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Thursday, September 5, 2013

  बचपन के बगीचे में
  सखियाँ के संग
  आम  की डालियों का झुला
  निम्बू ,आम ,इमली  की
  कच्ची-पक्की मिठास
 
  घर से छिप-छिपा कर
  कुछ करने का संबल
  उन्होंने ही दिया
  जिनके न अब पतें हैं
  न कभी ख़त आतें हैं

  सिर्फ यादों की
  महीन डोर में
  अब वो रिश्ते जिन्दा हैं
  याद आता है, जब बुआ आती थी
   दादी से फलां-फलां का हाल पूछती थी
   मन नहीं मानता तो
   सहेलियों के घर उनकी अम्मा-बाबा से मिलती थीं

   हमारे तो कालोनी छुटी
   सबका साथ ही छुट गया
   जो जहाँ के थे लौट गए
    फिर, भी मन बात देखता है
    बचपन की सहेलियों का

    अब न गुट्टे हैं
    न पड़ोस का आँगन
    न दालान में झूलें
    नन्हीं चिड़िया के पाँव में
    एक ख़त बांध दी हूँ
    शायद वह पहुंचा दे.....
  
 
 

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