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Saturday, June 29, 2013


एक गीत कहूँ या कथा वह जो बचपन में अपनी दादी जी से सुना करती थी.


>बढई-बढई  तू खूंटा चीर खूंटवा में दाल बा का खाई का पिउं का ले परदेस जाई 

>राजा-राजा तू बढई डार बढई न खूंटा चीरे खूंटवा में दाल बा का खाई का पी का ले परदेस जाई


>रानी-रानी तू  राजा समझाऊ राजा ना बढ़ई डारे बढई न खूंटा चीरे खूंटवा में दाल बा का खाई का पी का ले    परदेस जाई 

>सांप सांप तू रानी डस रानी न राजा समझावे राजा ना बढ़ई डारे बढ़ई ना खूंटा चीरे खूंटवा में डाल बा का खाई का पी का ले परदेस जाई

>लाठी-लाठी  सांप मार सांप न रानी डसे रानी न राजा समझावे राजा ना बढ़ई डारे बढ़ई ना खूंटा चीरे खूंटवा में दाल बा का खाई का पी का ले परदेस जाई

>आग-आग तू लाठी जारो लाठी न सांप मारे सांप ना रानी डसे रानी ना राजा समझावे राजा ना बढई डारे बढ़ई ना खूंटा चीरे खूंटवा में दाल बा का खाई का पी का ले परदेस जाई

>सागर-सागर तू आग बुझाव आग ना लाठी जारे लाठी न सांप मारे सांप ना रानी डसे रानी न राजा समझावे राजा  ना बढ़ई डारे बढ़ई ना खूंटा चीरे खूंटवा में दाल बा का खाई का पी का ले परदेस जाई

>सूरज-सूरज तू सागर सोख सागर न आग बुझावे आग ना लाठी जारे लाठी न सांप मारे सांप न रानी डसे रानी ना राजा समझावे राजा ना बढ़ई डारे बढ़ई ना खूंटा चीरे खूंटवा में दाल बा का खाई का पी का ले परदेस जाई

 >हमें बुझाओ-उझाओ मत कोई हम लाठी जारब लोई

>हमें जराओ-ओराओ मत कोई हम सांप मारब लोई

>हमें मर-ओरो मत कोई हम रानी डसब लोई

>हमें डस-ओस मत कोई हम राजा समझावब लोई

>हमें समझाओ-बुझाओ मत कोई हम बढ़ई डारब लोई 


मन का सुख तो
तुम्हारे मन के झील में ही मिला
कहाँ पता था
तुम्हें भी
जिन्दगी के ये रंग
इतनी हंसी और ख़ुशी देंगे


मेरे  मन के झील का एक टापू
हराभरा है
शायद तुमने ही कभी हरसिंगार का बीज
उसकी खुशबू
महकती है , मेरी शामों को


 सच, यह जिन्दगी हमें
कहाँ से कहाँ ले आई
हैरान होती हूँ
लेकिन, खुशियों के पलों की खवाहिश
हमें जोडती है ,घडी की सुई की तरह

तुम्हारे मन की गहराई
जिसकी थाह पाना मुमकिन नहीं होता
लगता है , ऐसे ही
मन का झील तो खामोश रहता है
पर उसका पानी पल-पल बहता रहता है, मेरी ओर