ष पीछे जा रहा है। अगर इसे संकेत मानकर देंखें, तो कहना पड़ेगा कि इसी गंगा की तरह, हमारी संस्कृति, कलाएं, ज्ञान के सारे संसाधन प्रतिवर्ष पीछे जा रहे हैं। शिव की इन जटाजूटों को बचाना होगा। वरना संस्कृति ही नहीं हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। नटराज के बाद, हमारे कृष्ण का विशाल स्वरूप हमारे सामने आता है, जिन्हें हम नटनागर कहते हैं। उनको हम नृत्य में त्रिभंग भंगिमा में दिखाया जाता। देवी तो शक्ति हैं, वह नटरानी हैं। इतना ही नहीं, देवी-देवताओं की नृत्य-संगीत से जोड़ा गया है। सरस्वती के हाथ में वीणा, शिव के हाथ में डमरू, कृष्ण बंासुरी बजाते हैं, तो ब्रह्मा के हाथ में खड़ताल है। यानी हमारे यहां नृत्य या कला जीवन का सार है। इसलिए जीवन में बेतालापन या बेसुरापन नहीं होना चाहिए। दरअसल, हमारी संस्कृति में ‘कला-विद्या-अध्यात्म‘ अलग-अलग नहीं हैं। यह पश्चिम में है। हमारी परम्परा में सब कुछ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं, एक हथेली की पांच अंगुलियों की तरह। ये जीवन में उदाŸाता के प्रतीक हैं।
नृत्य के बारे में ही वह आगे कहती हैं कि जहां हम नृत्य करने खड़े होते हैं, वहीं मंदिर बन जाता है। मैं देवदासी हंू। मुझे लगता है कि आजकल हम शब्दों का इस्तेमाल तो करते हैं, पर उसके सही अर्थ या विशेष अर्थ से वाकिफ नहीं होते। ‘देवदासी‘ का बीजाक्षर-‘दिव्‘ है। इसका तात्पर्य है- दिव्यता, देवता, दिवस, देव या डिवाइन है। इन सभी शब्दों में ‘तेज‘ यानी तेजोमय है। उनमें आलोक या दिव्यता है। दिव्यता का ठोस रूप आम लोगों को समझ आता है। अब देखिए, हमारी आदिवासी संस्कृति में ‘देव‘ का अन्यतम स्थान है। आदि संस्कृति में पत्थर, पेड़-पौधे, नदी, पहाड़ सब देव स्वरूप हैं। इस तरह मैंने देवदासी के विराट रूप को समझा है। हमें अपनी संर्कीणता को छोड़कर अपनी सोच को विस्तार देना है। ‘नारी‘ दिव्यता का प्रतिरूप स्वयं है। वह दिव्यता को अपने कोख से जन्म देती है। इस संसार में देवता को भी अवतार रूप में जन्म लेने के लिए नारी की कोख या दिव्यता का सहारा लेना पड़ता है। तभी तो उन्हें यशोदा या कौशल्या का सहारा लेना पड़ता है। इस दिव्यता की बात अपनी जगह है, पर समाज की सच्चाई और ही है। हाल ही, मैं केरल की एक महिला से मिली जो गैंग रेप की शिकार हुई थी। उसे सोचती हूं तो मन क्षोभ से भर जाता है। उसने मुझे एक मुलाकात के दौरान बताया कि अब तक उसने चार हजार लड़कियों को रेप का शिकार होने से बचाया है। वह अपनी कोशिश जारी रखे हुए है। मैं भी अपने नृत्य के जरिए समाज में जागरूकता पैदा करना चाहती हूं।
नृत्यंागना सोनल मानसिंह कहती हैं कि आज की तारीख में हम अपनी कला के साधना पथ पर निरंतर चलते जा रहे हैं। हमारे लिए नृत्य का अर्थ सृष्टि का कलात्मक आकलन है, जहां देवता और मनुष्य, देह और प्रतिमा, शब्द और संगीत का भेद मिट जाता है। नृत्यरत शरीर इस लिहाज से एक मूर्तिमान दैवीय सŸाा में परिवर्तित हो जाती है, वह साधारण से उठकर असाधारण रचती है। भरत मुनी के ‘नाट्यशास्त्र‘ जिसे पंचम् वेद माना गया है। उसमें कहीं भी ‘मंदिर‘ का जिक्र नहीं आता है। ‘सभा‘ यानी गुणीजन का समाज या हवेली संगीत में समाज शब्द आता है। इसलिए मेरा मानना है कि उम्र के इस पड़ाव पर नृत्य मेरे लिए धूप, दीप, चंदन, फूल चढ़ाकर देवता के साकार रूप को प्रसन्न करना मात्र नहीं है। पहले कभी कृष्ण, गणपति, विष्णु मेरे अराध्य देव रहे। पर अब मन भगवान शिव में रमने लगा है। इनके अलावा, देवी तो सर्वोपरि हैं ही। यह अध्यात्म समय के साथ परवान चढ़ता है। यह मानस पूजा है, जो निरंतर श्वांस के साथ चलती रहती है। मेरे लिए यह पूजा एक ऐसा विंदु है, जहां मेरी सारी ऊर्जा संचित होती है। उस समय मेरे मन किसी देवता का नाम भी हो सकता है या किसी व्यक्ति सभी में वो चेतना है, क्योंकि सब में उस दिव्य शक्ति का वास है। अब मेरा यह नृत्य सिर्फ आनंद की प्राप्ति और आनंद को लोगांे के साथ बंाटना है। इस वक्त मुझे अपनी वर्ष-2006 की कैलाश मानसरोवर की यात्रा याद आ रही है। विशाल कैलाश पर्वत के पृष्ठभूमि में बने मंच पर मैंने बौद्धों के पर्व-‘सागा दागा‘ के मौके पर नृत्य पेश किया। उस दिन बुद्ध पूर्णिमा था। वह दिन जिसमें बुद्ध का जन्म, उन्हें बोधिज्ञान और परिर्निवाण की प्राप्ति हुई थी। वह क्षण मेरे लिए हमेशा अविस्मरणीय रहेगा।
वह युवाओं कलाकारों को अपने संदेश में कहती हैं कि गुरू और ईश्वर के प्रति हमेशा आभारी होना चाहिए। एक कलाकार सहज रहे, दूसरों के प्रति सहृदय हो और जो कुछ मिला है, उसके प्रति कृतज्ञता बोध हो। तब वह पारंपरिक अर्थांे में सच्चा कलाकार है। भले ही वह व्यवहारिक स्तर पर कम सफल हो या कम चर्चित हो।