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Thursday, March 26, 2020

shashiprabha: मेरा जीवन सारंगी के तारों से झंकृत है-कमाल साबरी

shashiprabha: मेरा जीवन सारंगी के तारों से झंकृत है-कमाल साबरी:                                       मेरा जीवन सारंगी के तारों से झंकृत है-कमाल साबरी कुछ वर्ष पहले की बात है। एक समारोह में सारंगी व...

मेरा जीवन सारंगी के तारों से झंकृत है-कमाल साबरी



                                      मेरा जीवन सारंगी के तारों से झंकृत है-कमाल साबरी


कुछ वर्ष पहले की बात है। एक समारोह में सारंगी वादक कमाल साबरीजी से मुलाकात हुई। कुछ समय पहले ही उनके वालिद और उस्ताद साबरी खान साहब दुनिया को अलविदा कह चुके थे। सेनिया घराने से ताल्लुक रखने वाले कमाल साबरी बेहतरीन सारंगी वादक तो हैं ही। वह हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में नव प्रयोग के लिए मशहूर हैं। इस बार रूबरू में हम उन्हीं के विचार पेश कर रहे हैं-शशिप्रभा तिवारी 

संस्कृति से आप क्या आशय रखते हैं? इस बारे में सारंगीवादक कमाल साबरी कहते हैं कि संस्कृति हमें पूर्ण बनाती है। संस्कृति यानि संस्कार का आशय शिक्षा, अनुशीलन, सजावट, पवित्र बनाना, पूर्वजन्म की मनस्थिति या योग्यता को पुनर्जीवित करने का गुण या शक्ति है। दरअसल, संस्कृति का हमारे देश में व्यक्तिगत माना जाने लगा है। इससे जनमत या राजनीति प्रभावित नहीं होती है। इसलिए, यह उपेक्षाओं का शिकार हो रहा है और कलाकार भी। जबकि, अनूठी कला-संस्कृति  ही भारत देश की पहचान है। इस परिदृश्य में समकालीन सामाजिक प्रवŸिायां और कला एक गंभीर विमर्श का मुद्दा बन गया है। आज इस पर चर्चा करना जरूरी हो गया है। ताकि, अब और देर न करते हुए, हमारा समाज जागृत हो।

सारंगी वादक कमाल साबरी को सारंगी की तालीम अपने पिता से मिला। उन्होंने सारंगी बजाने के साथ खुद को समाज और सामाजिक सरोकारों से जोड़ा है। एक दौर था जब सारंगीनवाजों का एक बड़ा हुजूम होता था। धीरे-धीरे जब हारमोनियम और वायलिन लोकप्रिय होने लगे तब बहुत से घरानेदार सारंगी वादकों ने अपने बच्चों को सारंगी बजाना सिखाना बंद कर दिया। ऐसे में कमाल साबरी के पिता ने उन्हें सारंगी बजाने की तालीम उन्हें दिया।

सारंगी वादक कमाल साबरी बताते हैं कि यह एक नया दौर है, जब सामकालीन सामाजिक प्रवृŸिायां हम कलाकारों को बार-बार झकझोरती हैं। हमारे वालिद कहते हैं कि सारंगी संगत करने का पूरक साज है। संगत करते हुए, आप ऐसा बजाएं कि जो कलाकार गा रहा है उसका गाना निखर जाए। आपको राग, तान, सुर, लय, बंदिश सबसे परिचित हों और आपके बजाने मंे पूरी सफाई हो। इस तरह उसके कला प्रस्तुति के गुलदस्ते को अपनी तानों के फूल से सजा दें। इसके लिए हम उस घराने की गायकी शैली से परिचित हों कि फलां घराने की खासियत क्या है? हालांकि, अब तो घराने के दायरे लगभग मिटने लगे हैं। हम कलाकार जब एक-दूसरे के साथ मिल कर काम करते हैं, प्रोग्राम करते हैं उस समय हम एक-दूसरे के सुख-दुख, मनोभावों को समझते हैं यही तो मानवीय सरोकार हैं, जो हमें आपस में जोड़ते हैं और करीब लाते हैं। मुझे तिहाड़ जेल में कैदियों को सारंगी सिखाने का अवसर मिला। इससे बड़ी जीवन में और क्या उपलब्धि हो सकती है कि मैं समाज से, परिवार से कट चुके कैदियों को संगीत के जरिए खुशी और सुकून दे सका। वह समय शायद मेरे जिंदगी सुनहरे पलों में से एक है। मुझे याद है, जब मैं पहली बार तिहाड़ जेल में गया, तब अंदर-ही-अंदर भयभीत था कि पता नहीं कैसा माहौल हो? लेकिन जेल नंबर-चार में गया। वहां मुझे मेडिटेशन हाॅल में बैठाया गया। उस हाॅल में एक तबला और हारमोनियम कोने में रखा हुआ था। समय के साथ मुझे वहां जाना और कैदियों को संगीत की शक्ति, क्षमता और विशेषता के बारे में बताने लगा। उसी दौरान मन्नू शर्मा ने मुझसे करीब एक साल वायलिन बजाना सीखा। वहीं छब्बीस जनवरी 2012 में मेरा पहला प्रोग्राम हुआ। उस दिन मेरे साथ तबले पर फैसल और वायलिन पर कैदी मन्नू शर्मा ने संगत किया था। बाद में उनकी एलबम ‘होप‘ को टाइम्स म्यूजिक ने रीलिज किया। मुझे एक मुस्तकिम याद आता है-‘वक्त की रफ्तार में हम बह गए, कैद होकर सलाखों में रह गए‘।




कमाल साबरी आगे बताते हैं कि उस दौरान मुझे महसूस हुआ कि वाकई गुस्से से हमें बचना चाहिए। एक क्षण आपे से बाहर हुए, लोग अपराधी बन सजा काटते हैं। यह हमारे समाज का नया चेहरा है, जिसे हम महसूस कर रहे हैं। जिसमें छोटे-से बच्चे से लेकर साठ साल के बुजुर्ग तक गलती करते हैं और सजा काटते हैं। मुझे लगता है कि हमें सहनशीलता और धैर्य का दामन किसी भी पल नहीं छोड़ना चाहिए, यह कला की सबसे बड़ी देन है। कलाकार को हर पल नए संघर्ष के लिए तैयार रहना पड़ता है। उसे पता होता है कि जीवन ही संघर्ष का दूसरा नाम है। यही हमें जिंदगी और समाज से जोड़ता है।


Thursday, March 19, 2020

shashiprabha:                                                ...

shashiprabha:                                  


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:                                                                                           फिर बज उठी शहनाई                           ...
                                 


                                                        फिर बज उठी शहनाई

                                                  लोकेश आनंद, शहनाई वादक

शहनाई वादक लोकेश आनंद को अपने पिता कालीचरणजी से शहनाई विरासत में मिली। आपके पहले गुरू आपके पिता रहे। इनदिनों लोकेश संगीत मार्तंड पंडित जसराज के सानिध्य में अपने वादन को निखारने में जुटे हुए हैं। उन्होंने शहनाई वादक पंडित अनंत लाल और दया शंकर से वादन सीखा। साथ ही, पंडित राजेंद्र प्रसन्ना से भी शहनाई वादन की बारीकियों को सीखा है। वह आकाशवाणी के ए-ग्रेड आर्टिस्ट हैं। बहरहाल, उन्होंने स्वर और लय के अनूठे लगाव से अपने वादन को नया अयाम देने की कोशिश में जुटे हुए हैं। इस बार, रूबरू में उनसे बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत हैं-शशिप्रभा तिवारी

आपने शहनाई वादन सीखने की शुरूआत कैसे की?
लोकेश-मेरे पिताजी विवाह-शादी में शहनाई बजाते थे। उन्होंने पंडित विष्णु प्रसन्ना से सीखा था। पर वह प्रोफेशनल कलाकार नहीं थे। उनकी इच्छा थी कि मैं शहनाई वादन सीखूं। शुरूआत में उन्होंने ही बांसुरी पर हाथ रखना और फूंक लगाना सीखाया। जब मैं बारह-चैदह साल का था, वह मुझे पंडित अनंत लाल जी और दया शंकर जी के पास ले गए।
उन दिनों मैं स्कूल में पढ़ता था। शनिवार-इतवार और छुट्टी के दिनों में गुरूजी के पास सीखने जाता। धीरे-धीरे मेरा मन पढ़ने की अपेक्षा संगीत में ज्यादा लगने लगा। इसके अलावा, मुझे सन् 1997 में मैं मुम्बई में कल के कलाकार कार्यक्रम में बजाने गया। वहां मुझे बहुत शाबाशी मिली। मेरे वादन की तारीफ हुई। मुझे सुरमणि सम्मान जब मिला, उस समय ही मैंने तय किया कि अब यह जीवन पूरी तरह शहनाई को समर्पित होगी।

आप पंडित जसराज के सानिध्य में कैसे आए?

लोकेश-गुरूजी को कुछ साल पहले शंकरलाल संगीत समारोह में सुनने गया था। गुरूजी गा रहे थे। और आस-पास नजर डाला तो हर किसी के आंखों से आंसू प्रवाहित हो रहे हैं। गुरूजी का गायन जारी था, मेरी आंखें बंद थीं। मुझे प्रतीत हो रहा था कि मेरे चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है। और मैं उस प्रकाश पंुज से रोशन हूं। वास्तव में, गुरूजी गाते हैं, उस समय ऐसा लगता है कि ईश्वर की कृपा बरस रही है। वो आनंदित होकर गाते हैं। हर बार उनको सुनता और एक अलग अनुभूति से गुजरता हूं। उसी दौरान मैं गुरूजी से सीखने की इच्छा जाहिर किया। उन्होंने उसे स्वीकार कर, मुझे अपने शिष्यत्व में लिया। यह मेरा सौभाग्य और पूर्व जन्म के पुण्य कर्म का प्रतिफल है।

पंडित जसराज के सानिध्य में आने के बाद अपने में किस तरह का परिवर्तन महसूस करते हैं?

लोकेश-मुझे मेरे गुरूओं ने हमेशा अपने साथ कार्यक्रमों में मंच पर बैठाते थे। कई बार अपने साथ-साथ बजाने का मौका भी देते थे। उन्हीं के मार्ग दर्शन में मैं समारोह में बजाना शुरू किया। लेकिन, पिछले दस सालों से पंडितजी के संग रह कर मैंने शहनाई में रागदारी संगीत को कर पाने में समर्थ हो पाया। मैं राग के चलन और उसको बरतने का तरीका मुझे पता चला।

गुरूजी के सानिध्य में संगीत के आध्यात्मिक पक्ष से अवगत हुआ। वह हमेशा आध्यात्मिक आनंद में मग्न रहते हैं। इससे भी मेरा परिचय हुआ। गुरूजी सभी से प्रेम से मिलते हैं। उनकी बातचीत का अंदाज बहुत आत्मीय है। उनके साथ ने मेरे व्यक्तित्व को निखार दिया है। इसमें कोई शक नहीं है।






आपने यादगार परफाॅर्मेंस के बारे में कुछ बताईए। 
लोकेश-मैं पहली बार हैदराबाद में परफाॅर्म करने गया था। इस समारोह का आयोजन गुरूजी पंडित मणिराम और मोतीराम जी स्मृति में लगभग पचास सालों से कर रहे हैं। इस प्रोग्राम को लेकर काफी उत्साहित था। मुझे आधे घंटे का समय दिया गया था। मैंने अपना वादन खत्म किया तो लोगों की ओर से ‘वंस मोर‘ की आवाज आने लगी।

पिछले साल संकटमोचन मंदिर संगीत समारोह में हाजिरी लगाने का अवसर मिला। वह सिद्ध मंच है। वहां तो बाबा के दरबार में बस हाजिरी लग जाए, बस यही मन में रहता है। मेरे प्रोग्राम से पहले पंडित सुरेश तलवरकर जी का वादन था। उनके वादन के बाद, मंदिर में सुबह की आरती हुई। सुबह चार बजे का समय था, दर्शक बहुत कम संख्या में थे। मैं थोड़ा दुखी था। लेकिन, बजाते-बजाते एकाएक नजर उठाया तो देखता हूं। मंदिर के छत और छज्जे पर तीन-चार सौ की संख्या में वानरसेना मौजूद हैं। और चुपचाप मेरा वादन सुन रहे हैं। मैं हनुमानजी की लीला समझ गया। और क्या कहूं। आत्मविभोर हो गया। 

Saturday, March 14, 2020

shashiprabha: अजीब सी ख़ामोशी पसरी है

shashiprabha: अजीब सी ख़ामोशी पसरी है: अजीब सी ख़ामोशी पसरी है क्या इस शिखर पर पहुंच कर हार गए हम लगता है, केशव सिर्फ तुम्हारी शरण में सुकून है अब तक के युद्ध ...

अजीब सी ख़ामोशी पसरी है

अजीब सी ख़ामोशी पसरी है
क्या इस शिखर पर पहुंच कर
हार गए हम
लगता है, केशव
सिर्फ तुम्हारी शरण में सुकून है
अब तक के युद्ध में
पता तो होता था
आपका सामना किससे है
हर मन चुप-सा कराह रहा है
मन उद्विग्न है
सब हथियार डाल चूका है
क्या अब भी तुम आओगे?
जीवन का, कर्म का, उत्साह का
सन्देश दे पाओगे
इस बेचैनी, इस निराशा के पल में
हंसने-मुस्कुराने का
कोई वजह दे पाओगे
हमारी बस्ती में
धीमी-धीमी सुलगती उदासी को
आओ न, कान्हा!
अपनी बंसी की टेर से
एक गुनगुनाहट में बदल दो ,
फिर, एक बार !

Friday, March 13, 2020

shashiprabha: शिकारा का यूं तैरना

shashiprabha: शिकारा का यूं तैरना:                                                         शिकारा का यूं तैरना                                                        अभय ...

शिकारा का यूं तैरना




                                                       शिकारा का यूं तैरना
                                                       अभय सोपोरी, संतूर वादक


अभी हाल ही में, फिल्म विधु विनोद चोपड़ा की फिल्म ‘शिकारा‘ आई। इस फिल्म में संगीत निर्देशन युवा संतूर वादक अभय रूस्तम सोपोरी ने किया। कश्मीर के संगीत की मधुर सुरों से सराबोर इस फिल्म के संगीत को अभय सोपोरी ने भी संवारा है। हालांकि, इस फिल्म में एआर रहमान, कुतुब ए कृपा, संदेश शांडिल्य और रोहित कुलकर्णी ने भी संगीत दिया है। कश्मीरी लोक संगीत की खुशबू इस फिल्म में खासतौर पर सराही गई है। इसका श्रेय संगीत निर्देशक और कम्पोजर अभय सोपोरी को दिया जा रहा है। इस संदर्भ में रूबरू के लिए अभय रूस्तम सोपोरी से चर्चा की गई। उसके कुछ अंश पेश हैं-शशिप्रभा तिवारी


फिल्म शिकारा में संगीत देने के बारे में आपने कैसे सोचा?
अभय-करीब तीन साल पहले विधु जी से मिला था। उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़ने को दिया। उसे पढ़ने के बाद, उन्होंने बताया कि यह अस्सी के शादी के दृश्य के हिसाब से संगीत का चयन करना है। मेरे लिए एक चुनौती थी। सेट पर उसी दौर के डेªस कोड, शामियाने, साज-सामान, साज-सज्जा थी। हमने लाइव सेट पर सारा म्यूजिक रिकार्ड किया। शिकारा में तीन कश्मीरी गीत हैं। एक शादी का गीत और थीम सांग है। इसका संगीत निर्देशन मैंने किया है।

बतौर संगीत निर्देशक कार्य करना आपको कैसा लगा?
अभय-मैं इस फिल्म से पहले कई डाॅक्यूमेंटरी फिल्म और कुछ शाॅर्ट फिल्मों में संगीत निर्देशन का काम कर चुका हूं। दरअसल, इस फिल्म के गीत अलग-अलग मूड के हैं। जिन गीतों को मैंने चुना, वह पहले हिंदी में थे। धीरे-धीरे इसमें कश्मीरी तासिर लाने के लिए इसे कश्मीरी में किया गया। मैंने रिकाॅर्डिंग से पहले उन कलाकारों के साथ दस दिनों तक रियाज किया। म्यूजिक में एक ही रिद्म चल रहा है। इसमें कश्मीरी सारंगी, रबाब, मटका, संतूर, सहतार बजाए गए हैं। मैंने कोशिश की है कि अस्सी के दशक में जिस तरह गीत गाए-बजाए जाते थे, उसी तरह पेश करूं। इससे फिल्म के अनुरूप एक गहराई की अनुभूति हुई। इस फिल्म में उस दौर के कश्मीर की जिंदगी को दिखाया गया है। वह सच है। मुझे लगता है कि फिल्म में उतना ही दिखाया जाना चाहिए, जिससे कि समाज में नफरत न बढ़े। उन दुखद घटनाओं को दिखाकर भी क्या फायदा?

आपने कश्मीर के लोक कलाकारों के साथ काम किया है। उस दौरान आप का अनुभव कैसा रहा?
अभय-कश्मीर में शादी, विवाह और खुशी के मौके पर बचनगमा डांस की परंपरा है। इसमें किशोर लड़के लड़की के वेश में डांस करते हैं। यानि बचनगमे के लिए बच्चा कलाकार होना चाहिए। मेरे जन्म से पहले के बचनगमा के मशहूर कलाकार गुलाम नबी बुलबुल थे। वह एक बेहतरीन कलाकार हैं। अब वह सारंगी वादन करते हैं। इस बार, उन्होंने कलाकारों को बचनगमा की टेªेनिंग दिया। उन्हें हमारी संस्था समप की ओर से कुछ साल पहले सम्मानित भी किया गया था।

इस फिल्म के विवाह गीत ‘शुक्राना गुल खिले‘ और ‘दिलबर लाग्यो‘ को गायक मुनीर अहमद मीर ने गाया है। इसके गीत को बशीर आरिफ ने लिखा है। मुनीर अहमद ने आॅन स्पाॅट गीतों को गाया है। जिसे जब विधुजी ने सुना तो उन्होंने मुझे और मुनीरजी को गले से लगा लिया।  बाकी कलाकार मेरे साथ लंबे समय से परफाॅर्म करते रहे हैं। मैं जब भी कश्मीर या देश के अलग हिस्से में कश्मीरी संगीत पेश करता हूं, वो लोग मेरे साथ होते हैं।






शिकारा के संगीत को लेकर लोगों की प्रतिक्रिया कैसी रही?

अभय-कश्मीर की समृद्ध संगीत परंपरा है। मेरी कोशिश रही है कि फिल्म की तरह संगीत में भी वहां की सांस्कृतिक झलक मिले। सोशल मीडिया में जिस तरह की प्रतिक्रिया आती है कि कश्मीरीयत खत्म हो गई है। मेरी परवरिश कश्मीरी माहौल में हुई है। मैंने बचपन में कश्मीर की खूबसूरत वादियों को देखा है। वहां के लोगों के आंखों में प्यार-मोहब्बत देखा है। उसे महसूस किया है। मैं अपने संगीत के जरिए नफरत के बजाय प्यार-मोहब्बत का संदेश देना चाहता हूं। प्यार और धैर्य संगीत और कला के जरिए बढ़ता है। संगीत से लोगों के बीच प्रेम, सौहार्द और मित्रता को दिन पर दिन बढ़ते देखना चाहता हूं।






Thursday, March 5, 2020

shashiprabha:                                        सफर चुनौ...

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                                       सफर चुनौ...
:                                        सफर चुनौतिपूर्ण है - आरूषी मुद्गल , ओडिशी नृत्यांगना ओडिशी नृत्यांगना आरूषी मुद्ग...

Wednesday, March 4, 2020

shashiprabha:                                        सफर चुनौ...

shashiprabha:


                                       सफर चुनौ...
:                                        सफर चुनौतिपूर्ण है - आरूषी मुद्गल , ओडिशी नृत्यांगना ओडिशी नृत्यांगना आरूषी मुद्ग...



                                       सफर चुनौतिपूर्ण है-आरूषी मुद्गल, ओडिशी नृत्यांगना


ओडिशी नृत्यांगना आरूषी मुद्गल ने गुरू माधवी मुद्गल से नृत्य की शिक्षा ग्रहण की है। उन्होंने देश-विदेश के सभी बड़े समारोह में शिरकत की है। आरूषी की नृत्य प्रतिभा से प्रभावित होकर, जर्मनी की डांसर और कोरियोग्राफर पीना बाउश ने उन्हें विशेषरूप से जर्मनी में नृत्य प्रस्तुति के लिए आमंत्रित किया। उन्हें उस्ताद बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार, बालश्री अवार्ड, राजीव गांधी एक्सीलंस अवार्ड मिल चुके हैं। आरूषी को फेमिना वीमेंस अवार्ड के लिए परफाॅर्मिंग आटर्् कैटगरी में नामांकित होने का गौरव मिल चुका है। उन्हें ब्रिटेन सरकार की ओर से टूरिंग फेलोशिप मिला। इस बार हम रूबरू में आरूषी मुद्गल से रूबरू हो रहे हैं-प्रस्तुति शशिप्रभा तिवारी





आपकी जिंदगी में नृत्य की भूमिका क्या है?

आरूषी मुद्गल-मेरी जिंदगी नृत्य और कलाओं के साथ बीत रही है। हमारे परिवार में शुरू से कला का माहौल रहा है। बचपन से ही सुबह हमारी आंखें खुलती तो कानों में पिताजी या तानपुरे के सुर या बुआ की घुंघरूओं की आवाजें पड़तीं। उनका असर इस कदर रहा कि हमारे अवचेतन मन में सुर-लय-ताल समा गए। इसके लिए, हमें कभी अलग से प्रयास करने की जरूरत नहीं पड़ी।

सच कहूं तो जब छोटी थी, तब मैं और मेरी बड़ी बहन माधवीजी यानि गुरूजी के क्लास में घुसकर बैठ जाते थे। हालांकि, तब मैंने सीखना शुरू नहीं किया था। केलू बाबू गुरूजी की क्लास में भी कई बार बैठकर, उन्हें देखती रहती थी। कि कैसे वह नृत्य सिखाते हैं। फिर, उनलोगों की नकल करती। धीरे-धीरे स्कूल जाना शुरू हुआ। मैं स्कूल की पढ़ाई के साथ-साथ डांस सीखती रही। मैं खुद को सौभाग्यशाली समझती हूं कि हमारी टेनिंग सहज रही है। हमारे परिवार वालों और गुरूओं ने हम दोनों बहनों को एक अलग ढंग से शेप दिया।


शास्त्रीय नृत्य कलाकारों को आध्यात्मिक बनाता है?

आरूषी मुद्गल-यह सच है। नृत्य करते हुए, हम कभी-कभी अनुभूतियों के अलग स्तर से गुजरते हैं। वह अध्यात्म या आत्म साक्षात्कार का पल होता है। वह क्षण एक अलग तरह के अनुभव दे जाता है। इसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। वास्तव में, वह एक अनुभव की चीज है। यह किसी को बताया नहीं जा सकता। लेकिन, एक बात यह भी है कि यह अनुभव हमेशा हो ऐसा हो यह भी संभव नहीं है। पर कभी-कभी डांस करते हुए, आत्म या ईश्वर के दर्शन हो जाते हैं। कभी एकांत में बैठती हूं, उस समय मुझे ऐसे परफाॅर्मेंस याद आते हैं। मुझे याद आता है कि शोवना नारायण द्वारा आयोजित अर्पण समारोह में नृत्य कर रही थी। मैं एक अष्टपदी पर अभिनय कर रही थी, मुझे लगा भगवान श्रीकृष्ण मेरे साथ साकार नृत्य कर रहे हैं। उस समय मेरी आंखों से आंसू लगातार बह रहे थे। मैं उन्हें रोक नहीं पा रही थी। अगर, ऐसे अनुभव को कोई दर्शक साझा कर लेता है, तो सब कुछ हासिल हो जाता है। उससे बढ़कर हमारे लिए कोई सम्मान और पुरस्कार नहीं होता है।

आपकी कोई यादगार परफार्मेंस, जो आप भूलती नहीं।

आरूषी मुद्गल- मैं डांस के जरिए पूरी दुनिया में घूमी हूं। मैं उन दिनों स्कूल में पढ़ती थी। उस समय पहली बार ब्राजील की यात्रा पर गई थी। उस कार्यक्रम के दौरान केलू बाबूजी, माधवीजी और मैं तीनों एकल नत्य करते। इसके बाद, हम तीनों एक साथ नृत्य प्रस्तुत करते उस समय रिहर्सल के समय केलू बाबू खुद ही पखावज बजाते थे। वहां के लोग राधा-कृष्ण या शिव-पार्वती के बारे में नहीं जानते हैं। मुझे याद आता है कि प्रोग्राम के बाद, हम लोग दर्शकों से मिलने के लिए खड़े थे। एक बुजुर्ग महिला मेरे हाथ पकड़कर, रोई जा रही थी। मुझे समझ नहीं रहा था। लेकिन, इतना समझ आया कि उनके दिल को हमारा नृत्य जरूर छू गया है। अद्भुत उर्जा का वह संचार नहीं भूलता है। दरअसल, ऐसी भावनाएं कोशिश करने से नहीं आती, वह सिर्फ जाती है। बस उस पल को जी लें। उस पल को पकड़कर रख भी नहीं सकते।

विरासत को संभालना क्या चुनौतिपूर्ण है?

आरूषी मुद्गल-समय और आस-पास का माहौल बहुत तेजी से बदला है। हर चीज में व्यावसायिकता का बोल-बाला होने लगा है। ऐसे में अपने मूल्यों को बनाए रखना मुश्किल होने लगा है। लेकिन, ऐसे में भी मुझे अपनी गुरू में प्रेरणा की एक लौ नजर आती है। मेरी गुरू और पिताजी दोनों ही प्रोग्राम हो या हो रोज सुबह रियाज करते हैं। उनके अंदर जो धैर्य और आत्मप्रेरणा की भावना है, उसका एक प्रतिशत भी मैं अपना सकूं तो खुद को खुशकिस्मत समझूगीं।

आठ मार्च को महिला दिवस के अवसर पर क्या संदेश देना चाहेंगीं?

आरूषी मुद्गल-आज की महिला घर-गृहस्थी से लेकर बाहर भी निर्माण में किसी किसी रूप में सक्रिय हैं। अपने परिश्रम से आनंद पाती है। महिला दिवस नहीं हर पल उसके लिए उत्सव की तरह होता है। महिला के लिए घर, समाज के लिए काम करते हुए, आनंद की प्राप्ति एक बात है। आज वह किसी चीज के लिए मोहताज नहीं है। वह जल, थल और नभ सबको अपने कदमों से नाप रही है। समाज से उसे स्वीकृति मिल रही है। हर दिन उसके लिए वंीमेंस डे है। हम युवाओं को नहीं भूलना चाहिए कि आज हमारी पीढ़ी जहां खड़ी है, वहां तक पहुंचाने के लिए हमारी पूर्वजों की पीढ़ियों को बहुत संघर्ष करना पड़ा है। इसलिए वीमेंस डे पर कमर्शियल प्रोडक्ट्स पर विशेष छूट या मुफ्त के उपहार दिया जाता है। इस तरह के प्रलोभन मुझे पसंद नहीं आता मैं इस पृथ्वी पर अपने अस्तित्व का हर पल उत्सव मनाती हूं। हमारे समाज में महिलाओं को हर पल और हर दिन सम्मान दिया जाना चाहिए। मैं हर पल खुद को याद दिलाती हूं कि खुद की खुशी के लिए साल के एक दिन की जरूरत नहीं है।