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Monday, December 2, 2013

मोहन
मैं बहुत दूर से
तुम्हारे बांसुरी की धुन सुनती हूँ
उस में अपना नाम सुनती हूँ

जानती हूँ!
तुम बहुत दूर हो
तुम्हारे विरह को जीती हूँ
उसमें तुम्हारा नाम जपती हूँ

सुनती हूँ !
धड़कने बहुत दूर से
अपने करीब तुम्हें तब ही पाती हूँ
उस उन्मेष में संपूर्ण होती हूँ

देखती हूँ !
फरकते होठ दूर से
बांसुरी की स्वर लहरी बन जाती हूँ
उस पल मैं कहाँ रह जाती हूँ ......

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