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Thursday, July 25, 2013


                    मैं जोड़ नहीं
                   घटाओ भी नहीं
                   गुणा बनना नहीं
                   विभाग क्यों बनूँ
                   मैं शून्य बन
                   अनंत में विलीन
                   होने को आतुर
                   किसके सानिध्य की
                  आकांक्षा में
                  मन तड़पता है
                 यह कोई नहीं जानता
                 एक अनहद
                 गूँजे चारों ओर
                  तुम भी सुनो
                  इसकी आवाज़
                  तुम्हें भी भर देगी
                  नाद से
                  फिर मौन की
                 मस्ती तुम्हे भी
                 भाया करेगी
                 
            

Wednesday, July 24, 2013

  कल एक सम्मान समारोह में कथक सम्राट पंडित बिरजू महाराज ने कहा

अच्छी, गहरी  और सुंदर बातों को सुनना अच्छा लगता है .

हर कोई सुनना भी चाहता है .

आज भी मैं शिष्य हूँ . गुरु बन जाऊँगा तो खोजने की , नया सीखना बंद हो जाएगा .

गुरु तो शम्भू महाराज थे , जब एक बार उनसे लाइट मैन ने पूछा कि आपके डांस के समय किस रंग की लाइट

दी जाए . इस सवाल के जवाब में गुरु जी ने कहा की सिर्फ सफ़ेद लाइट दीजिए , मैं नाचूँगा तो लोग मेरे आँखों

से भाव और नृत्य को देखेंगे .

Sunday, July 21, 2013


आज आषढ़ का अंतिम दिन
असमान में
तुम्हारे चेहरे-चाँद झिलमिला रहा है

मेरा मन इस चाँदनी रात में
यमुना के किनारे
तुमसे मिलने आ गया है

रिमझिम बूंदों की
चादर में
तुमसे मिल सराबोर हो रहा है


कितने जज्बात बातों में
सिमटने को
तुमसे  व्याकुल हो गएँ हैं


 







 

Saturday, July 20, 2013

parda-parda hota hai


करीब दो-एक साल पहले राजधानी दिल्ली में विदुषी गिरिजा जी आई हुईं थी। मैं यूँ ही बैठी उनकी बातें सुन रही थी। उनकी आवाज़ जितनी सुरीली है बातें और भी सुरीली हैं।  उनके वह बातचीत का बनारसी अंदाज और भी लुभाता है। उन्होंने संस्कारों के बारे में कहा कि हमारे संस्कार हमारे जड़ हैं। इन्हें सींचना जरुरी है। यदि जड़ मजबूत होगी तभी पेड़ सुफल देने वाला होगा। आपको मालूम है कि हमारे नन्हें-नन्हें बच्चे हमारी नई पौध हैं .इनको अपनी संस्कृति से संस्कारवान बनाना बहुत जरुरी है।
        बात आगे बढती गई तो बात आज के पहनावे खास तौर लड़कियों के पर आई .वह हंसती हुई बोली अब यह विषय तो बहुत गंभीर है . आज ऐसे लगता है कि बाज़ार ही सब कुछ तय करने लगा है , वो जो बाज़ार में आया सब बिना सोचे-विचारे खरीद-पहन रहें हैं। इसलिए, लोगों को किसी की तरफ देखने का भी वो लालसा नहीं रही जो पहले होती थी। अब पहले दुल्हन आती थी , एक घूँघट यानि नज़र का पर्दा होता था। डोली में आती थी, उसके पैर तक देख कर रंग का अंदाज लगाया जाता था . घर-बाहर  के लोगों में दिलचस्पी और कौतुहल होता था फलां की बहु कैसी है . अब तो शादी से पहले ही वरमाला के समय ही आप उसे देख लेते हैं। फिर मज़ा कहाँ रह जाता है . ऐसे ही जब इतने खुले रहने लगेंगे तो पश्चिम या अन्य देश जिस वेश-भूषा से आपको जानते हैं कैसे जानेंगे या आप उनको अपना कौन-सा आदर्श पेश कर पाएंगे।
     खैर! जैसे सब बातें आई-गई हो जाती हैं , मेरे ध्यान से भी उतर गया . लेकिन कुछ बातें मन में गहरी बैठ जाती हैं। हमें अपने गाँव की गरमी छुट्टियों में जाना याद आया। छुटपन में हर साल हमें गाँव में डेढ़-दो महीने बिताने का समय मिलता था . वहां चचेरे-फुफेरे  भाई-बहनों की टोली के साथ खूब मस्ती होती। कभी नदी में नहाने , कभी खेत से तरबूज-खरबूज लेने , कभी शहतूत तोड़ने , कभी बेल-आम तोड़ने की योजना बनती . किसी को पता चलता की पड़ोस की काकी के यहाँ नई बहु आई है तो उसे बिना घूँघट के और अच्छी तरह देखने की बाजी लग जाती. हम दही मांगने के बहाने या किसी को ढूढने के बहाने उनके घर आते-जाते, और उस नव-वधू  को सारे दिन परेशान किये रहते। लेकिन, वह भी बहुत फुर्तीली और सजग रहती। वह हमारे आहट को सुन लेती। वह कभी कभी पूरे चेहरे को पल्लू से ढँक लेती तो कभी एक कोने को दांतों तले दबा लेती .

              आज जब उन अंदाजों को कत्थक सम्राट बिरजू महाराज के घूँघट की गतों में देखती हूँ , तो लाज-शर्म-हया के वो नाजुक पल याद आ जाती हैं . आधुनिक समाज उस आनंद को शायद दकियानूसी  या कोई और नाम भले दे . पर घूँघट के पट का वो आनंद तो उन गीतों में महसूस किया जा सकता है कि राधा न बोले-न बोले रे , घूँघट के पट न खोले रे ......

Wednesday, July 17, 2013

unkaha

मेरा मन
तुम्हारे मन के
 झील के पानी की तरह थिर है

तेज हवा बहती है
बहुत कुछ उड़ाती है
आँखों में धूल भर जाता है

उसकी किरकिरी
आँखों से आँसुओं को
यूँ ढुलकाती है कि मन हल्का हो जाए

पर,क्या ऐसे
आँसुओं का कोई मोल है
नम आँखों की कहानी अनकहे बयां होती है

जब साथ-साथ
हमारे नयन और
तुम्हारे नयनों में नमी होती है

 तब मन
 तुम्हारे प्यार भरे झील में
 यूँ ही नहा कर खुश हो जाता है
कितने अकेले हैं
हम भी
 नहीं, तुम भी


शायद, साथ रहने का
एक भ्रम-सा
जिन्दगी भर पालते हैं


सब अपने मन की
आज़ादी
 तलाश रहें हैं

कभी तुम भी
साथ रह कर
चुप रहने का इशारा करते हो

कभी मैं खुद
चुप रहना चाहती हूँ
तब तुम चुप रहना बेहतर मानते हो

यह चुप्पी
कभी अच्छी लगाती है
कभी चुभती है,बबूल की काँटों-सी

Tuesday, July 16, 2013



 बचपन में जब गाँव में हम भाई-बहन जब एक-दूसरे को हंसाने के लिए खेलते थे और जबरदस्ती गुदगुदी लगा कर नाराज छोटों या बड़ों को हँसाने और मनाने की कोशिश करते थे। पता नहीं आज कल बच्चे इसे खेलते हैं या नहीं। क्योंकि वहां भी अब टीवी सीरियल देखने का ही जोर है।

अट्टा-पट्टा
नौ-दस गट्टा
खरवा-खात
पनिया पीयत
कहाँ गइल
कहाँ गइल

Thursday, July 11, 2013



मैं चली जा रही थी
उस ओर जहाँ

कोयल कूकती थी
 मोर मेघ निहार रहा था

मेरे कानों में
तुम्हारी आवाज़ आई

मैं उधर ही चल दी
बहुत जतन से संजोया सपना

कई संकल्पों की दुनिया
ख्वाहिशों के समंदर में तिरती है मन की नाव

खुद से संवारना
जब यह  नाव तुम्हारे गाँव के किनारे रुके

तब फिर से मन की
नई बस्ती बसाएँगे फूलों की खुशबू से तर

Monday, July 1, 2013

kavita



 आज मन 

जमुना किनारे है श्याम
आज मन
तुम्हारे सहारे है श्याम


आज मन
मधुबन में नाचे है श्याम
आज मन
 तुम्हारे अंग लगे है श्याम


आज मन
बंसी की धुन गूंजे है श्याम
आज मन
तुम्हारे रंग  लिए है श्याम


आज मन
हिंडोले में झूले है श्याम
आज मन
तुम्हारे संग लिए है श्याम