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Thursday, July 11, 2013



मैं चली जा रही थी
उस ओर जहाँ

कोयल कूकती थी
 मोर मेघ निहार रहा था

मेरे कानों में
तुम्हारी आवाज़ आई

मैं उधर ही चल दी
बहुत जतन से संजोया सपना

कई संकल्पों की दुनिया
ख्वाहिशों के समंदर में तिरती है मन की नाव

खुद से संवारना
जब यह  नाव तुम्हारे गाँव के किनारे रुके

तब फिर से मन की
नई बस्ती बसाएँगे फूलों की खुशबू से तर

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