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Tuesday, May 26, 2020



                                           हमने जीवन का लक्ष्य उन्हीं से पाया
                                          -रीतेश मिश्र और रजनीश मिश्र
                                           बनारस घराने के शास्त्रीय गायक युगल






                                       

यह जीवन एक बहती हुई नदी की तरह है। यह जीवन एक गुनगुनाती हुई गीत की तरह है। यह जीवन एक गुजरते हुए रास्ते की तरह है। यही तो है जीवन की परिकल्पना। जिसे हम तब नहीं सोचते जब हमारा जन्म लेते हैं। यह अहसास धीरे-धीरे गहराता है, जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं। हमें भी अपने परिवार की गरिमा और विशालता का धीरे-धीरे ही पता चला। और दादाजी, पिताजी और चाचाजी के संगीत के सुरों के बीच हमलोग कब बड़े हो गए, इसका पता ही नहीं चला।
हमारे घर में हर वक्त संगीत की धारा प्रवाहित होती रही है। पिताजी और चाचाजी का बचपन और युवावस्था बनारस में बीता है। उन्होंने अपने दादा गुरू बड़े रामदासजी के सानिध्य में संगीत साधना की। साथ ही, हमारे दादाजी हनुमान प्रसाद और गोपाल प्रसाद जी से भी सीखा। पिताजी ओशो की बात को हमेशा कहते हैं कि संगीत दौलत नहीं है। यह कला है। यह प्रेम है। यह भक्ति है। यह प्रार्थना है। इसलिए इसकी जितनी साधना करेेंगें, यह उतनी आपको विस्तार देती रहेगी।
पिताजी और चाचाजी को क्रिकेट खेलने का शौक बचपन से था। हम दोनों भाई उनदिनों बनारस में थे। घर के पीछे के स्कूल ग्राउंड में हम दोस्तों के साथ सुबह-सुबह क्रिकेट खेलने चले जाते थे। उस सुबह पिताजी और चाचाजी बनारस पहुंचे। दादाजी से पता चला कि हमदोनों क्रिकेट खेल रहे हैं। वो दोनों भी वहीं आ गए और हमलोगों के साथ क्रिकेट खेलने लगे। हमें खेलते हुए, शाम हो गया। अंततः बाबाजी छड़ी लेकर, वहां पहुंच गए। अब तो सब घर चलो। इसके बाद, अगली सुबह फिर हमलोग चारों क्रिकेट खेलने पहुंच गए। धीरे-धीरे और भी दोस्त पहुंच गए। खेल दोपहर तक खत्म हुआ। फिर जीतने वाली टीम को पास के कचैड़ी वाली दुकान पर पिताजी लेकर गए। हमलोगों ने छककर कचैड़ी-जलेबी खाई। आज उस अहसास को याद करके लगता है कि वो हमें बताना चाहते थे कि जिंदगी को उत्सव और उमंग के साथ जीना जरूरी है।
हमें सŸार और अस्सी के दशक याद आते हैं। वह हमारे परिवार के संघर्ष का दौर था। हालांकि, तब हमलोग छोटे थे। बहुत समझदारी नहीं थी। लेकिन, थोड़े बड़े होने पर समझ आया कि पिताजी और चाचाजी ने हमें उस कठिन समय का पता ही नहीं चलने दिया। चाचाजी कहते हैं कि आप किसी भी महान शख्सीयत की जीवनी पढ़िए और प्रेरणा लिजीए। आपको उनकी जीवनी से प्रेरणा मिलेगी कि इस ऊंचाई तक वो रातों-रात नहीं पहुंचे। उन्होंने कड़ी मेहनत और लगातार कठिन रास्ते से गुजरें हैं। दरअसल, सोने को चमकने के लिए आग मंे तपना पड़ता है। इसलिए संगीत सीखने के लिए स्वर का आनंद लेने की चाह जरूरी है।
उनदिनों हमारे गुरूजन जर्मनी की यात्रा पर थे। पिताजी और चाचाजी के साथ हमलोग भी मंच पर थे। उन्होंने बहुत मन से दो-ढाई घंटे तक गाया। कार्यक्रम खत्म हो गया। लेकिन, एक भी ताली नहीं बजी। हम आश्चर्यचकित थे। तभी आॅरगेनाईजर ने आकर धन्यवाद दिया और कहा कि आप सोच रहे होगें कि ताली नहीं बजी। दरअसल, भारतीय संगीत से जो सांगीतिक समरसता का जो वातावरण यहां बना है, उसे श्रोता भंग नहीं करना चाहते थे। उसके बाद, होटल के कमरे में बातचीत में पिताजी बताया कि यही फर्क है एक म्यूजिशियन और मैजिशियन में। हमें संगीत का दो सुर ऐसे लगाना चाहिए कि हम सीधे सुनने वाले के दिल में उतर जाएं।
हमारे लिए प्रेरणा के स्त्रोत हमारे दोनों गुरू हैं। हमारे गुरूओं के अनुसार गायक या कलाकार को हर परिस्थिति में अपने संगीत या कला से आनंद प्राप्त करना जरूरी है। उनका कहना है कि आनंद में रहेगें तब आप पे्रम से बातचीत करेंगें। प्रेम पूर्वक व्यवहार करेंगें। इससे प्रेम का विस्तार होगा और आपके आस-पास सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह रहेगा। इससे आपको काम करने, आपको जीवन जीने में आनंद आएगा। और आनंद का संचार होगा तो सब कुछ अपने-आप सहज और सरल हो जाएगा। इसके लिए आपको अलग से कोई प्रयास नहीं करने की जरूरत होगी।
अक्सर, हमलोग पिताजी और चाचाजी को बातचीत करते सुनते हैं। उनके बीच के प्रेम और सौहार्द को देखकर आश्चर्य होता है। दोनों हमेशा आपस में प्रेम से बोलते हैं। कभी जोर से नहीं बोलते। कभी किसी से इष्र्या या द्वंद्व नहीं रखते। अपने आवेश को रोक कर रखते हैं। हमेशा विनम्र बने रहना। आज के समय में ऐसा व्यवहार अनूठा लगता है। वो लोग घर में ही नहीं बाहर भी लोगों से वैसे ही पे्रम से मिलते-जुलते हैं। हमलोगों की कोशिश रहती है कि हम भी उनकी तरह प्रेम भाव और संतुलित व्यवहार करना सीखें। हम अपने आनंद को कभी खोए नहीं, कुछ भी हो जाए।
उनकी रिकाॅर्डिंग्स की बंदिश ‘सखी एरी आली पिया बिन‘ हों या भजन ‘चलो मन वृंदावन की ओर‘ या ‘भैरव से भैरवी तक‘ हो हमलोग हमेशा ही सुनते रहते है। उनलोगों के दिए संस्कार का ही परिणाम है कि हमलोग शास्त्रीय संगीत को कुछ समझ पा रहे हैं। पिताजी और चाचाजी का मानना है कि किसी भी कलाकार को सुनो तो उसके संगीत की खूबसूरत चीजों को समझकर आत्मसात करने की कोशिश करो। वैसे हमें लगता है कि हर कलाकार का संगीत की गूढ़ता को समझ लेना बहुत बड़ी बात है। उनका कहना है कि संगीत सिर्फ तैयार तानों की जादूगरी नहीं है। बल्कि, अपनी अपनी कल्पना और सोच को अपने कंठ के माध्यम से अवतरित करना जरूरी है। तभी वह आपके श्रोता को बंाधता है, जैसे गंगा की लहरें मन को तरंगित कर देती हैं। संगीत के प्रति आपकी श्रद्धा, समर्पण और झुकाव होनी चाहिए। तभी आप सच्चे और अच्छे कलाकार बन पाते हैं। और आपका संगीत आपको मार्ग दिखाता है।
हमें याद आता है कि एक बार स्पीक मैके का कार्यक्रम था। पिताजी और चाचाजी दोनों उस समय दिल्ली से बाहर थे। सरदी का मौसम था। कोहरे के कारण फ्लाइट देर हो गई। कुछ देर बाद पता चला कि फ्लाइट कैंसिल हो गई। दोनों परेशान थे। फिर, कुछ समय उनका फोन आया कि हमदोनों जाकर प्रोग्राम पेश करें। हमदोनों एक बार आश्चर्यचकित थे कि इतने बड़े मंच पर जहां हमारे गुरूओं का कार्यक्रम है, वहां क्या श्रोता हमें स्वीकार करेगें? हम ईश्वर की प्रार्थना करते हुए, मंच पर गए। हम लोगों ने बनारस घराने की पारंपरिक बंदिशों को गाया। लोगों को हमारा संगीत पसंद आया। कार्यक्रम के बाद लोगों ने हमें प्यार से घेर लिया। कुछ लोग कह रहे थे-आप लोगों ने अपनी समृद्ध विरासत को संभालने का प्रयास किया है। यह सराहनीय है.
अब तो पिताजी और चाचाजी दोनों काफी व्यस्त रहते हैं। कभी दिल्ली रहते हैं। कभी देहरादून के गुरूकुल ‘विराम‘ में रहते हैं। इसके अलावा, देश-विदेश में कार्यक्रम के सिलसिले में आना-जाना होता रहता है। जब दिल्ली में वो लोग रहते हैं, तब घर में बहुत रौनक रहती है। सुबह जब वो लोग टहलने जाते हैं, तब हमलोग रियाज कर रहे होते हैं। फिर, जब पिताजी लोग लौटकर आते हैं, तब संगीत की तानों या अन्य तकनीक के बारे में थोड़ी चर्चा हो जाती है। इसके बाद, कभी कोई अतिथि या कोई शिष्य या कोई मिलने आ गए तो वहीं सब साथ मिलकर बैठते हैं।
एक कार्यक्रम में उनके साथ गायन पेश करना था। हमलोग उनसे सीखते रहते हैं। मार्गदर्शन लेने के क्रम में हम हर सूक्ष्म बारीकियों को समझने की कोशिश करते हैं। लेकिन, उनके साथ मंच साझा करना हमलोगों के लिए बहुत बड़ी बात थी। मंच पर उनके गाने के बाद, उनके इशारे का इंतजार करना। इसके बाद, अपनी समझ से सुरों को लगाना, बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होता है। चाचाजी कहते हैं कि मैं तो आज भी भाई से मंच पर भी सीखने की कोशिश करता हूं। वह जिन-जिन तानों का प्रयोग करते हैं, उनको समझने और अपने गले में उतारने का प्रयास करता हूं।
वो दोनों ही मानते हैं कि संगीत में प्रतिस्पद्र्धा का भाव नहीं होना चाहिए। हमारी किसी से कोई प्रतियोगिता नहीं है। हमारे संयुक्त परिवार के मुखिया पिताजी हैं। उसके बाद चाचाजी हैं। चाचाजी, पिताजी की हर बात बिना किसी प्रश्न के मानते हैं। फिर हम सब लोग को मिलजुल कर रहने की आदत है। आपस में हर चीज बांटकर लेना। घर में हर बात की चर्चा करना। हमें याद आता है कि जब हम दोनों छोटे थे, तब हर गरमी की छुट्टी में पिताजी बनारस दादाजी के पास भेज देते थे। उनदिनों हमलोग दादाजी से संगीत सीखते और उनके साथ रहते, खाते-पीते और सोते। सुबह दादाजी इतने प्यार से जगाते-देखो, भैरव जा रहा है, ललित जा रहा है। यानि देर हो रही है, जाग जाओ। वह यादगार पल थे।
दोनों में गजब की तालमेल है। हम देखते हैं कि जब फुरसत होती है तो पिताजी ओशो की किताबें पढ़ना पसंद करते हैं और चाचाजी क्रिकेट या फुटबाॅल का मैच देखना पसंद करते हैं। दोनांे भाइयों को जंगलों में घूमना बहुत पसंद है। पहले अक्सर वो लोग छुट्टी में जिम काॅर्बेट नेशनल पार्क में जाकर समय बीताते थे। हमलोगों को भी उनके साथ मजे करना अच्छा लगता था। पिताजी कहते हैं, हमेशा जद्दोजहद में मत रहो, जब भी फुरसत मिले, जिंदगी को जीना चाहिए। 

Thursday, May 21, 2020

shashiprabha: 'जीवन क...

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'जीवन क...
: 'जीवन की सुगंध है-ओडिशी'-- मधुमीता राउत, ओडिशी नृत्यांगना उड़ीसा औ...




'जीवन की सुगंध है-ओडिशी'-- मधुमीता राउत, ओडिशी नृत्यांगना

उड़ीसा और बंगाल बीते दिनों अम्फान तूफान से बुरी तरह प्रभावित हुए। तेज हवा और बारिश ने जन-जीवन को बुरी तरह प्रभावित किया। लेकिन, इन सबसे इतर जो प्रभावित होते हुए भी अप्रभावित रहती है, वह है कलाकार की कला। हर वर्ष उड़ीसा में तूफानों से तबाही मचती है। पर लोग भगवान जगन्नाथ और संस्कृति की सेवा में फिर से उसी लगन से जुट जाते हैं। इस जिजीविषा को मैंने खुद उड़ीसा के लोगों में महसूस किया है। आज हम इसी प्रदेश की नृत्य शैली की कलाकार व गुरू मधुमीता राउत से रूबरू हो रहे हैं-शशिप्रभा तिवारी
ओडिशी नृत्य क्या है?
मधुमीता राउत- यह सच है कि अब ओडिशी नृत्य मंदिर में नहीं होता है। इसका उदय तो मंदिरों से ही हुआ है। मंदिर तो हमारे मन के अंदर है। हम जिस मंच पर नृत्य करते हैं, वही मंदिर बन जाता है। मंदिर हमारे साथ होता है। मैं सालों से नृत्य कर रही हूं, जो आमतौर पर भगवान जगन्नाथ और अन्य आख्यान से जुड़ी होती हैं। इन्हीं विषयों पर नृत्य पेश करती हूं। मुझे याद आता है कि दस साल की थी। मेरे पिताजी व गुरू मायाधर राउतजी मुझे दशावतार सीखाना चाहते थे। उस समय मैंने सीखने से मना कर दिया था। जब थोड़ी समझदारी बढ़ी, तब मैंने सीखा। दशावतार और विष्णु के विभिन्न अवतारों की कथा और उसकी महत्ता को समझने में करीब दस वर्ष लग गए।
यादगार परफाॅर्मेंस के बारे में बताएं।
मधुमीता राउत- याद आता है-हाॅलैंड में देवी स्तुति किया था। वह दुर्गा सप्तशती और ललितासहस्रनाम के कुछ अंशों पर आधारित था। मुझे पता नहीं, मैं नृत्य कर रही हूं, मेरे आंसू बह रहे हैं। मुझे कुछ पता नहीं! मैं भावना में बहती हुई, नृत्य कर रही हूं।
पहली बार बेल्जीयम गई थी। वहां मैंने नोटिस किया कि हर प्रोग्राम के बाद मुझे एक दिव्यचक्षु वृद्ध महिला मिलती। एक शाम मैंने उनसे पूछा कि आप हमारा नृत्य को कैसा महसूस करती हैं? उनका जवाब था-आपके घुंघरू की आवाज, हमें एक अलग दुनिया में ले जाती है। उस अनुभूति को मैं शब्दों में नहीं बता सकती।
आपकी अब तक की कला यात्रा कैसी रही?
मधुमीता राउत- जब किशोरावस्था में थी। आमतौर पर अन्य बच्चों की तरह से मैं कभी जर्नलिस्ट, पेंटर तो कभी नृत्यांगना बनना चाहती थी। थोड़ी समझदार हुई तो बाबा ने समझाया कि इसे धर्म-कर्म मानकर नृत्य करना चाहती हो तो करो। क्योंकि कला की साधना में कठिनाइयां हैं। नाम, पैसा, शोहरत मिले यह जरूरी नहीं है। यह देव उपासना का एक मार्ग है।
जीवन में क्या खोया-क्या पाया है?
मधुमीता राउत- मैं किसी रईस या किसी बड़े बिजनेसमैन की बेटी नहीं हूं। मैं गुरू की बेटी हूं। मेरी जिम्मेदारी ज्यादा है और संघर्ष भी ज्यादा है। सत्रह-अठारह साल की रही होउंगी, तब किसी ने कहा था कि तुम्हें प्रोग्राम नहीं मिल सकता क्योंकि तुम्हारे पास पैसा नहीं है। उस समय मैं बहुत रोई थी। जब गुरूजी ने उदास देखा, तब उन्होंने समझाया। कला के प्रति समर्पित होना जरूरी है। केवल प्रोग्राम से बात नहीं बनती। कला तो निरंतर यात्रा है। इसे तो हम कलाकार अपनी साधना से समृद्ध बनाते हैं।
गुरू से क्या सीखना अब तक शेष है?
मधुमीता राउत-गुरू जी के पास बैठती हू। वह समझाते हैं कि अपने भीतर ताकत पैदा करो। वह कहते हैं कि दुनिया के पास क्या है? इसकी फिक्र किए बिना, शांति और सुकून से जिंदगी को जीयो। सकारात्मक सोच वाले लोगों के साथ बातचीत करो और रहो। सकारात्मक सोच वाले मित्र और सहयोगी ही आपको संभलकर जिंदगी जीने में मदद करते हैं।
इस वर्ष 16जुलाई को गुरू जी नब्बे वर्ष के हो जाएंगें। किसी भी कोरियोग्राफी को करने से पहले उनसे सलाह-मशविरा करती हूं। पिछले दिनों महिषासुरमर्दिनी की कोरियोग्राफी की। इसे देखकर, पिताजी ने कहा कि मेरी नृत्य कला को अब तुमने संभाल लिया है। यह मेरे लिए उनका इतना कहना बहुत मायने रखता है।
गुरू जी की विनम्रता, समर्पण और दिव्यता अद्भुत है। वायलिन वादक जोगीराज पात्रा कहते थे कि गुरूजी की सादगी और सरलता निर्मल गंगा के जल की तरह प्यार भरा है। गुरूजी का मानना है कि कोई आपसे प्यार से बोले और छोटी-सी खुशी दे दे। उसे ही बहुमूल्य उपहार मानना चाहिए।

Thursday, May 14, 2020

नृत्य ने मुझे मोहित किया-स्नेहा चक्रधर



नृत्य ने मुझे मोहित किया-स्नेहा चक्रधर

विख्यात कवि और लेखक डाॅअशोक चक्रधर जी और डाॅ बागेश्वरी जी की सुपुत्री हैं। कला और साहित्य के परिवेश में पली-बढ़ी स्नेहा चक्रधर बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न भरतनाट्यम नृत्यांगना है। उन्होंने गुरू गीता चंद्रन के सानिध्य में भरतनाट्यम सीखा है और अभी भी सीख रही हैं। उन्होंने जानकी देवी काॅलेज में बतौर लेक्चरर करियर शुरू किया। पर नृत्य के खातिर उन्होंने इसे छोड़ दिया। आज रूबरू में स्नेहा चक्रधर से बातचीत के अंश प्रस्तुत हैं-शशिप्रभा तिवारी
शास्त्रीय नृत्य सीखना और प्रस्तुत करना दोनों चुनौतिपूर्ण है। क्या आप ऐसा मानती हैं?
स्नेहा चक्रधर- वास्तव में, नृत्य कठिन विधा है। इसमें फीजिकल वर्क के अलावा, बुद्धिजीवीता और शोध जरूरी है। कोरियोग्राफी के लिए साहित्य का ज्ञान भी जरूरी है। पूरी मेहनत और लगन से नृत्य करना और हर परफाॅर्मेंस के बाद खुद को आंकना। नौकर, नृत्य और अन्य चीजें करते हुए, एक समय के बाद मुझे लगने लगा कि मैं बंट-सी गई हूं। न तो मैं पूरी तरह नृत्य को अपना समय दे पा रही हूं और न ही अध्यापन को। लेकिन, नृत्य करना काफी खर्चीला है। आपको काॅस्ट्यूम, मेक-अप, ज्वेलरी, संगत कलाकारों सब पर अच्छे खासे पैसे खर्च करने पड़ते हैं। कई बार कार्यक्रम से मिलने वाला पैसा भी पर्याप्त नहीं होता है।
आपको आपके पेरेंट्स का सहयोग किस तरह मिला?
स्नेहा चक्रधर- मुझे हर पल लगता है कि मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं। मुझे बचपन से अच्छा साहित्य और संगीत पढ़ने और सुनने को मिला। नृत्य के प्रति रूचि बचपन से ही थी। मम्मी-पापा ने कभी रोका-टोका नहीं। वो मेरी जरूरतों को समझते हैं। सेलेब्रिटी की संतान होने से कभी-कभी आत्मविश्वास डगमगाता भी था कि पता नहीं कुछ कर पाऊंगी या नहीं। लेकिन, जब आप अपनी राह खुद चुनते हो और मेहनत का दामन थाम कर आगे बढ़ते ही है। हालांकि, आज भी कोई नई कोरियोग्राफी करती हूं, पापा और मम्मी दोनों से चर्चा करती हूं।


क्या आपके सपने साकार हो पाए हैं?
स्नेहा चक्रधर- दरअसल, मुझे जहां तक पहुंचना चाहिए था, वहां तक अभी नहीं पहुंच पाई हूं। शायद, मैंने खुद को कुछ ज्यादा फैला लिया। मैं पीएचडी कर रही थी। साथ ही, डांस सीख रही थी और काॅलेज में पढ़ा रही थी। इसके अलावा, पापा के फिल्म मेकिंग में हाथ बंटाती थी। उनके प्रोडक्शन को हैंडल करती थी। उनके साथ कवि सम्मेलनों में जाती और कैमरा संभालती। सिंगल माईंड होती तो शायद प्रोग्रेस ज्यादा हुई होती। पर इतनी सारी विधाओं में काम करने का अपना अलग मजा भी रहा। इसका मुझे कोई अफसोस नहीं है।
मैं गीता अक्का के साथ लगभग बीस सालों से उनके प्रोडक्शन से जुड़ी हुई हूं। ग्रुप कोरियोग्राफी की अपनी मांग है। आइडिया, कंसेप्ट, शोध, कोरियोग्राफी, परफाॅर्मेंस इन सब में समय लगता है। उसकी प्रैक्टिस के लिए आपकी उपस्थिति सभी की सुविधानुसार करनी पड़ती है। वैसे ही सोलो की अपनी डिमांड्स हैं। पर मुझे खुशी है कि मैंने ग्रुप हो या सोलो पूरी निष्ठा से काम किया है।

आप गुरू को अपने भीतर कैसे महसूस करती हैं ?
स्नेहा चक्रधर-गुरूजी के सामने नृत्य करने में आज भी डर लगता है। गुरूजी स्टेज पर नटुवंगम कर रही हों या आॅडियंस में बैठी हों, उनके सामने खुद को साबित करना, हर शिष्य के लिए चुनौती होती है। उनकी उम्मीदें मुझसे ज्यादा रही हैं। अक्सर वह बोलती भी हैं कि तुम काबिल हो और मेहनती हो। मैं उसकी भरपाई नहीं कर पाई हूं। वह हमसे बेहतर से बेहतरीन की अपेक्षा रखती हैं। मेरी कोशिश है कि आने वाले समय में मैं उनकी नजरों में खरी उतर पाऊं।

Thursday, May 7, 2020

shashiprabha: गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊं-डाॅ अजय कुमार, तबला वा...

shashiprabha: गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊं-डाॅ अजय कुमार, तबला वा...:                                     गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊं-डाॅ अजय कुमार, तबला वादक विश्व धरोहर शहर वाराणसी हर किसी को अपना बन...

गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊं-डाॅ अजय कुमार, तबला वादक






                                   गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊं-डाॅ अजय कुमार, तबला वादक


विश्व धरोहर शहर वाराणसी हर किसी को अपना बना लेता है। गंगा, वरूणा और असी नदी की धाराएं, अट्ठासी घाटें, अनगिनत मंदिरें, हर गली-मोहल्ले में गूंजता संगीत। काशी जहां-जीवन का स्पंदन और मृत्यु का क्रंदन सब संगीत के सुर निनाद बन जाते हैं, जहां-जीवन का अवसान भी नव जीवन का आवगाहन करता है। इसलिए, बनारस घराने के सुर-लय-ताल की मधुरता की मंगलमयता की पराकाष्ठा है। इसी की झलक तबले के तालों के जरिए कलाकार बखूबी बयान करते हैं। ऐसे ही तबलावादक हैं-डाॅ अजय कुमार। अजय कुमार को जूनियर फेलोशिप और यूनिसेफ का आईसीएच फेलोशिप मिल चुके हैं। उनकी दो किताबें-‘पखावज की उत्पत्ति, विकास एवं वादन शलियां‘ और ‘बनारस घराने के प्रवर्तक‘ प्रकाशित हो चुकी हैं। आईए, इस बार रू-ब-रू में उनके बारे में जानें!-शशिप्रभा तिवारी


तबला से पहला परिचय कब और कैसे हुआ?

डाॅ अजय कुमार-मेरे पिताजी को संगीत का शौक था। वह बहुत अच्छा भजन गाते थे। मेरे दादाजी मंदिर से जुड़े हुए थे। कुछ पारिवारिक माहौल था कि मुझे और मेरी बहनों को बचपन में संगीत की शिक्षा पिताजी देने लगे थे। हमें नियमित अभ्यास पिताजी ही करवाते थे। जब छोटा था, तब समझ नहीं आता था। सिर्फ, वह जो कहते, वही मैं करता गया। लेकिन, धीरे-धीरे समय के साथ संगीत सुनना और तबला बजाना अच्छा लगने लगा।

आपने किसी उम्र में तय किया कि अब तबला वादन को करियर बनाना है?

डाॅ अजय कुमार-मैं सन् 1999 मंे ग्रेजुएशन की पढ़ाई के बाद, वाराणसी चला आया। सच कहूं तो काशी ने मेरी जिंदगी के प्रति नजरिया ही बदल दिया। बीएचयू से पढ़ाई के दौरान ही, गुरू जी पंडित छोटे लाल मिश्र के सानिध्य में आया। गुरू जी बोलते बहुत कम थे। लेकिन, उनकी परख गजब की थी। हर शिष्य की क्षमता और प्रतिभा के अनुरूप उसे वह तालीम देते थे।

गुरूजी से तबला सीखने के दौरान, तबला का वास्तविक रूप समझ में आया। उन्होंने हमें तबले को समझने के लिए दृष्टि दिया। उन्होेंने विषय की समझ के साथ उसके सकारात्मक और वैज्ञानिक पहलू से हमें अवगत कराया। उन्हीं से पता चला कि तबले की उत्पत्ति मध्य काल में माना जाता है। यह एक भ्रांति है। ऐसी बात नहीं है। हमारी कलाओं का आधार ‘नाट्य शास्त्र‘ में पुष्कर वाद्यों की चर्चा है। प्राचीन समय में इसे उध्र्वक आदि नाम से जाना जाता था। मुगलकाल में तबला कहा जाने लगा।

बनारस घराने मंे तबला वादन की खासियत क्या है?

डाॅ अजय कुमार-दरअसल, हर घराने की अपनी खासियत है। हमारे घराने में तबले वादन की शुरूआत उठान से होती है। इसे छोटे-छोटे बोलों के समूह से सजाते हुए, हम उपज अंग बजाते हैं। खुले अंदाज में तिहाई को बजाकर, चक्रदार से समापन करते हैं। वैसे तो बनारस घराने को बहुत से कलाकारों ने समृद्ध किया। लेकिन, पंडित रामसहाय जी की देन अनुपम है। बताया जाता है कि उनकी चारों अंगुलियों स्याही के साथ सटी होती थीं। वह अनामिका अंगुली को मोड़ देते थे। इससे ध्वनि में गूंज पैदा होती थी। जो लोगों को आकर्षित करती थी। वास्तव में, वादन के क्रम में बोल की शुद्धता को बनाए रखने की जिम्मेदारी वादक की है।







बनारस में समय कैसा बीता?

डाॅ अजय कुमार-मैं बनारस में लगभग आठ साल रहा। रीवा कोठी इलाके में गंगा के किनारे हमारा हाॅस्टल था। बारिश के दिनों में गंगा नदी का पानी काफी अंदर तक आ जाता था। कुछ भी नहीं है, फिर भी कोई फिक्र नहीं। काशी का रहन-सहन, मिजाज, बोलचाल हर किसी को स्वावलंबी बना देता है। हर चीज का सलीका यहां सीखने को मिला। वैदिक गायन से लेकर सांस्कृतिक सोच काशी की अद्भुत है। यहां रिक्शेवाले, सब्जी बेचने वाले या कहें कि आम आदमी अपना काम खत्म करके संकटमोचन संगीत समारोह या गंगा महोत्सव में कार्यक्रम देखने-सुनने पहंच जाता है। वह कलाकारों को देख-सुनकर, उस पर चर्चा करते हैं। वह माहौल कर किसी को प्रेरित करता है। ये आम लोग अनजाने में ही जीने की कला सीखा देते हैं। सिर्फ, आपकी नजर होनी चाहिए, परखने की।

Friday, May 1, 2020

shashiprabha: सारंगी साज मुश्किल साज नहीं है-मुराद अली, सारंगीनव...

shashiprabha: सारंगी साज मुश्किल साज नहीं है-मुराद अली, सारंगीनव...:                                       सारंगी साज मुश्किल साज नहीं है-मुराद अली, सारंगीनवाज इनदिनों हम लाॅकडाउन और स्वास्थ्य संकट के...

सारंगी साज मुश्किल साज नहीं है-मुराद अली, सारंगीनवाज






                                      सारंगी साज मुश्किल साज नहीं है-मुराद अली, सारंगीनवाज

इनदिनों हम लाॅकडाउन और स्वास्थ्य संकट के दौर से गुजर रहे हैं। हर तरफ खामोशी और उदासी का दौर है। लोग खौफ और डर में कुछ ऐसा कर रहे हैं, जो शायद वह करना नहीं चाहते हों। फिर भी! पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर से कुछ ऐसी ही तस्वीर देखने को मिली। लेकिन, मुरादाबाद पीतल व कांच के नक्काशीदार बरतन, गहने और अन्य हस्तशिल्प के लिए मशहूर है। और, जाना जाता है-सारंगीनवाजों के लिए। सारंगीनवाज मुराद अली, इसी मुरादाबाद शहर की पैदाईश हैं। जिन पर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत ही नहीं, विश्व संगीत जगत को नाज हैं। उन्हें उस्ताद बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार, सारंगी रत्न सम्मान, संस्कृति सम्मान आदि मिल चुके हैं। आज के रू-ब-रू में हम मुराद अली जी से बातचीत के अंश पेश कर रहे हैं-शशिप्रभा तिवारी

आप ने सारंगी सीखने की शुरूआत कैसे की?

मुराद अली-मैं सारंगी नवाजों के मुरादाबाद घराने से तालुक रखता हूं। अपने परिवार परंपरा में मैं छठी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता हूं। मैंने अपने दादा जी उस्ताद सिद्दिक अहमद खां और वालिद उस्ताद गुलाम साबिर खां साहब से तालीम पाई है। मेरे पिताजी आकाशवाणी के ‘ए-ग्रेड‘ कलाकार हैं। वह बहुत गुणी हैं। मैंने शुरूआत में दादा जी से गाना-बजाना सीखा। दस वर्ष की उम्र में पहली बार मंच पर सारंगी बजाया था।

सारंगी को मुश्किल साज क्यों माना जाता है?

मुराद अली-मुझे लगता है कि यह एक हौवा बना दिया गया है। यह सच है कि यह नफासत वाली साज है। थोड़ी मुश्किल तो है ही। सितार की तरह इसमें भी पर्दे नहीं होते। पर्दे नहीं होने से आमतौर पर लोगों को निषाद या गंधार स्वर कहां यह पता नहीं होता। अंगुली की पोरों से बजाना होता है। उसकी अपनी कुछ खूबियां हैं, कुछ दिक्कते हैं। यह कंठ संगीत के करीब का साज है। साज में गायकी को उतारने का अपना अंदाज है। तीन तार का यह साज इंसानी रूप का साज है। इसमें मानवीय अंगों की तरह ही अंगों की भी एक खूबसूरत बनावट है। वाकई, सारंगी सुर में बजती है, तो बहुत अच्छी लगती है। कलाकारों की मेहनत, तालीम, बुजुर्गों का आशीर्वाद है कि हम लोग इसे आगे लेकर जाने की कोशिश में जुटे हैं।

अपने बचपन की कुछ यादों को कृपया, साझा करिए न!

मुराद अली-जब मैं तीन बरस का था। मेरे दादा जी ने उसी उम्र में ही मुझे गाना सिखाना शुरू कर दिया। अब मुझे याद आता है कि उन्होंने सात साल की उम्र तक मुझे खयाल की तमाम बारीकियों, सरगम और पलटे सब सीखा दिया। हालांकि, उस समय मुझे यह भी समझ नहीं थी कि मैं क्या गा रहा हूं? सिर्फ, उन्होंने तालीम दी और मैंने ली। फिर, वही खयाल गायकी की चीजों को उन्होंने सारंगी पर बजाना सिखाया। उनका कहना था कि पहले गाओ और फिर बजाओ। इससे दोनों साथ-साथ चलते हैं और तालीम पक्की हो जाती है। उन्होंने सारंगी की हर बारीकी के साथ ‘बोल काटने‘ का अंदाज बताया। सारंगी में ‘गत अंदाज‘ बजाने का तरीका ंिपछले पचास वर्षों में काफी बदला है।

कोई यादगार समारोह!

मुराद अली-मेरे दादा जी के समय में दंगली गाना-बजाना होता था। उस जमाने में एक ओर गवैया तान दे रहा है, दूसरी ओर सरंगी नवाज उसे सारंगी के तानों में उतार रहा होता। इसलिए, दादा जी को बहुत सारे बंदिशें याद होती थीं। कभी भोपाल में आयाजित सारंगी मेले में सौ से भी ज्यादा सारंगी वादक इकट्ठे हुए थे। पर, शायद यह मुमकिन नहीं। हम लोगों ने वर्ष 2003 और 2006 में सोलह सारंगी वादकों के सामूहिक वादन का कार्यक्रम किया था। दिल्ली के कमानी आॅडिटोरियम में सारंगी सिम्फनी की तरह बजी थी। उस समय उस्ताद असद अली और उस्ताद गुलाम सादिक साहब ने कहा था कि अब तक तुम्हारा सोलो सुना था। पर सारंगी का यह रूप अद्भुत है। मुझे उनकी ये बातें और वह कार्यक्रम कभी भूलता नहीं!




अपने घराने की नई पीढ़ी से क्या उम्मीदें हैं?

मुराद अली-हमारे घराने में लगभग बीसियों सारंगी नवाज हुए हैं, जैसे बन्ने खां, शकूर खां, मेरे पिताजी, वगैरह-वगैरह। आज कोई भी सारंगी वादक या सारंगी साज के भविष्य के बारे में नहीं सोचता। बहरहाल, हमारी ज्वाइंट फैमिली है। हमारे घर में अगली पीढ़ी के बच्चे-सुभान अली, शहनवाज अली, रेहान अली, ताबीश सीख रहे हैं। लगभग 15-16 बच्चे सीख रहे हैं, ये सातवीं पीढ़ी के हैं। ये मेरे वालिद, मुझसे और गुलाम मोहम्मद से सीखते हैं। अब, यह तो आने वाला वक्त बताएगा कि ये किस ओर अपना रूख करते हैं।