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Friday, April 24, 2020

shashiprabha:                                          गालि...

shashiprabha:




                                         गालि...
:                                          गालिब के बहाने-प्रतिभा सिंह, कथक नृत्यांगना कथक नृत्यांगना प्रतिभा सिंह पटना में जन्मी और प...





                                         गालिब के बहाने-प्रतिभा सिंह, कथक नृत्यांगना

कथक नृत्यांगना प्रतिभा सिंह पटना में जन्मी और पली-बढी हैं। उन्हें कला की समझ अपने घर में ही मिली। शुरू में उन्होंने पटना में कथक नृत्य सीखना शुरू किया। बाद में,  उन्होंने गुरू बिरजू महाराज और गुरू जयकिशन महाराज से कथक नृत्य सीखा है। कला मंडली रंगमंडली की निर्देशक प्रतिभा सिंह को साहित्य कला परिषद सम्मान और विष्णु प्रभाकर कला सम्मान से सम्मानित हैं। उन्हें संस्कृति मंत्रालय की ओर से जूनियर फेलोशिप और अमूर्त धरोहर फेलोशिप भी मिल चुके हैं। वह निरंतर अपने सफर को जारी रखीं हुईं है। वह एक ओर कथक नृत्य आम बच्चों के साथ किन्नरों को नृत्य सीखाती हैं। साथ ही, वह रंगमंच के लिए उत्साहित होकर काम कर रही हैं। वह लोक कलाओं को रंगमंच से जिस तरह जोड़ती हैं, उससे यह सहज भान होता है कि उनकी दृष्टि कहीं न कहीं रंगमंच के बादशाह हबीब तनवीर से प्रभावित हैं। इस बार प्रतिभा सिंह से बातचीत के अंश प्रस्तुत हैं-शशिप्रभा तिवारी

आप अपने गुरूओं को किस नजरिए से देखती हैं,?

प्रतिभा सिंह-गुरू-शिष्य परंपरा में गुरू शिष्य को गढ़ते हैं। वह जीवन की हर सूक्ष्मता से अवगत कराते हैं। बाकी तो शिष्य की मानसिक क्षमता पर निर्भर करता है कि वह आगे का अपना सफर किस तरह से तय करता है। वैसे कला तो गुरू शिष्य और परिवार परंपरा में एक दूसरे के साथ ही फलता-फूलता है। जिस परिवार में गुरू के शिष्य को महत्व दिया जाता है, वहां कला समृद्ध होती है। खून के रिश्तों और परिवार परंपरा में तो कलाएं विकसित होती हैं। सुरक्षित रहती ही है। दोनों ही एक शरीर के अंग-प्रत्यंग की तरह ही हैं। कलाकार अपनी साधना से पूर्वजों की थाती को सींचता है। तभी कला प्रवाहमान होती है। और उस कला की सरिता में हर पीढ़ी रसपान और स्नान कर पाती है।


आप दिल्ली कब आईं?

प्रतिभा सिंह-नब्बे के दशक में राजधानी दिल्ली की ओर अपना रूख किया। कथक केंद्र, दिल्ली में कथक की तालीम ले रही थीं। साथ ही, मंडी हाउस की हर सांस्कृतिक हलचल का भी हिस्सा बनतीं थीं। जहां एक ओर उनकी सुबह से दोपहर तक का समय कथक केंद्र में बीतता तो दूसरी ओर उनकी शामें कमानी, एनएसडी या श्रीराम भारती सेंटर में नाटक देखते या संगीत या नृत्य का कार्यक्रम देखने में बीतता।

आपके घर में सांस्कृतिक माहौल था, इस संदर्भ में कुछ बताएं?

प्रतिभा सिंह-पिताजी उमेश प्रसाद सिंह ‘कला संगम‘ समूह से जुड़े हुए थे। वह रंगमंच के प्रसिद्ध कलाकार थे। उन्होंने उस्ताद अहमद जान थिरकवा से तबला वादन भी सीखा था। पिताजी ने ‘हे गंगा मईया तोहे पियरी चढइबो‘ जैसे भोजपुरी फिल्म में काम भी किया था। प्रतिभा के पिता रंगमंच से जुड़े रहे हैं। सो उनके घर में जोकू महाराज, गुदई महाराज, किशन महाराज, कुमार बोस का आना-जाना लगा रहता था। पटना में कार्यक्रम में भाग लेने जो कलाकार आते थे, वह उनके घर पर ही ठहरते थे। इस संदर्भ में प्रतिभा बताती हैं कि एक बार गुदई महाराज घर पर ठहरे हुए थे। उन्होंने बैठक में तबले और तबले वादन पर चर्चा शुरू कर दिया। मैं भी वहीं बैठी थी, उनके बताए कई तिहाई मुझे याद हो गए। उन्होंने मुझे कुछ नोट भी करवाया था। अक्सर, मधुकर आनंद, जितेंद्र महाराज, गीतांजलि लाल, पंडित बिरजू महाराज के नृत्य को देखने का अवसर मिलता था। मैं पहली बार, जब महाराजजी का मयूर की गत देखी तो दंग रह गई। उस समय मैंने तय किया कि महाराजजी से कथक नृत्य सीखना ही सीखना हैै।






पंडित बिरजू महाराज के सान्निध्य का प्रभाव आप पर है। इसे आप कैसे महसूस करती हैं?

प्रतिभा सिंह-बतौर गुरू महाराजजी के सान्निध्य में रहकर सीखना, अपनी जिंदगी को संवारने की तरह था। लेकिन, गुरू जयकिशन महाराज से कथक की हर बारीकी को सीखने का अवसर मिला। क्योंकि जयकिशन महाराज जिन्हें हम लोग प्यार से चीकू भईया कहते हैं, उनकी उदारता गजब की है। महाराजजी कार्यक्रम के सिलसिले में ज्यादा व्यस्त रहते थे। इसलिए, हमलोगों का ज्यादा समय चीकू भईया के साथ बीतता। उनसे कोई तिहाई या टुकड़े के बारे में चर्चा करना हम लोगों के लिए आसान होता था। वैसे महाराजजी से झप  ताल में पिराए गए, एक नगमे को सीखा था। वह कभी भूलता नहीं है। पिछले वर्ष कुंभ के दौरान नृत्य समारोह में नृत्य रचना शिव शक्ति पेश किया। वहां लोगों ने फरमाईश किया कि अब होली पर एक नृत्य पेश किया जाए। मैं लाइव म्यूजिक पर नृत्य कर रही थी। गायक ने होली की रचना ‘यशोदा के लाल खेले होली‘ पर गाया और मैंने भाव पेश किया।

परंपराएं हमारी पहचान हैं। क्या आप ऐसा मानती हैं?


प्रतिभा सिंह-परंपराएं चलती हैं। सौ साल तक कोई भी विधा या नृत्य तकनीक एक पीढ़ी-दर-पीढ़ी जारी रहता है, वही तो परंपरा बन जाता है। भरतमुनि ने भी कभी नाट्यशास्त्र लिखा गया है। धीरे-धीरे यह परंपरा का रूप बन गया। शैली, क्राफ्ट, डिजाइन के जरिए मंच को रंगमंच बनाया। नृत्य एक ऐसा माध्यम है, जो जोड़ देता है कि  रंगमंच को नाटक, कथक, वाचिक नहीं होती है। हम कथक में आंतरिक भाव तो नृत्य में दिखा देते हैं। रंगमंच पर देखती हूं। कला जगत में साहित्य का खास महत्व है। अगर, मैं कबीर को पढ़ती हूं। उनकी रचना पढ़ने के साथ-साथ पंडित कुमार गंधर्व, पंडित मधुप मुद्गल, विदुषी शुभा मुद्गल, प्रहलाद टिपाणिया आदि का गायन सुनती हूं। इसके बाद, कहानी को अपनी परिकल्पना में आकार देती हूं। फिर, अपने साथी कलाकारों से चर्चा करती हूं। फिर, नाटक की पृष्ठभूमि, कथा, गीत, संवाद सबको पिरोती हूं।

Thursday, April 9, 2020

shashiprabha: कला एकांत साधना है-पूर्वा धनाश्री

shashiprabha: कला एकांत साधना है-पूर्वा धनाश्री:                                                कला एकांत साधना है-पूर्वा धनाश्री युवा नृत्यांगना पूर्वा धनाश्री अपनी अनूठी प्रतिभा क...

कला एकांत साधना है-पूर्वा धनाश्री





                                               कला एकांत साधना है-पूर्वा धनाश्री


युवा नृत्यांगना पूर्वा धनाश्री अपनी अनूठी प्रतिभा के लिए जानी जाती है। उन्होंने भरतनाट्यम नृत्य गुरू कमलिनी दत्त और राधिका सुरजीत से सीखा है। जबकि, गुरू स्वप्नसंुदरी से उन्होंने विलासिनी नाट्यम नृत्य सीखा। लगभग लुप्तप्राय नृत्य शैली विलासिनी नाट्यम को उनकी गुरू ने देवदासी परंपरा की देवदासियों से सीधे सीखा। यह नृत्यांगना पूर्वा का सौभाग्य है। वह अपनी गुरू से सीखकर, इस विरासत को बखूबी संजोया। यह चुनौती पूर्ण है। आज रूबरू में हम पूर्वा धनाश्री से रूबरू हो रहे हैं-शशिप्रभा तिवारी





भारतीय शास्त्रीय नृत्य क्या है?

पूर्वा धनाश्री-शास्त्रीय नृत्य संवाद की सशक्त भाषा है। यह कला की अन्य विधाओं, मसलन-संगीत, साहित्य, शिल्प, चित्रकला का क्रिस्टल रूप है। नृत्य जीवन जीने के सलीके के साथ-साथ जीवन का दर्शन भी है। नृत्य हमें जीवन के विशद यथार्थ से परिचित करवाता है। वास्तव में, यह दृश्यमान कविता की तरह है। यह एक अमूल्य परंपरा है, जिस धरोहर को एक पीढ़ी-दूसरी पीढ़ी को गुरू-शिष्य परंपरा के जरिए सौंपती रही है। नृत्य कहीं न कहीं हमारे समकालीन समाज की रचनात्मक अभिव्यक्ति का भी एक रूप है। यह समाज का दर्पण है। इसके साथ ही, यह स्वंय से परिचित होने का सुवसर देती है। जिसे दूसरे शब्दों में, हम इसे आत्मबोध कहते हैं। हमारे जीवन के बोध, अनुभव, अध्यात्म और विशेष अनुभूतियों को नृत्य के जरिए वाणी मिलती है।

क्या शास्त्रीय नृत्य आत्मबोध की एक सतत् यात्रा है?

पूर्वा धनाश्री-दरअसल, मेरा अनुभव है कि हम नृत्य के जरिए हर पल अपना आत्मविश्लेषण करते हैं। नृत्य सीखते हुए या नृत्य करते हुए, हम अपनी ही संवेदनाओं, भावनाओं, चेतना और रचनात्मकता को एक नया आयाम दे रहे होते हैं। वास्तव में, शास्त्रीय नृत्य के जरिए अपने भीतर के जुनून, संघर्ष, दर्द, प्रेम, भक्ति की कथा का दैहिक वाचन कलाकार करते हैं।

शास्त्रीय नृत्य हमारी अमूर्त कलात्मक धरोहर है। मैंने भरतनाट्यम और विलासिनी नाट्यम दोनों शैलियों के नृत्य को सीखा है। विलासिनी नाट्यम नृत्य सीखने के लिए मुझे दृढ़ विश्वास और मेहनत करने की जरूरत पड़ी। विलासिनी नाट्यम को सीखने के दौरान मुझमें काफी भावनात्मक बदलाव आए। इसे मैं महसूस करती हूं। इसने मेरी सोच और मेरे जीवन को एक नई दिशा़ दिया। वह दौर मेरे आत्मबोध का समय था। उसी की वजह से आज जो मैं हूं वह हूं।


शास्त्रीय नृत्य की विशुद्धता को कायम रखना क्या एक चुनौती है?

पूर्वा धनाश्री-दरअसल, शास्त्रीय संगीत या नृत्य में संपूर्ण विशुद्धता जैसी कोई चीज संभव है ही नहीं। प्रकृति में भी विभिन्न तत्व मौजूद हैं। पर सबका अस्तित्व आपसदारी से ही संभव है। यह एक सापेक्ष सत्य है। हम जब भी पूर्ण विशुद्धता की बात करते हैं, तो संभव है कि वह स्वयं अपनी उपस्थिति के साथ इम्प्योरिटी को स्वीकार करता है। शास्त्रीय नृत्य के संदर्भ में,  कलाकार, दर्शक, संरक्षक, समीक्षक सभी का समेकित दृष्टिकोण विशुद्धता को लेकर है। और विशुद्धता की यह परिभाषा समय के साथ बदलती रहती है। मैं समझती हूं कि कलाकार, दर्शक या समीक्षक सभी अपने समय के अनुरूप कला को देखते और परखते हैं। यह सब भी व्यक्ति विशेष की नजरिए, अंतःकरण, कला के प्रति आस्था-विश्वास पर भी निर्भर करता है कि वह अपनी समझदारी और अंर्तयात्रा का विशद विवेचन के जरिए विशुद्धता नहीं वरन् ‘सत्व‘ को अपनी कला में अभिव्यक्त करते हैं। वास्तव में, नृत्य की ‘आत्मा‘ अथवा ‘सत्व‘ को कोई गुरू किसी शिष्य को न ही सीखा सकता है और न उस पर थोप सकता है। यह तो कोई भी कलाकार सिर्फ समर्पण और आस्था के जरिए अपनी कला में अभिव्यक्त करता है।

वैसे भी कलाकार एकांत में साधना जरूर करते हैं। लेकिन, वह शून्य में नहीं रहते। वह भी समाज के ही अंग हैं। मैं जहां तक समझ पाती हूं, कला की विशुद्धता को कायम रखने की जिम्मेदारी गुरूओं के महती कंधों पर है। वह अपने शिष्य-शिष्याओं को नृत्य शिल्प से परिचित करवाते हैं। गुरूओं को यह अंदाज होता है कि उनके शिष्य-शिष्याओं की ग्रहणशक्ति कितनी और कैसी है। उनकी क्षमता के अनुरूप ही आत्म विश्लेषण के लिए वह प्रेरित कर सकते हैं। ताकि, नृत्य सीखने वाले न सिर्फ नृत्य के तकनीकी पक्ष से अवगत हों, बल्कि कला की विशुद्ध गहराई और उसकी आत्मा को भी तलाश कर सकें।

विलासिनी नाट्यम नृत्य शैली पर कुछ प्रकाश डालें?

पूर्वा धनाश्री-विलासिनी नाट्यम देवदासी परंपरा की नृत्य शैली है। इसे देवदासी मंदिर की सेवा में प्रस्तुत करती थीं। मेरी गुरू ने देवदासी गुरू मदुला लक्ष्मीनारायण से सीखा। गुरूजी बताती हैं कि उनकी गुरू मदुलाजी ने उन्हें हाथ पकड़कर नृत्य नहीं सिखाया। सच तो यह है कि गुरू मदुलाजी नहीं चाहती थीं कि उनकी शिष्या ‘क्लोन‘ बनें। क्योंकि, दो नृत्यांगना समरूप नृत्य नहीं कर सकतीं। यहां तक कि दो देवदासी भी एक जैसा नृत्य नहीं कर सकती।

आज के समय में तो नृत्य सीखना, देखना और प्रस्तुत करना आसान हो गया हैं। आज के समय की मांग है कि सभी कलाकार एकजुट होकर नृत्य परंपराओं का संरक्षण और संवर्द्धन करें। हम सभी कलाकार एक-दूसरे के प्रयास की सराहना करें। एक साथ मिलकर काम करें। इससे न सिर्फ कला की गरिमा को पुर्नस्थापित किया जा सकेगा, बल्कि कलाकारों का उत्साहवर्द्धन भी होगा।   

Thursday, April 2, 2020

shashiprabha: बांसुरी ने जीवन की समझ दी-चेतन जोशी, बांसुरीवादक

shashiprabha: बांसुरी ने जीवन की समझ दी-चेतन जोशी, बांसुरीवादक:                               बांसुरी ने जीवन की समझ दी-चेतन जोशी, बांसुरीवादक पहाड़ों, घाटियों, नदियों, झरने, जंगल और हरी-भरी वादियों...

बांसुरी ने जीवन की समझ दी-चेतन जोशी, बांसुरीवादक





                              बांसुरी ने जीवन की समझ दी-चेतन जोशी, बांसुरीवादक

पहाड़ों, घाटियों, नदियों, झरने, जंगल और हरी-भरी वादियों वाले झारखंड की प्राकृतिक सुष्मा आकर्षक है। यहां की हसीन वादियों में आदिवासी समुदाय के संगीत और मांदर के थाप गूंजते रहते हैं। इसके अलावा, अन्य समुदायों के लोग, लोक और शास्त्रीय कलाओं से भी जुड़े हुए हैं। हालांकि, इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि झारखंड में अब तक शास्त्रीय संगीत व नृत्य के लिए वह परिवेश तैयार नहीं हो पाया, जैसी अपेक्षा थी। फिर भी, कुछ कलाकारों ने अपनी मेहनत से अपनी पहचान कायम की है। ऐसे ही कलाकार हैं, बोकारो शहर के निवास-बांसुरीवादक चेतन जोशी। इस बार रूबरू में उनसे बातचीत पेश है-शशिप्रभा तिवारी


आप संगीत को अपना जीवन मानते हैं। ऐसे में आपके लिए गुरूओं का यह महत्व रहा है?

चेतन जोशी-हकिसी वजह या व्यस्तता के कारण अगर वह रियाज नहीं कर पाता हूं या बांसुरी एक दिन भी नहीं बजा पाता हूं तो मुझे लगता है कि आज मुझसे कोई बहुत बड़ी गलती हो गई है। मेरा मन उदास हो जाता है। मैंने शुरू में पंडित ओंकारनाथ ठाकुर के शिष्य आचार्य जगदीश से बांसुरी वादन सीखा। उसी दौरान इलाहाबाद में आयोजित अखिल भारतीय संगीत प्रतियोगिता में भाग लेने गया। वहां पंडित भोलानाथ प्रसन्ना से परिचय हुआ। तब मैंने पहली बार बड़े आकार का बांसुरी देखा था। उस परिचय के बाद मैंने पंडित भोलानाथ प्रसन्ना का शिष्यत्व ग्रहण किया। उनके न रहने पर मैं मुम्बई गया और पंडित रघुनाथ सेठ से मार्ग दर्शन लिया। इसके बाद, मैंने कुछ सालों तक पंडित अजय चक्रवर्ती से भी सीखा। मुझे लगता है कि कलाकार को अगर आगे बढ़ने की चाहत है तो सीखने का शौक बराबर बनाए रहना चाहिए।

एक कलाकार में किस तरह के गुणों का होना जरूरी है?

चेतन जोशी-दरअसल, मुझे लगता है कि अस्तित्व, अस्मिता और अहंकार कलाकार के लिए जरूरी है। कलाकार का अस्तित्व अथव ‘इजनेस‘ बना रहना चाहिए। यह जरूरी है। इसका रक्षण होना चाहिए। अगर, कलाकार ही नहीं रहेंगें तो बचेगा ही क्या? यह सबके लिए अच्छा है-कलाकार, परिवार, समाज, देश, विश्व सबके लिए। दूसरी है-अस्मिता। मैं इस विधा का या उस विधा का कलाकार हूं। मेरी अस्मिता है, तभी मैं रियाज करूंगा, तभी मैं देश या समाज के लिए कुछ सोच पाऊंगा या कर पऊंगा। मैं कुछ हूं। ‘आई एमनेस‘ यानि अस्मिता। यह कलाकार की इंडिविजुवलिटि एवं क्रिएटिविटी को एक नई दिशा मिलती है।

तीसरी चीज है-अहंकार। मामला यहां फंसता है। यह अहंकार भावनाओं के निर्माण का एक महत्वपूर्ण तत्व है। यह भागवत गीता में भी बताया गया है। हमारा जब अस्तित्व आता है, इस संसार में भावनाएं आकार लेती हैं। उन पंच तत्व के साथ अहंकार का तत्व होता है। तभी आपका यह रूप अस्मिता को जागृत करता है। यह हमारे अस्तित्व के लिए जरूरी ज्यादा है। अहंकार नहीं होगा तो हम खाना नहीं खाएंगें। आप खुद को मिटा देंगें। अहंकार ज्यादा हो जाता है, तो खतरनाक है। हमारे ऋषि-मुनियों ने बताया है कि अहंकार ज्यादा बढ़ जाएगा तो क्या करें? अपने अहंकार को किसी बड़ी सत्ता में विलीन कर देंना होगा।





कला क्षेत्र में सहज प्रचलित है। इस ओर हमारा ध्यान नहीं जाता है। हमसे कोई हमारे बारे में पूछता है तो हम अपने परिचय में अपना नाम व काम बताकर कहते हैं कि हम फलां गुरू के शिष्य है। जैसे मैं बांसुरी बजाता हूं। मैं पंडित रघुनाथ सेठ का शिष्य हूं। यह सुनकर सामने वाले के मन में सहज ही आपके प्रति एक श्रद्धा का भाव आ जाता है। साथ ही, मेरा मन भी गुरू के प्रति श्रद्धा-विनम्रता का भाव जाग जाता है। यानि मेरे से व्यक्तित्व से बड़ी सत्ता है मेरे गुरू की। यह बड़ी सामान्य-सी बात है। ऐसे में यह परंपरा अहंकार को विलीन कर के हमारी अस्मिता की रक्षा करता है। वह अहंकार सार्थक होता है और एक सकारात्मक दिशा में जाता है। जैसे ही अहंकार हमारे तक सीमित हो जाता है, वैसे ही हम कहते हैं कि हमारा तो कोई गुरू ही नहीं है। मैंने तो ऐसे ही सीख लिया। अपने ही दम पर किया है। इस स्थिति में अहंकार बहुत बढ़ जाता है। अहंकार जब बड़ा रूप लेता है, तब वह घातक है। यह सर्वविदित है कि जब रावण जैसे ज्ञानी का अहंकार नहीं रहा तो हम तुच्छ कलाकार क्या हैं? क्योंकि रावण और राम में अंतर अहंकार का ही तो था। राम समर्थवान थे। फिर भी, उन्होंने भगवान शिव की अराधना किया। ताकि अपने अहंकार को शिव और शक्ति में विलीन कर रहे हैं। अब मेरी जीत और हार की जिम्मेदारी उनकी है। लेकिन, रावण ने ऐसा नहीं किया। 


युवा कलाकारों को शास्त्रीय संगीत और नृत्य के प्रति रूझान पैदा करने के लिए क्या किया जा सकता है?

चेतन जोशी-युवाओं की दो श्रेणी है। एक जो परफाॅर्मर बनना चाहते हैं और दूसरे जो अच्छे श्रोता बन सकते हैं। मेरा मानना है कि अगर आप किसी कार्यक्रम में शास्त्रीय कलाओं को देखने या सुनने जाते हैं तब आप अपनी पांच हजार साल पुरानी परंपरा से जुड़ते हैं। हमारी परंपरा इतनी सशक्त है कि गांव या शहर कहीं भी बांसुरी वादन पेश करता हूं तब वाह! या क्या बात है! सहज ही सुनने को मिलता है। इसका मतलब तो यही है कि लोगों को शास्त्रीय संगीत पसंद आता है या अच्छा लगता है।