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Friday, May 10, 2019

एक गांव की तरह ....

सुबह होने से पहले
मुँह अँधेरे
मैं गंगा के किनारे बैठी
लहरों को निहारती
हर धारा में तुम्हें देख रही थी

वही तुम्हारी अंगुली थामे
सड़क पर चलते हुए
दुनिया को जाना था
जिंदगी की मिठास को चखा था
अपनों को जाना था

वहीं तो कुछ ठहर गया था
उस रोज
जब तुम्हारे साथ
शहर को अपनी निगाहों से देख रही थी
तुमने अंदेशा भी होने नहीं दिया
लौट कर उस रास्ते
अब कभी न गुजरेंगे

क्या अब तुम्हें
उन अँगुलियों की छुअन
वो नज़रों की तड़प
याद नहीं आती
कि मन नहीं होता
अपनों के बीच होने का !

सुना है,
पानी की यादाश्त गहरी होती है
वह बहते मन को पढ़ लेता है
तुम तक मेरे मन का कहा
गंगा के जल ने पहुंचाया होगा
मन की तरस
शायद, बरसों तक रहे
कभी न बिसरे
गंगा के तीरे-तीरे
मन बसता जाए
एक गांव की तरह ....

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