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Wednesday, February 12, 2020

शास्त्रीय नृत्य की एक अनवरत परंपरा है।

शास्त्रीय नृत्य की एक अनवरत परंपरा है। इसके तहत गुरूओं के सानिध्य में शिष्य-शिष्याएं कला की साधना करते हैं। गुरूमुखी विद्या का यह अवगाहन गुरू के सम्मुख बैठकर ही संभव है। भले ही, आज इंटरनेट के जरिए सब कुछ आसान हो गया है। पर मानस और मानवीय भावनाओं का जो आदान-प्रदान सानिध्य के जरिए होता है। उसका कोई विकल्प नहीं है। इसी के मद्देनजर युवा प्रतिभाओं की भावनाओं को उजागर करने के लिए, हम हर शुक्रवार को आपके सामने उन्हीं के भावों को पेश करने की कोशिश करेंगें। हमें आशा है कि आप सुधि पाठकों और रसिकों का सहयोग मिलेगा ताकि हमारा उत्साह बना रहे। तो इस बार की शुरूआत कथक नृत्यांगना गौरी दिवाकर की नृत्य यात्रा के बारे में जानते हैं, उन्हीं की जुबानी-


कथक नृत्यांगना गौरी दिवाकर अभी हाल ही में प्रतिष्ठित दरबार संगीत समारोह में शिरकत करके लौटी हैं। इस यात्रा के दौरान, उन्होंने विश्व स्तर के कलाकारों के साथ मिलकर, भारत रत्न पंडित रवि शंकर की जीवन कथा को नृत्य के जरिए पिरोया। इस सामूहिक प्रस्तुति में ब्रिटेन के समीक्षकों ने गौरी दिवाकर के कथक नृत्य को खासतौर पर सराहा है। गौरी उस्ताद बिस्मिल्ला खां सम्मान, जयदेव प्रतिभा सम्मान, श्रृंगार मणि सम्मान से सम्मानित हैं। इस महीने की 21तारीख को इंडिया हैबिटाट सेंटर में गौरी दिवाकर नृत्य रचना ‘समरात्री नाइट आॅफ डिवाइन यूनियन‘ पेश करने वाली हैं।






आपका बचपन जमशेदपुर में बीता है। आपका दिल्ली कैसे आना हुआ?

गौरी दिवाकर --मैं बारहवीं की पढ़ाई के बाद दिल्ली आ गई थी। मेरी बड़ी दीदी और जिजाजी अपने साथ ले आए थे। वैसे तो मैंने जमशेदपुर में भी नृत्य सीखा था। नृत्य खासतौर में कथक के बारे में किताबी ज्ञान, जिसको कहते हैं, वह मुझे कुछ ज्यादा ही था। यहां रहते हुए, कथक कंेद्र सेे जुड़ी। कथक केंद्र में मेरा इंटरव्यू महाराजजी ने लिया था। मुझसे भारती दीदी और गुरू मुन्ना शुक्ला ने पूछा कि तीन ताल या झप ताल या धमार ताल में से किस पर नाचना पसंद करेंगी। मैं इतनी नासमझ और गर्वीली थी कि बोली रूद्र ताल पर नृत्य करूंगीं। और अपने अति आत्मविश्वास के साथ उनलोगों के सामने जितना आता था, सब प्रस्तुत कर दिया। अब सोचती हंू तो अपनी बेवकूफी और हिमाकत पर हंसी आती है। कभी-कभी अपनी मूढ़ता पर अफसोस भी होता है।

कथक केंद्र्र में समय कैसे बीता?

गौरी दिवाकर--समय बीतता गया। मैं सुबह आठ बजे कथक केंद्र पहुंच जाती। सारे दिन यहां बीताती और शाम को पांच बजे घर वापस लौट जाती थी। कथक केंद्र में मैं कथक की तकनीकी पक्ष से बखूबी वाकिफ हुई। तीन ताल की एक-एक बारीकी को जैसा गुरूओं ने सिखाया, उसे आत्मसात करने की कोशिश की। फिर, स्काॅलरशिप मिला। मुझे लगा कि अगर नीयत सही होती है तो प्रकृति आपको ऐसे ही सहयोग देती है। और आपके रास्ते खुलते जाते हैं। हां, रास्ते सही होने जरूरी हैं। बतौर, कलाकार अपनी पहचान बनाने के लिए मुझे काफी संघर्ष करना पड़ा। पर मैं खुद को सौभाग्यशाली मानती हूं, जो मुझे गुरूओं का बहुत आशीर्वाद मिला।


आपको दूसरे कलाकारों की प्रस्तुति देखने का समय मिलता है?

गौरी दिवाकर--मैंने मंडी हाउस के आस-पास काफी समय गुजारा है। क्योंकि थर्ड ईयर में जब आई तो शाम को हर रोज नाटक देखती या किसी का डंास देखती या किसी कलाकार का संगीत सुनती। मुझे कलाकारों की कलाओं को पेश करते हुए देखना बहुत भाता था। एक तरह से कहूं तो यह आदत से मन गई थी। या कहूं तो लत लग गई थी। बड़े-बड़े कलाकारों के डांस देखती तो मन में तय करती थी कि अब मैं भी जमकर रियाज करूंगी। और खूब-खूब मेहनत करूंगीं। हालांकि, आजकल पहले जितने शो तो नहीं देख पाती हूं। पर अगर दिल्ली में होती हूं तब समय निकालकर, शाम को प्रोग्राम देखने जाना पसंद करती हूं।





नृत्य सीखने के लिए क्या जरूरी मानती हैं?

गौरी दिवाकर--मुझे याद है कि मुझे स्काॅलरशिप साढ़े छह सौ रुपए मिलते थे। मैं अपना गुजारा उसी से करती थी। केंद्र में महाराज जी, चीकू भईया, गीतांजलि दीदी, प्रेरणा दीदी, मालती दीदी सबसे कुछ-कुछ सीखने की कोशिश में रहती थी। मेरे पास ईमानदारी से काम करने का जज्बा था। मुझे सीखने की भूख थी। कुछ हासिल करने या जल्दी से कुछ बन जाने का इरादा नहीं था। बहुत पैसा कमाना है, यह तो कभी सोचा ही नहीं। मैं अपने अनुभव से समझती गई हूं कि केवल वर्कशाॅप करके या यहां-वहां कुछ-कुछ सीखकर डांसर नहीं बना जा सकता है। यह तो साधना है। यह अनवरत मेहनत और लगन की अनंत यात्रा है। जो अनंत की ओर आपको अग्रसर करता है।

आपको कई गुरूओं से सीखने का अवसर मिला है। इस बारे में कुछ बताईए?

गौरी दिवाकर--मुझे पंडित बिरजू महाराज, गुरू जयकिशन महाराज और अदिति दीदी से नृत्य सीखने का अवसर मिला। गुरू जयकिशन महाराज जी जिन्हें हम सभी चीकू भईया कहते हैं। वह एक  समर्पित गुरू हैं। वह बहुत ही निस्वार्थ भाव से सिखाते हैं। वह क्लास में प्रैक्टिस के दौरान अक्सर पंखा बंद करवा देते थे। उनका कहना था कि विद्यार्थी को कष्ट सहना जरूरी है। तभी वह अपनी विद्या का महत्व समझ पाते हैं। उन्होंने हमें कथक केंद्र की रिपर्टरी के साथ जोड़ा। उन्हें नृत्य के साथ संगीत की समझ बहुत अच्छी है। महाराज जी तो अथाह सागर हैं। अदिति दीदी के बारे में मैं क्या कह सकती हूं। उन्होंने तो हमें गढ़ा है।

कोई यादगार घटना!

गौरी दिवाकर--कथक केंद्र की एक घटना याद आती है। दीपावली का उत्सव कथक केंद्र में मनाया जा रहा था। सभी से कुछ-कुछ पेश करने को कहा गया। मेरी बारी आई, महाराज जी ने कहा-बिहारी इधर आ। कुछ सुनाओ। तब मैंे गीता के पंद्रहवें अध्याय का पढंत किया। वह इतने प्रभावित हुए कि उस दिन के बाद से मुझे बिहारी के बजाय पंडिताइन बुलाने लगे। उनके सिखाने का तरीका, एक-एक लाइन को मेंटेंन करना बहुत अलग है। उनदिनों कथक केंद्र में बहुत रोक-टोक नहीं था। हम कभी महाराज जी का क्लास करते। उसके बाद, चीकू भइया के क्लास में चले जाते। वहीं रियाज चलता रहा। उनदिनों कथक केंद्र के हर कोने-कोने से घुंघुरूओं और पढंत की आवाज आती रहती थी।

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