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Friday, July 24, 2020

shashiprabha: हम कठिन समय से गुजर रहे हैं-भावना रेड्डी

shashiprabha: हम कठिन समय से गुजर रहे हैं-भावना रेड्डी: हम कठिन समय से गुजर रहे हैं-भावना रेड्डी  शास्त्रीय नृत्य जगत में गुरू शिष्य परंपरा का अपना महत्व है। ...

हम कठिन समय से गुजर रहे हैं-भावना रेड्डी

हम कठिन समय से गुजर रहे हैं-भावना रेड्डी

 शास्त्रीय नृत्य जगत में गुरू शिष्य परंपरा का अपना महत्व है। इसके जरिए वरिष्ठ पीढी अपनी विरासत शिष्य-शिष्याओं को सौंपते हैं। कुचिपुडी के वरिष्ठ गुरू-राजा राधा और कौशल्या रेड्डी ने राजधानी दिल्ली में इस नृत्य शैली को लोकप्रिय बनाया। साथ ही, उन्होंने यामिनी और भावना रेड्डी को अपनी समृद्ध विरासत को सौंपा है। युवा कुचिपुडी नृत्यांगना भावना रेड्डी ने अपनी प्रतिभा और मेहनत के जरिए कला जगत में विशेष पहचान बनाई है। उन्हें संगीत नाटक अकादमी की ओर से उस्ताद बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। वह पिछले छह महीने से लाॅस एंजिल्स में है। लाॅकडाउन के समय इस बार रू-ब-रू मंे नृत्यांगना भावना रेड्डी से बातचीत के अंश पेश हैं-शशिप्रभा तिवारी

आप नृत्य से कैसे जुड़ीं?
भावना रेड्डी-इस वर्ष के शुरू में इंडिया हैबिटाट सेंटर में भावना मैंने नृत्य रचना ओम शिवाय पेश किया। मैंने बहुत छुटपन से अपने गुरू और माता व पिता कौशल्या व राजा रेड्डी के साथ अलग-अलग नृत्य रचनाओं में नृत्य करना शुरू कर दिया था। मैंने लगभग पांच साल की उम्र में ही बाल राम, कृष्ण व प्रहलाद की भूमिका में नृत्य करना शुरू कर दिया था। मुझे नृत्य करना अच्छा लगता था। आज नृत्य मेरी सांसों की तरह मेरे तन-मन का हिस्सा बन चुका है। मेरी हर सांस में लय-ताल समाए हुए हैं। मैं नृत्य के बिना अपने जीवन की कल्पना नहीं कर सकती हूं। नृत्य ने मेरी जिंदगी को संपूर्णता प्रदान किया है।

लाॅक डाउन में आप कैसा महसूस कर रही हैं?
भावना रेड्डी-यह सच है कि वर्ष 2020 का स्वागत देश बहुत उत्साह से किया था। लेकिन, यह समय ऐसे बीतेगा कोई नहीं जानता था। मार्च में जब लाॅकडाउन शुरू हुआ था, तब भी लोगों को अंदाजा था कि एक-दो महीने में समय गुजर जाएगा। लोग फेसबुक, वाट्सएप, टीवी को देखने-सुनने में वक्त गुजारते हैं। इस क्रम में कई संस्थाएं और कलाकारों ने अपने लाइव प्रसारण शुरू किया। पर भारतीय प्रदर्श कलाएं ऐसी हैं कि इसमंे कलाकारों को दर्शकों की जरूरत महसूस होती है और दर्शकों को कलाकारों को करीब से देखना-सुनना आत्मसंतुष्टि देता है।
 
इनदिनों हम स्टेज पर प्रोग्राम नहीं कर पा रहे हैं। स्टेज का महत्व और दर्शकों का महत्व हमें बखूबी समझ आने लगा है। स्टेज पर परफाॅर्म करते समय एक-दूसरे से जुड़ा हुआ अनुभव हम करते हैं। सभी प्रोग्राम आॅन-लाइन हो रहे हैं। मार्च में मेरे कई बड़े प्रोग्राम नीदरलैंड और ब्रिटेन में थे। प्रोग्राम से दो दिन पहले वहां से काॅल आए कि कार्यक्रम पोस्टपांड कर दिया गया। पूरी जिंदगी बदल गई है। दो-तीन महीने एक साल कब तक यह स्थिति रहेगी। इसका कुछ पता नहीं। ऐसी अनिश्चितता में थोड़ी उदासी महसूस होती है। उस समय अपने पिता और पति से बातचीत करती हूं। मेरे पिता मेरे शक्ति का आधार हैं। यह चुनौतीपूर्ण है।

 
आप लोगों से कैसे जुड़ रही हैं?
भावना रेड्डी-दरअसल, हम लोगों के लिए घर में रहना मुश्किल नहीं है। हम लोग दिन में घर में ही ज्यादा रहते हैं। हमें अच्छा लगता है। एकांत में सृजनात्मक काम बेहतर होता है। इस दौरान मुझसे अलग-अलग उम्र के लड़कियां, महिलाएं और पुरूष नृत्य सीख रहे हैं। हम सभी क्लास के दौरान आॅन लाइन जुड़ते हैं। उस समय एक-दूसरे को देखकर, बात करके बहुत अच्छा लगता है।
कैमेरा के आगे परफाॅर्म करना जादुई अनुभव नहीं देता, जैसा कि स्टेज पर परफाॅर्म करते हुए होता है। शास्त्रीय नृत्य की मर्यादा है। इस समय फेसबुक लाइव पर कोई प्रोग्राम लेटकर देख रहा है या खाना खाते हुए देख रहा है। हमें पता नहीं। इससे कला के प्रति सम्मान की भावना का हमें पता नहीं चलता है। नृत्य को प्रासंगिक और जीवंत रखने की चुनौती भी हमारे सामने है। हम नृत्य साधना के जरिए अपने आप को दिशा देती हूं। यह मेरे लिए एक चिकित्सक की तरह है। इस समय खासतौर पर जब मैं अपसेट होती हूं तो नृत्य करती हूं या संगीत सुनती हूं।

Friday, July 17, 2020

लाॅकडाउन में कलाकारों का दर्द

                                                लाॅकडाउन में कलाकारों का दर्द

इन दिनों हमारे देश में ही नहीं, पूरे विश्व में लाॅकडाउन का पहरा है। हर घर के दरवाजे खुले हैं। पर लोगों की आवा-जाही बंद है। बंद दरवाजे के पीछे और खिड़की-बालकनी से झांकते लोग, इंतजार में हैं। कब हम सामान्य जिंदगी की ओर लौटेंगें? एक सवाल सबके समाने है। जबकि, कलाकारों की बिरादरी अपनी कला और कला की साधना कर रही है। फिर भी, उनके सामने कई सवाल शेष हैं-जिंदगी के पटरी पर लौटने का, रोजी-रोटी कमाने का, कार्यक्रम के आयोजन का और भी बहुत से सवाल! आज रूबरू में उसी दर्द को कुछ कलाकार बयान कर रहे हैं-शशिप्रभा तिवारी

                                                 उस्ताद अमजद अली खा, सरोद वादक
मेरी तो ईश्वर से प्रार्थना है कि लाॅकडाउन जल्दी खत्म हो। इससे हर फील्ड में मंदी आई है। मेरी दुआ है कि कोरोना पूरे विश्व से फना हो जाए। दुनिया की रौनक फिर से वापस आए। हम दर्शकों के सामने बैठकर, सरोद बजाएं। 
मेरी सरकार से विनती है कि वह कलाकारों को बड़े-बड़े जो सम्मान देती है। उसके बाद, उनकी खबर नहीं लेती है। वह बीमार है या भूखा है या बदहाल। पद्म सम्मान या अन्य सम्मानों के साथ कुछ धनराशि भी दिया जाना चाहिए। यह आज के कलाकारों की जरूरत है। क्योंकि हमें कोई पेंशन तो मिलता नहीं। हम कलाकारों को सांस्कृतिक दूत कहा जाता है, पर हम कोई स्टेटस नहीं है। हमारी आवाज सुनने वाला कोई नहीं है।




विदुषी मालिनी अवस्थी, लोक गायिका
जब लाॅकडाउन शुरू हुआ, मैं कलाकारों की स्थिति को देख-सुन कर चिंतित थी। पर मुझे जिंदगी में चुनौतियां स्वीकार करना अच्छा लगता है। मैंने कोरोना पर एक गीत गाया। इसके बाद लगभग 51एपीसोड लाइव संवाद कार्यक्रम फेसबुक पर किया। फिर हमने अन-आॅरगेनाइज सेक्टर के कलाकारों को आर्थिक मदद करने की सोची। हमने सोचा कि कलाकारों के प्रोग्राम का एक सीजन तो निकल चुका है। इसलिए दूसरे से मदद की उम्मीद के बजाय हमें खुद कुछ करना चाहिए। इसकी चर्चा मैंने फेसबुक के माध्यम से किया। इसमें आरजे रौनक और साहित्यकार व लेखक नील ने मेरी मदद की। हमने लगभग तीस लाख रूपए एकत्र किए। इस रकम से अब तक हम 400 कलाकारों को आर्थिक सहायता दे चुके है। इस समय कलाकारों का मनोबल बना रहे, यह सबसे बड़ी चुनौती है।


अलरमेल वल्ली, भरतनाट्यम नृत्यांगना
हाल की परिस्थितियों में कोरोना आपदा ने हर किसी की जिंदगी को बदल दिया है। हमें अब बेहतर जिंदगी के लिए खुद को बदलना होगा। हमें सोचना होगा कि हमें पर्यावरण के प्रति संवेदनशीलता और चेतना के साथ सोचना होगा। हमें सचेत होना होगा कि हमारे समाज के वंचित और गरीब वर्ग पर दोहरी मार पड़ी है। हमारा देश ही नहीं पूरा विश्व इस त्रासदी के दौर से गुजर रहा है। एक भय और खौफ के माहौल में हम जी रहे हैं। अब हमें बहुत जिम्मेदार नागरिक की तरह अपने जीवन को जीना पड़ेगा। हमें चीजों या सेवाओं के उपभोग के प्रति भी पूरी जिम्मेदारी निभानी होगी।
हमें मानवीय मूल्य सभी के लिए अपनाना समय की मांग है। हमें नई शुरूआत करनी हैं। हम जिस दिशा में बढ़ रहे थे, उसे हमें बदलना होगा। हमें अपने सांस्कृतिक मूल्यों, जीवन मूल्यांे और नैतिक मूल्यों को अपनाना होगा। हमें अपने जड़ों से जुड़ना होगा। इसी में हमारा और देश का कल्याण है। हमें जिम्मेदार नागरिक के तौर पर बार-बार सोचना चाहिए कि हम किधर जा रहे हैं? हमारा समाज या देश कहां और किस ओर जा रहा है? अपनी जरूरतों का पुर्नमूल्यांकन, उनको विंदु केंद्रित और प्राथमिकताओं का मूल्यांकन करना हमारी आदत में शामिल होना जरूरी है।  



पंडित मधुप मुद्गल, शास्त्रीय गायक
दरअसल, आशा और विश्वास से ही दुनिया चलती है। पर कलाकारों की दुनिया कला से ही है। स्थापित कलाकारों का गुजारा तो हो जाएगा। जागरण-जगराते, आॅरकेस्ट्रा या रिकार्डिंंग के लिए काम करने वाले कलाकारों की हालत तो शायद लाॅकडाउन खत्म होने के बाद भी न सुधरे। उनको रोजी-रोटी का जुगाड़ करना मुश्किल होगा। कुछ कलाकारों ने आत्महत्या कर रहे हैं। कहीं मां-बाप को बच्चे घर से निकाल रहे हैं, तो कहीं बीमार बच्चों को मां-बाप। संबंधों और रिश्तों को निभाने का समय है, न कि इन्हें तोड़ने का। मैं अपने शिष्य-शिष्याओं को इन सच्चाइयों से अवगत करवाता हूं। यह समय प्रकृति ने फुर्सत से दिए हैं। इसका सदुपयोग करिए। जमकर रियाज करिए, पुराने रिकार्डिंग सुनिए। अपना, अपने परिवार और समाज का ध्यान रखिए। हमें डरना नहीं है। हमें संभलना है। विश्वास और धैर्य से ही जीवन का पहिया घूमता है। एक स्वामीजी का कहना है कि कोई एक क्षण में है, वह अगले क्षण में नहीं है। यह जीवन क्षणभंगुर है। दुनिया अमर है, दुनिया वाले अमर नहीं है। यह लाॅकडाउन के बाद का कड़ुवा सच होगा। जब हम बहुत से अपनों और गैरों को खो चुके होंगें।   





                                                        विदुषी उमा शर्मा, कथक नृत्यांगना
हम कलाकार कितने भी अंधेरे में जीएं, हमें हर समय कला की रोशनी राह दिखाती है। इस लाॅकडाउन के लगभग डेढ़ महीने बीत गए हैं। शुरू-शुरू में कुछ परेशानी हुई। लेकिन, धीरे-धीरे मैं अपने कथक नृत्य के बारे में फिर से सोचने लगी। कथक नृत्य की उत्पŸिा मंदिर से हुई है। कथक के कलाकार कथावाचन शैली में कथा को बांचते थे और गाते हुए, अभिनय पेश करते थे। कलाकार जब पात्र की भावना को खुद समझकर और महसूस करके अभिनय करता है तो भावनाएं उसके अंदर से निकलती हैं। धीरे-धीरे काफी कुछ बदलता गया। हमारे करियर में एक वो समय आया जब मंच पर कवि या शायर अपनी रचनाओं को पढ़ते थे और मैं उस पर अभिनय पेश करती थी। 
भविष्य तो कोई जानता नहीं क्या होगा? कल अनिश्चितता और अंधकार से भरा है। ऐसे में मुझे गालिब की कुछ पंक्तियां याद आती हैं-‘कोई उम्मीद, कोई सूरत, नजर नहीं आती‘। पर दिल को समझाती हूं कि मेरे अराध्य, मेरे ईश्वर जरूर कोई रास्ता निकालेंगें। हालांकि, आगे सब शून्य है। लेकिन, मेरे दिल से आवाज आती है कि इन पंावों फिर से घुंघरू बांधूंगीं, होठ फिर से नगमों को गाएंगें, फिर से महफिलें सजेंगीं और कलाकारों-दर्शकों का हुजूम होगा। सामने एक प्रश्न चिन्ह जरूर है, पर विराम चिन्ह नहीं। लाॅकडाउन की अंधेरी रात में उम्मीद का एक चिराग जलाए बैठी हूं, कभी तो सवेरा होगा। 

Thursday, July 2, 2020

shashiprabha: ग...

shashiprabha: ग...: गुरु के सानिध्य से ही जीवन संवरा शशिप्रभा ...
गुरु के सानिध्य से ही जीवन संवरा
शशिप्रभा तिवारी

हिंदुस्तानी या कर्नाटक शास्त्रीय संगीत और नृत्य की परंपरा को कायम रखने में गुरू-शिष्य परंपरा का अमूल्य योगदान है। कलाकार चाहे वह परिवार परंपरा के हों या गुरू-शिष्य परंपरा के अंतर्गत हों, सभी पर गुरूओं की कृपा तो होती ही है। इस नजर से देखा जाए, तो गुरूओं की महानता, उनके विद्या दान की प्रवृŸिा अनूठी रही है। शायद, गुरूओं की सदाशयता के कारण ही प्राचीन सांगीतिक परंपरा का सुदीर्ध जीवन कायम रहा है। इसलिए, गुरूओं के महत्व और उनके प्रति आदर व्यक्त करने के भाव का ही दूसरा नाम गुरू पूर्णिमा है। इस अवसर पर हर शिष्य की यह कोशिश रहती है कि वह अपने गुरू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर सके। इसी संदर्भ में कुछ कलाकारों ने अपने गुरूओं को स्मरण करते हुए, अपने विचार व्यक्त किए।

मालविका सरूकई
वरिष्ठ भरतनाट्यम नृत्यांगना मालविका सरूकई ने वैसे तो कई गुरूओं से नृत्य सीखा है। लेकिन, उनके नृत्य पर गुरू कल्याण सुंदरम पिल्लै, राजारत्नम और कलानिधि नारायणन की छाप खासतौर पर पड़ी। मालविका सरूकई अपने गुरू के बारे में बताती हैं कि नृत्य मेरा जीवन है। मैं आम बच्चियों की तरह बचपन से ही नृत्य सीखने लगी थी। मुझे नृत्य की प्रेरणा मां से मिली। मैं मानती हंू कि मेरे नृत्य पर मेरे गुरूओं का प्रभाव रहा है। मुझे श्रृंगार के सौंदर्य का परिचय कलानिधि अम्मा ने करवाया। गुरू कल्याणी सुंदरम से बहुत कुछ सीखा। लेकिन, मां कि एक बात हमेशा याद रहती है कि वह कहती थीं कि अगर आप तलाश करोगे तभी कुछ आपको मिलेगा, तभी आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलेगी। मुझे याद आता है बचपन में जब सात-आठ साल की थी, तब मां मुझे लेकर यामिनी कृष्णमूर्ति, संयुक्ता पाणिग्रही, सोनल मानसिंह जैसे नृत्यांगनाओं के कार्यक्रम में लेकर जाती थी। मैं कुछ समय देखती और कुछ समय सो जाती। जब वो कलाकार नृत्य के क्रम में कुछ खास स्टेप्स पेश करतीं तो मां मुझे हिलाकर जगातीं और उन्हें देखने को कहती। फिर, मैं हौले से जगती और नृत्य देखने लगती। उसी दौरान मुझे बाला सरस्वती जी का नृत्य देखने का अवसर मिला। उनके अभिनय और एक-एक भाव की सूक्ष्म बारीकियां मुझे मन के अंदर तक छू गई.




शुभा मुद्गल
गायिका शुभा मुद्गल ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय और भारतीय पाॅप संगीत जगत में अपनी खास पहचान बनाई है। इलाहाबाद में जन्मी शुभा मुद्गल ने संगीत की शुरूआती शिक्षा गुरू रामाश्रय झा के सानिध्य में ग्रहण किया। फिर, वह राजधानी दिल्ली में पंडित विनयचंद्र मुद्गल, पंडित वसंत ठकार, कुमार गंधर्व और नैना देवी से मार्ग दर्शन प्राप्त किया। उन्होंने खयाल, ठुमरी, दादरा के साथ-साथ हिंदी सिनेमा के गीतों को भी अपने सुरों में ढाला है। गायिका शुभा मुद्गल अपने गुरूओं के बारे में बताती हैं कि मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे कई गुरूओं का प्रेम और सानिध्य मिला। मुझे नहीं लगता कि मैं अपने गुरूजनों की बराबरी करने का दुस्साहस तो मैं कभी नहीं कर सकती, लेकिन, प्रयास तो हम सब करते हैं कि जिस उदारता से हमारे बुजुर्गों ने हमें सिखाया और तैयार किया, उस परंपरा को हम कभी धूमिल या शिथिल नहीं होने देगें। मैं और अनीशजी अपने घर पर निशुल्क विद्यार्थियों को सिखाते हैं। हम गर्व से कह सकते हैं कि हमारा शिष्य परिवार बड़ी लगन से मेहनत करने में जुटा हुआ है।
शास्त्रीय गायिका शुभा मुद्गल कहती हैं कि दरअसल, मैंने गुरूओं से सुना है कि वह बारह-बारह घंटे तक रियाज करते थे। जब तक कि पसीने-पसीने न हो जाएं या सुबह से दोपहर न ढल जाए। लेकिन समय के साथ बहुत-कुछ बदला हैं। हालांकि, अब उतने घंटे तो किसी के लिए रियाज कर पाना मुश्किल है। क्योंकि, उस समय की जीवन शैली और आज के कलाकारों की जीवन शैली और दुनियादारी में काफी बदलाव आ गया है। इससे कलाकार भी अछूते नहीं हर सकते हैं। यह सच है कि हमारा रियाज करे बिना तो काम चलता नहीं, लेकिन रियाज करने की विधि-अवधि आदि हर कलाकार अपने लिए सुनिश्चित करता है। लेकिन, रियाज, चिंतन, अभ्यास, सुनना, पढ़ना आदि हर संगीत के विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य है, चाहे उसे कलाकार का दर्जा प्राप्त हो या न हो। एक उम्र के बाद वरिष्ठ कलाकारों के लगातार कार्यक्रम और यात्रा का दौर चलता है, तो उसमें घंटों रियाज की वह जरूरत नहीं रह जाती है। पर, ग्रीन रूम में या प्रोग्राम से पहले कुछ-कुछ तो योजना बनानी पड़ती है। इसके लिए किसी से किसी तरह की शिकायत नहीं रह जाती। यह तो अनुभव की बात हो जाती है। इस बात को तो सभी स्वीकारते हैं कि रियाज के बिना परफाॅर्मिंग आर्ट में काम नहीं चल सकता।




रोनू मजूमदार
संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित बांसुरी वादक रोनू मजूमदार ने गुरु पंडित विजय राघव राव और पंडित रविशंकर के सानिध्य में बांसुरी वादन सीखा। पंडित रोनू मजूमदार मानते हैं कि उनके तीनों गुरूओं ने मुझे बहुत कुछ दिया। आज बदलते समय में हमारे समाज की और हम कलाकारांे सभी की मान्यताएं काफी कुछ बदली हैं। वह बताते हैं कि पहले जब हम लोग सीख लेते थे, घर में बैठकनुमा महफिलें होती थीं। जिसमें नए व उभरते हुए कलाकार अपनी कला को वरिष्ठ कलाकारों के सामने पेश करके मार्ग-दर्शन लेते थे। इसी बहाने नई बंदिशें, लय और ताल के बारे में जानकारी हासिल हो जाया करती थी। आज हम किसी युवा कलाकार से पूछें कि आप को फलां राग की फलां बंदिश आती है। अगर उसका जवाब नहीं में है। और हम उसे सलाह दें कि आप को उन गुरू के पास जाकर इसे सीख लेना चाहिए, वह इसे बहुत अच्छा गाते हैं या बजाते हैं। इस पर उनका जवाब होगा कि गूगल पर सर्च कर लूंगा। सच तो यह है कि इस जल्दीबाजी के जमाने में समय किसके पास है। ये लोग गूगल को सब कुछ मानने लगे हैं।
हमारी पीढ़ी या कई पीढ़ियों का सौभाग्य रहा कि उन्हें गुरूओं के सानिध्य में रहकर सीखने का मौका मिला। आज स्काइप, इंटरनेट, गूगल के जरिए लोग शास्त्रीय संगीत सीखने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, गुरू-शिष्य परंपरा की अपने मूल्य और नियम हैं। वह खत्म तो नहीं होगा। पर समय के साथ सामांनांतर बहुत कुछ चलता रहेगा। शास्त्रीय संगीत गुरूमुखी विद्या है। इसे आप गुरू के सामने बैठकर सीखते हैं, तो गुरू एक-एक सुर, एक-एक स्वर के बारे में आपको अवगत कराते हैं। वह बात स्काईप पर सीखने वाले को बताने में दिक्कत आती है। क्योंकि मैं अमेरिका में स्काईप के जरिए क्लास लेता हूं, तो मुझे खुद कई बार संतुष्टि नहीं होती है। मुझे लगता है, इसमें शक नहीं कि जो गुरू के सानिध्य में रहकर सीखेगा, वह तो आने वाले समय में बाजी मारेगा ही। लेकिन, हम कुछ तय नहीं कर सकते। इनमें से कौन सफल कलाकार बन पाएगा, यह तो जनता तय करेगी और उनकी किस्मत तय करेगा।







पंडित हरिप्रसाद चैरसिया
पद्मविभूषण पंडित हरिप्रसाद चैरसिया ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में बांसुरी वादन को पराकाष्ठा पर पहुंचाया है। न सिर्फ भारत में, बल्कि विदेशों में उनके अनेक शिष्य-शिष्याएं हैं, जो आज भी उनसे संगीत की बारीकियां सीख रहे हैं। उन्होंने अपने गुरूकुल की स्थापना नीदरलैंड और कटक में की है। वह अपने गुरू के संदर्भ में बताते हैं कि इलाहाबाद में ही मेरा पहला परिचय महान संगीतज्ञ उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब से हुआ। वहां रेलवे स्टेशन के पास होटल प्रयाग हुआ करता था। उसके मालिक रामचंद्र जयसवाल थे। उनदिनों रेडियो स्टेशन में अपनी रिकार्डिंग करवाने जो बड़े कलाकार वहां आते थे, उसी होटल में ठहरते थे। संयोग से मैं वहां पहंुचा तो काॅरिडोर में खड़ा हुआ था, तभी किसी के वायालिन बजाने की धुन मेरे कान में पड़ी। मैं वही कमरे के बाहर बैठकर सुनने लगा। वह दोपहर का समय था, कमरे का दरवाजा खुला हुआ था, मेरी परिछाई बाबा के दरवाजे पर पड़ रही थी, जिससे उस्तादजी को लगा कि बाहर कोई है। सो उन्होंने मुझे आवाज देकर अंदर बुला लिया। फिर, पूछा, ‘तुम क्य करते हो?‘ मैंने बाबा को बताया कि मैं पढ़ता हूं, गाता हूं। लेकिन आवाज अच्छी नहीं है, इसलिए बांसुरी बजाना मुझे अच्छा लगता है। फिर, उन्होंने मुझे बांसुरी बजाने के लिए कहा। मेरी बांसुरी सुनकर बाबा ने कहा कि मेरे साथ मैहर चलो या पढ़ाई खत्म हो जाए तो वहां आ सकते हो। अगर किसी वजह से मैं वहां नहीं मिला तो तुम मेरी बेटी अन्नपूर्णा से सीख सकते हो। वह तुम्हें सिखा देगी।
यह सच है कि गुरू के ज्ञान प्रकाश से ही शिष्य का जीवन आलोकित होता है। गुरू के बिना ज्ञान आज भी संभव नहीं है। वैसे भी भारतीय शास्त्रीय कलाएं गुरू मुखी विद्या है। यह गुरू के सानिध्य और शरण में गए बिना सीख पाना आसान नहीं है और नहीं संभव है।