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Friday, August 30, 2013

पवस की शाम
रिमझिम फुहार
मैं खिलती हूँ
हरसिंगार बन
बाट देखती हूँ,तुम्हारी
मेरी खुशबू
 तुम्हारी देहरी तक जाती है
मैं रात भर
मिलन की आस में
महकती हूँ
फिर, उदास हो
झर जाती हूँ
तुम जानते हो
मैं फिर,
शाम ढलने का
 इंतजार करती हूँ
और, डालियों पर
कली बन मुस्कुराती हूँ
अपनी क्षणिकता पर
कितने वैभव में जीती हूँ
तुम्हारी आस में
की हर पल नया है
कल नहीं आये तो क्या ?
आज फिर
नई शाम है
मैं नई हूँ
और जीवन नया है
तुम आ कर
स्पर्श कर देखो
मैं झर जाउंगी
तुम पर भी

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