Popular Posts

Sunday, November 14, 2021

shashiprabha: कलाएं-संवाद का सशक्त माध्यम ---शशिप्रभा तिवारी

shashiprabha: कलाएं-संवाद का सशक्त माध्यम ---शशिप्रभा तिवारी:     कलाएं-संवाद का सशक्त माध्यम  शशिप्रभा तिवारी बंगाल के घर-घर में जिस तरह से रवींद्र संगीत-नृत्य के सुर-ताल गंूजते हैं, वैसे ही असम में सत...

कलाएं-संवाद का सशक्त माध्यम ---शशिप्रभा तिवारी



 


 कलाएं-संवाद का सशक्त माध्यम 

शशिप्रभा तिवारी

बंगाल के घर-घर में जिस तरह से रवींद्र संगीत-नृत्य के सुर-ताल गंूजते हैं, वैसे ही असम में सत्रीय संगीत-नृत्य गंूजते हैं। असम में लगभग हर परिवार में सत्रीय नृत्य व संगीत के प्रति अनुराग है। ग्रामीण अंचल के आश्रम स्वरूप सत्रों में सत्रीय नृत्य पला-बढ़ा है। हालांकि, असम में शास्त्रीय नृत्य के संरक्षण और संवर्द्धन के लिए कलाकार जुड़े हुए हैं। इस संदर्भ में, रंगायन संस्था की पहल सराहनीय है। रंगायन की संस्थापिका डाॅ शारोद सैकिया हैं। रंगायन फेस्टीवल आॅफ आर्ट एंड लिटरेचर का यह तीन दिवसीय आयोजन था। 

सत्रीय नृत्यांगना डाॅ शारोदी सैकिया बताती हैं कि सत्रीय नृत्य के अलावा, अन्य शास्त्रीय नृत्य शैलियों से असम के दर्शक जुड़ें। मैं मानती हूं कि कला और साहित्य की सभी विधाएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं की जा सकती है। रंगायन उत्सव में शास्त्रीय नृत्य का समारोह रंग छंद आयोजित किया गया। इसमें ओडिशी नृत्यांगना अंजना मई सैकिया, कुचिपुडी नृत्यांगना टी रेड्डी लक्ष्मी, मोहिनीअट्टम नृत्यांगना जयप्रभा मेनन, कथक नृत्यांगना रूपारानी दास बोहरा और सत्रीय नृत्यांगना मीरनंदा बड़ठाकुर ने भागीदारी की। इसके अलावा, इस आयोजन में कथा रंग, चित्रकथा, रंग चर्चा, रंग कल्प, मुक्त रंग शामिल थे। इसमें चित्रकला, साहित्य, कविता, नाटक सभी विधाओं के कलाकार शिरकत करते रहे हैं।

                                              

शारोदी सैकिया मानती हैं कि सत्रीय नृत्य के प्रशिक्षण की कोई समेकित व्यवस्था नहीं है। सत्रों में परम्परा कायम है। वहाँ संगीत, नृत्य, वाद्यों, साहित्य सभी को समान महत्व दिया जाता है। जबकि, शहरों में सत्रीय के प्रशिक्षण संस्थाओं में ऐसा लगता है कि सब को अलग-अलग कर दिया गया है। इससे कई कलाकार अपनी क्षमता के अनुरूप चीज़ों को ग्रहण नहीं कर पाते। साथ ही नृत्य में उथलापन नज़र आता है। आजकल बच्चों से ज़्यादा जल्दी, माता-पिता का बच्चों को मंच पर पहुँचाने की हड़बड़ी है, जो कला की दृष्टि से सही नहीं है। साथ ही, सत्रों की आर्थिक स्थिति पर सरकार को विचार करना होगा। ताकि सत्र के युवा ब्रह्मचारी, वहाँ से पलायन कर, शहर की ओर रुख नहीं करें। तभी इसकी शुद्धता को कायम रखा जा सकता है। 

शारोदी सैकिया बताती हैं कि प्र्रोसीनियम या मंच के लिए तैयार की गई सत्रीय प्रस्तुतियाँ, बिना अपने आवश्यक गुणों के, कई बार अर्थहीन और भावहीन प्रतीत होती हैं। मुझे लगता है कि भातिमा, श्लोक और यहाँ तक कि धेमाली को भी मंच पर मोहक अंदाज़ में पेश किया जा सकता है। पहले तो ज़्यादातर सामूहिक सत्रीय प्रस्तुतियाँ ही होती थीं लेकिन गुरु रसेस्वर सैकिया ने मुझे हमेशा एकल नृत्य के लिए ही प्रेरित किया। जिससे भरतनाट्यम् और अन्य नृत्य शैलियों की तरह उसे भी सीखना और मंच पर पेश करना आसान हो जाए। 

रंगायन उत्सव में रंग छंद समारोह में ओडिशी नृत्यांगना अंजनामोई ने शिरकत किया। अंजनामोई ने ओडिशी नृत्य गुरू पवित्र कुमार प्रधान और गुरू केलुचरण महापात्र से सीखा है। उन्होंने प्रतिमा गौरी बेदी के सानिध्य में कई वर्षों तक नृत्य साधना की। अंजनामोई बताती हैं कि शुरू-शुरू में गुवाहाटी में ओडिशी नृत्य सीखती थी। फिर, छुट्टियों में भुवनेश्वर जाती। वहां गुरू जी से नृत्य सीखा। मेरी पहली मुलाकात प्रतिमा गौरी जी से दिल्ली में हुई थी। उन्होंने नृत्यग्राम बुलाया। उनके साथ काम करने का लंबा अवसर मिला। इनदिनों मैं सुजाता महापात्र से मार्ग दर्शन ले रही हूं।



ओडिशी नृत्यांगना अंजनामोई ने रंग छंद समारोह पल्लवी पेश किया। यह राग खमाज और झंपा ताल में निबद्ध था। दूसरी नृत्य प्रस्तुति अभिनय थी। यह सूफी संत सालबेग की रचना पर आधारित थी। इन दोनों नृत्य रचनाओं की परिकल्पना गुरू केलुचरण महापात्र की थी। इनका संगीत पंडित भुवनेश्वर मिश्र ने रचा था। सालबेग की रचना ‘आहे नील शैल प्रबलमत्त वरणे‘ में गजराज, द्रौपदी शील हरण व प्रहलाद के प्रसंगों को संचारी भाव में उन्होंने दर्शाया।

बहरहाल, रंग छंद समारोह में नृत्यांगना मीरनंदा बड़ठाकुर ने रामदानी और अभिनय पेश किया। उन्होंने एक ओर रामदानी में सत्रीय नृत्य के तकनीकी पक्ष को पेश किया। वहीं अभिनय में कृष्ण से जुड़े माखनचोरी प्रसंग को मोहक अंदाज में निरूपित किया। 

                                         

कुचिपुडी नृत्यांगना रेड्डी लक्ष्मी ने महाराजा स्वाति तिरूनाल की रचना ‘आज आए श्याम मोहन‘ पेश किया। यह राग शुद्ध सारंग और मिश्र चापू ताल में निबद्ध था। इसमें महाभारत के द्रौपदी प्रसंग का प्रभावपूर्ण चित्रण पेश किया। उनकी दूसरी पेशकश ‘दुर्गा स्तुति‘ थी। यह राग रेवती और आदि ताल में थी। यह गुरू जयराम राव और वन श्री राव की रचना थी। रचना ‘ए गिरिनंदिनी‘ और ‘दुर्गा स्तुति‘ पर देवी दुर्गा के रौद्र रूप का सुंदर विवेचन पेश किया। 


    

मोहिनीअट्टम नृत्यांगना जयप्रभा मेनन ने महाराजा स्वाति तिरूनाल की रचना ‘चलिए कंुजन में‘ को नृत्य पिरोया। राधा और कृष्ण के माधुर्य श्रंृगार का मोहक वर्णन पेश किया। उनकी दूसरी प्रस्तुति जीव थी। यह मरमा ताल में थी। मोहिनीअट्टम की शुद्ध नृŸा पक्ष को विशेषतौर पर उकेरा। 

                                  

कथक नृत्यांगना रूपारानी ने शिव स्तुति पेश किया। उन्होंने तीन ताल और एक ताल में शुद्ध नृŸा प्रस्तुत किया। उन्होंने विलंबित और द्रुत लय में उपज, उठान, थाट, आमद पेश किया। गजगामिनी, सादी और रूख्सार की गतों को गतनिकास में प्रस्तुत किया। वहीं कवि अतुलचंद्र हजारिका की कविता देवदासी को रूपा रानी ने अभिनय में ढाला। रूपारानी दास की यह भावपूर्ण प्रस्तुति थी। 


Saturday, September 11, 2021

shashiprabha: भारत अनोखा राग है ---शशिप्र्भा तिवारी

shashiprabha: भारत अनोखा राग है ---शशिप्र्भा तिवारी: भारत अनोखा राग है शशिप्र्भा तिवारी  ओडिशी नृत्य गुरू हरेकृष्ण बेहरा की शिष्या अल्पना नायक हैं। ओडिशी नृत्यांगना दो दशक से राजधानी दिल्ली में...

भारत अनोखा राग है ---शशिप्र्भा तिवारी


भारत अनोखा राग है

शशिप्र्भा तिवारी


 ओडिशी नृत्य गुरू हरेकृष्ण बेहरा की शिष्या अल्पना नायक हैं। ओडिशी नृत्यांगना दो दशक से राजधानी दिल्ली में नृत्य सिखा रही हैं। उनकी शिष्याओं ने कला जगत में अपनी अच्छी पहचान कर ली है। नृत्यांगना अल्पना ने दिव्यांग बच्चों को विशेषतौर पर नृत्य सिखाने का बेड़ा उठाया है। इस कोरोना काल में भी उन्होंने अपने शिष्य-शिष्याओं का मनोबल बनाए रखा और उन्हें नृत्य की आॅन लाइन प्रैक्टिस लगातार करवाती रहीं। ताकि, वो लोग अपने नृत्य सीखने की प्रक्रिया को जारी रख सकें। इसी की पराकाष्ठा 15अगस्त को आयोजित इंद्रधनुष कार्यक्रम में दिखी। 

आजादी की 75वें वर्षगांठ के अवसर पर आयोजित इंद्रधनुष कार्यक्रम में गुरू अल्पना नायक की शिष्याओं ने उनकी नृत्य रचनाओं को प्रस्तुत किया। गीत ‘भारत अनोखा राग है‘ पर आधारित ओडिशी नृत्य को शिष्याएं-पीहू, दिशा और श्रेयशा पेश की। विविधता में एकता सुंदर परिदृश्य इस नत्य में था। अगले अंश में, मंगलाचरण पेश किया। शिष्याओं ने इस प्रस्तुति में सरस्वती वंदना पेश किया। यह श्लोक ‘या कंुदेदु तुषार हार धवला‘ और उड़िया गीत ‘आईले मां सरस्वती‘ पर आधारित थी। देवी सरस्वती के संुदर रूप का वर्णन था। गुरू अल्पना नायक की नृत्य परिकल्पना सरस थी। गायक प्रशांत बेहरा और मृदंग वादक प्रफुल्ल मंगराज का संगीत कर्णप्रिय था। इसमें शिरकत करने वाली शिष्याएं थीं-अंजलि, नवनिका, इशिता, हंसिका, अवनिका, अन्वेषा, अदिति।



समारोह में शिव तांडव स्त्रोत पर आधारित शिव तांडव पेश की थी। इस प्रस्तुति में शिव के उद्धत और रौद्र रूप को शिष्याओं ने निरूपित किया। इसे समीक्षा, शेफाली, कृष्णा, मीरा नविका, गौरीशा, धनेश्वर व तृष्णा ने पेश किया। 

शास्त्रीय कलाओं में परंपरा का विशेष महत्व है। वरिष्ठ गुरूओं की रचनाओं को अनेक गुरू अपने शिष्य-शिष्याओं को सिखाते हैं। यह उदारता अल्पना नायक ने भी अपनाया है। वह गुरू केलुचरण महापात्र की नृत्य रचनाओं को अपनी शिष्याओं को सिखा रही हैं। इसी सिलसिले मेें उनकी शिष्याओं ने गुरू केलुचरण की नृत्य रचनाएं कल्याणी पल्लवी, कलावती पल्लवी और अष्टपदी ‘श्रीत कमल कुच मंडल‘ को पेश किया। इसे कात्या, टिंवकल, खुशी, निमिषा, अभिषेक, नरेशा, आदिका, अदित्री, इशिका, अन्वेषा, नवनिका ने प्रस्तुत किया। अष्टपदी में भगवान विष्णु के कई प्रसंगों का संुदर चित्रण नजर आया। शिष्य-शिष्याओं का आपसी संयोजन अच्छा था।


 

अंतिम प्रस्तुति दशावतार व मोक्ष नृत्य थी। गुरू केलुचरण माहपात्र की यह नृत्य रचना कवि जयदेव की रचना पर आधाारित है। रचना ‘जय जगदीश हरे‘ इसे अधिकांश ओडिशी नृत्य के कलाकार पेश करते हैं। इसमें विष्णु के दशावतार का निरूपण था। शिष्याओं की आंगिक चेष्टाएं, हस्त मुद्राओं और भंगिमाएं सहज और संतुलित दिखी। 

इंद्रधनुष 2021 का आगाज संगीत से हुआ। इसे अल्पना से जुड़ी शिष्याओं ने पेश किया। राग भोपाली और तीन ताल में निबद्ध गणपति वंदना थी। इसके बोल थे-‘जय गणपति गजबदन विनायक‘। इसे गौरवी अग्रवाल ने गाया। सात्विकी धुंगाना ने छोटे ख्याल की बंदिश को सुरों में पिरोया। इसके बोल थे-‘कैसी निकसी चंादनी‘। यह राग बहार और तीन ताल में थी। दोनों शिष्याओं ने अपनी गुरू शाश्वती चटर्जी के साथ ‘वंदे मातरम्‘ को भी पेश किया। इसके अलावा, तबला आचार्य सुभाष चंद्र बेहरा के शिष्यों ने तबला वादन पेश किया। उन्होंने तीन ताल में अपने वादन को पेश किया। 

समारोह में, अल्पना से जुड़े दिव्यांग बच्चों ने गीत ‘इतनी शक्ति हमें देना दाता‘ और ‘दिल में है मार्स‘ पर नृत्य पेश किया। इस अवसर पर अल्पना के वार्षिक स्मारिका ‘इंद्रधनुष-2021का विमोचन किया। इसे आइएस अधिकारी श्री गुडी श्रीनिवास और सिद्धार्थ किशोर देव वर्म ने विमोचित किया।

गौरतलब है कि इन दिनों यू-ट्यूब या फेसबुक लाइव के जरिए कई आयोजक कार्यक्रम पेश कर रहे हैं। लेकिन, अल्पना नायक ने जिस तरह से कैमरे के जरिए रिकाॅर्डिंग करके कार्यक्रम को प्रसारित किया, वह प्रशंसनीय है। कार्यक्रम को बहुत आकर्षक तरीके से डिजाइन किया गया था। इसमें उद्घोषणा भी संक्षिप्त थी। इससे दर्शक पूरे समय बंधकर इसे देख रहे हैं। इस तरह के प्रयास प्रशंसनीय है और इस तरह की कोशिशें जारी रहनी चाहिए।




 







Wednesday, August 18, 2021

shashiprabha: कथक और पहाड़ी चित्रों का आपसी रंग कविता ठाकुर, कथ...

shashiprabha: कथक और पहाड़ी चित्रों का आपसी रंग कविता ठाकुर, कथ...:  कथक और पहाड़ी चित्रों का आपसी रंग कविता ठाकुर, कथक नृत्यांगना  रेबा विद्यार्थी से सीख कर आए हुए थे। जिन्होंने लखनऊ घराने की तकनीक को सीखा थ...

कथक और पहाड़ी चित्रों का आपसी रंग कविता ठाकुर, कथक नृत्यांगना

 कथक और पहाड़ी चित्रों का आपसी रंग

कविता ठाकुर, कथक नृत्यांगना 

रेबा विद्यार्थी से सीख कर आए हुए थे। जिन्होंने लखनऊ घराने की तकनीक को सीखा था। सो उनको दिक्कत नहीं होती थी। पर मैं तो जयपुर घराने की तकनीक सीखी थी, सो मेरा मन नहीं लगता था। जब नजाकत और सौम्यता अच्छी लगती थी। मेरे दोस्त धीरे-धीरे बाहर के प्रोग्राम और ट्यूशन वगैरह शुरू कर दिए थे। लेकिन, मैं सिर्फ अपने नृत्य पर ध्यान देने लगी। इससे ऐसा हुआ कि मेरे जो साथी पहले पहले-दूसरे स्थान पर आते थे, उनके जगह पर मैं पहुंच गई। मुझे खुद पर विश्वास ही नहीं होता था। 

मेरी पोस्ट डिप्लोमा की परीक्षक रोहिणी भाटे जी थीं। उस समय मैं रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड के दोहे-चैपाई को नृत्य में पिरोया था। अगले दिन, हमलोग क्लास में थे, तभी रोहिणी जी आकर गुरू जी से बोलीं कि कविता ठाकुर ने कल अच्छा काम दिखाया। उनकी बात सुनकर मैं मन ही मन मुस्कुराई थी। 

मैं गुरू मुन्ना शुक्ला जी के पास चैदह वर्ष लगातार नृत्य सीखा है। मैं कथक केंद्र से पास होने के बाद भी सीखती रही। क्योंकि कथक केंद्र अपने छात्रों को यह सुविधा देता है। कथक केंद्र से रिटायर हुए, तो उनके घर में जा कर सीखती रही। अभी भी कुछ पूछना होता है, तो उनके पास जाती हूं। 

मैंने गुरू जी से बहुत कुछ सीखा। अभी कोविड के समय नींद की समस्या से जूझ रही थी। गुरू जी से यूं ही साढ़े नौ मात्रा के ताल की चर्चा की। उन्होंने उसके बोल बताए। उसके बाद, मैं दिन रात उसके ही बोलों की पढ़ंत करती रहती। तो एक रचनात्मक और सृजनात्मक शक्ति गुरू से मिलती है। गुरू जी की लक्ष्मी ताल बहुत खास है। एक बार चर्चा के दौरान पंडित किशन महाराज ने उनसे लक्ष्मी ताल की चर्चा की। उस समय गुरू जी ने बताया कि मेरी एक विदेशी छात्रा को लक्ष्मी ताल से ही नृत्य सिखाना शुरू किया और वह बहुत अच्छा कथक करती हैं। फिर, उस विदेशी छात्रा ने नृत्य प्रस्तुत भी किया।

गुरू जी से बहुत कड़क थे। उनके क्लास में मैं सबसे पीछे खड़ी होती थी। अगर, कुछ थोड़ी-सी गलती हुई। वह खूब जोर से डांटते और हम कमरे से बाहर हो जाते। फिर पूरे समय उसी बरामदे नाचते रहते। लेकिन, दोबारा क्लास में जाने की हिम्मत नहीं होती थी। मेरा तो तीन साल वहीं बरामदे में ही रियाज चला है। मैं गुरू जी से डरती बहुत थी।

उनकी अनुशासनप्रियता गजब की थी। हमारी सफेद डेªस पहनना होता था। दुपट्टे को भी कायदे से लगाना। घुंघरू नहीं पहने तो क्लास नहीं कर सकते। घड़ी पहन कर क्लास में नहीं जा सकते थे। लेकिन, शनिवार को हम पूरे स्टूडेंट्स एक साथ तत्तकार और पैर का काम सारे दिन करते थे। तब बहुत मजा आता था। अब महसूस होता है कि उनका कड़क होना ही हमें इस योग्य बनाया कि हम मंच पर नृत्य कर पा रहे हैं।

आज शिष्यों मंे गुरू और कला के प्रति कोई भाव नहीं है। लोगों को शास्त्रीय नृत्य या संगीत के प्रति कोई भक्ति भाव नहीं है। हम आज भी गुरू जी के बराबर मंे नहीं बैठ सकते। मेरे क्लास में अक्सर नीलिमा अजीम आया करती थीं। वह भी नीचे ही बैठती थीं। 

गुरू के तौर पर मैं उदार हंू। मैं अपने शिष्य-शिष्याओं को हर तरह से मदद करती हूं। मैं यह जानती हूं कि मेरे किस्मत में जो है, वह मुझे मिलेगा। मैं चाहती हंू कि मेरे स्टूडंेट्स के मन में कला के प्रति एक लगाव हो। उनसे समर्पण की उम्मीद मैं नहीं करती। वह बाॅलीवुड की ग्लैमर से दूर रहे। 

मेरी पहली गुरू इला पांडेय जी थीं। उन्होंने बहुत प्यार से हमें अपने परिवार के सदस्य की तरह रखा और अपनापन दिया। वो हमलोग को बहुत घरेलू और पारिवारिक माहौल में रखती थीं। वह अपने घर से खाना बनवा कर सबके लिए लातीं और खिलातीं थीं। फिर, क्लास में अंगीठी बनी हुई थी, उस पर हम शिष्याएं चाय बनाते। उसके बाद जूठे बर्तनों को साफ करते थे। जन्मदिन पर वह हमें गिफ्ट देती थीं। वह मुझे सूट देती थीं। जिसका मैं साल भर इंतजार करती थी, कि कब मेरा जन्मदिन आएगा। तो गुरू जी से अच्छा सा उपहार मिलेगा। मैं भी अपनी शिष्याओं को इस तरह की छोटी-छोटी खुशियां देना चाहती हूं। अपनी गुरू जी से प्यार देना और मिल-बांटकर खाना सीखा।

गुरू मुन्ना शुक्ला का अनुशासन और समय की कद्र करने का अंदाज। अद्भुत है। वह बहुत सलीके और समय पर अपना काम करने के पाबंद हैं। उनका प्रोग्राम दो महीने बाद होना तय है। तो वह उसकी तैयारी डेढ़ महीने पहले कर लेते हैं। डांस की स्क्रिप्ट, संगीत, काॅस्ट्यूम, डांसर सब तय हो जाता है। फिर, सिखाने का तरीका गजब है। 

कोरोना की वजह से विपरीत स्थितियां हैं। पर उनकी दिशा-दशा का ठीक रहना जरूरी है। नए कलाकारों को देखकर लगता है कि बहुत मेहनत से नृत्य कर रहे हैं। उनके सामने प्रतियोगिता बहुत है। उन्हें कमाने के लिए ट्यूशन और डांस करने के बहुत मौके हैं। अगर समर्पित हैं तो अपनी कला का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। परिस्थितियां कभी एक सी नहीं होती। मुझे याद आता है कि पंडित बिरजू महाराज बताते थे  िकवह साइकिल चलाकर डांस सिखाने जाते थे और परफाॅर्मेंस  के लिए भी जाते थे। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी जिजीविषा और मेहनत से अपनी कला को जिंदा रखा। उन युवा कलाकारों में जज्बा बना रहा और अपने लक्ष्य पर कायम रहेंगें तो उनकी मेहनत रंग जरूर लाएगी। लेकिन, अगर हिल गए तो संभलना बहुत मुश्किल है। 

मैंने देखा और सुना है कि कोई भी कलाकार अपनी मेहनत और किस्मत से ही बनता है। मुझे उस्ताद शाहिद परवेज जी का एक इंटरव्यू याद आता है। इसमें वह बताते हैं कि घर में जगह नहीं होती थी, तो वह छत पर पानी के टंकी की छाया में बैठकर रियाज करते थे। जैसे-जैसे सूरज की स्थिति बदलती थी, वह अपने बैठने की जगह बदलते रहते थे। लेकिन, रियाज पूरे दिन भर लगकर करते थे। 




नई पीढ़ी ऐशो-आराम के साथ कला को बनाए रखना आसान नहीं है। मैं करियर को लेकर बहुत ज्यादा संघर्ष नहीं किया। क्योंकि मेरा डांस के जरिए पैसा कमाने का उद्देश्य रहा ही नहीं है। पहला सोलो प्रोग्राम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में किया। उस समय इतना पैसा मिला कि मैं संगत कलाकारों को आराम से पैसे दे पाई। मेरे लिए यही संतोष का विषय था। साहित्य कला परिषद से हमें स्पांन्सर कर दिया। मैंने सीखने के लिए संघर्ष किया। आज कल मैं कथक और पहाड़ी चित्रकारी के संबंध पर शोध कार्य कर रही हूं। 

सौ सुनार की एक लोहार की। एक प्रोग्राम ऐसा करो कि लोगों को पता चल जाए कि मैं जिंदा भी हूं और मेरा काम बोलता है। इससे लोग तुम्हें याद रखेंगें। मैं अपने इस शोध से यह बताना चाहती हूं कि कथक के कलाकार भी नव प्रयोग करना चाहते हैं। सिर्फ उन्हें अवसर मिलना चाहिए।

दरअसल, पंजाब, हिमाचल और हिमालय की तराइयों में पहाड़ी कलम के चित्र मिलते हैं। कांगड़ा राज्य में बहुत से चित्र मिलते हैं। इन्हें कांगड़ा चित्र के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि मुगल कलम के चित्रकार जब दिल्ली से हटने लगे, तो बहुत से कलाकार तराइयों में चले गए। वहां राजपूत कलम की परंपरा प्रचलित थी, जिससे पहाड़ी कलम का विकास हुआ। लाहौर और अमृतसर में सिक्ख राज दरबारों में पहाड़ी कलम को प्रश्रय मिला था। पहाड़ी चित्रों के विषय बहुत विस्तृत हैं। इन चित्रों में भारतीय ग्रंथों में से अनेक ग्रंथ चित्रित हुए होंगे। पहाड़ी चित्रों में कृष्ण की लीलाओं का विशेष चित्रण है। यहां बाल सुलभ स्वभाव का जितना शिष्ट रूप चित्रकारों ने अंकित किया है।

मैंने तो पाया है कि पहाड़ी चित्रों में कथक नृत्य के अंश बहुत सहज से उभर कर सामने आता है। खासतौर पर कई चित्रों में नर्तकी को चित्र किया गया है। इसमें इसकी वेश भूषा और आभूषण आधुनिक कथक के बहुत समान नजर आते हैं। श्रृंगार के कोमल पक्षों में नायिका भेद के चित्र खूब नजर आते हैं। इन चित्रों की कोमलता, आकृतियों की मृदुलता, हल्के और अकर्षण वर्ण-विधान, रेखाओं की सजीवता सर्वोपरि है। इनमें दृश्यों का बहुत सजीव चित्रण नजर आता है। 

अक्सर, समय के साथ चीजें बहुत बदलती हैं। धीरे-धीरे कलाकारों के वंशज भी कला सेवा को छोड़कर, जीविकोपार्जन के लिए नौकरी करने लगे। किंतु, सबसे भयानक बात यह हुई कि सन् 1905 ईस्वी में जो भूकंप आया, उससे कांगड़ा नगर विध्वंस्त हो गया। केवल पहाड़ी कलम ही नहीं, उस कलम के बहुत से कलाकार भी भूकंप में नष्ट हो गए। 

विजय शर्मा ने मुझे प्रेरित किया। उन्होंने मेरे से सहमति जताई कि पहाड़ी चित्रकला और कथक एक दूसरे से काफी प्रेरित हैं। उन्होंने बताई कि एक डाॅक्यूमेंटरी फिल्म है, जो जर्मन भाषा में है। यह फिल्म मिनिएचर पेंटिंग पर है। उसमें पूरा कथक नृत्यांगना को दर्शाया गया था। उन्होंने ठुमरी के भाव दर्शाया। कुमार गोस्वामी ने लिखा है कि एक चित्र में कथक नृत्यांगना कर रही है। उसके साथ एक तबले और हारमोनियम वाला संगत कर रहा है। और इस पेंटिंग में ऐसा लगता है कि नृत्यांगना तोड़ा खत्म कर सम पर आई है। उसमें उर्दू में नर्तकी का नाम जफर है। इसका मतलब कि चित्रकार ने यह नृत्य देखा है। नर्तकी की हस्तमुद्रा अराल है। विजय जी ने मुझे कुछ नायिकाओं पर आधारित ठुमरी के बारे में बताया। पहाड़ी पेंटिंग में अभिसारिका और वासकसज्जा को विशेष चित्रित किया गया है। वैसे भी ठुमरी के भाव को दर्शाने से पहले नायिका को स्थापित करने के लिए इन नायिकाओं को नृत्यांगना दिखाती हैं। नायिका काले वस्त्र पहनी है। चांदनी रात है। रास्ते में उसे सांप नजर आ रहा है। बिजली चमकी है। वह भयभीत है। इन विषयों को खूब दर्शाया गया है। यह भाव कथक और पहाड़ी चित्रकारी में खूब दिखता है। 

कुछ पद ऐसे हैं, जो पहाड़ी चित्रों के पीछे लिखे गए हैं। रसिकप्रिया, रसमंजरी और गीत गोविंद को विशेष तौर पर दर्शाया गया है। याहि माधव, नील माधव नील कलेवर आदि अष्टपदी को कथक नृत्यांगना करती हैं। लेकिन, कथक के कलाकार आसान रास्ते पर चलते हुए, ठुमरी को ही चुनते हैं। हमें गीत गोविंद परिपक्वता के बाद ही पढ़ना चाहिए। ताकि, आप राधा और कृष्ण के आत्मा-परमात्मा के भाव से देखने का नजरिया विकसित हो। केशवदास ने अपने पदों में अष्टनायिकाओं, रामायण, नलदमयंती, भक्ति श्रृंगार का सुंदर वर्णन किया है। इनको पहाड़ी चित्रों में शामिल किया गया है। 


Tuesday, July 20, 2021

shashiprabha:                                                   ...

shashiprabha:                                                   ...:                                                               गुरू की अनंत महिमा                                                            ...

गुरू की अनंत महिमा

                                                             गुरू की अनंत महिमा

                                                               गुरू रंजना गौहर


शास्त्रीय कलाएं गुरू मुखी विद्या है। इसे सीखने के लिए कलाकार अपने गुरू के सानिध्य मंे साधना करते हैं। यह एक निरंतर परंपरा है। यह सही है कि किताबों से बहुत कुछ जानकारी हासिल कर लेते हैं। लेकिन, कला के व्यावहारिक पक्ष को बरतने के लिए गुरू का मार्ग दर्शन जरूरी है। ऐसा ओडिशी नृत्यांगना और गुरू रंजना गौहर मानती है। गुरू पूर्णिमा 24 जुलाई को है। गुरू मायाधर राउत वरिष्ठतम गुरू हैं। 6जुलाई 1930 को जन्मे गुरू जी बहुत ही शांत और संतुष्ट प्रकृति के हैं। उन्हीं के सानिध्य में नृत्यांगना रंजना गौहर ने नृत्य सीखा। गुरू पूर्णिमा के अवसर पर गुरू रंजना गौहर जी से संक्षिप्त बातचीत हुई। इस बार रू-ब-रू में उसके कुछ अंश प्रस्तुत है-शशिप्रभा तिवारी

आप गुरू मायाधर राउत के सानिध्य में कैसे आईं?

गुरू रंजना गौहर  --साठ के दशक में गुरू जी दिल्ली आ गए। उन्होंने दिल्ली को अपना कर्मभूमि बनाया। यहां देश-विदेश के असंख्य शिष्य-शिष्याओं को उन्होंने ओडिशी नृत्य सिखाया। उन्हें भारत सरकार ने पद्म श्री, संगीत नाटक अकादमी सम्मान और असंख्य सम्मान से सम्मानित किया गया। गुरू जी ने एक बार बताया था कि सन् 1969 में पहली बार राष्ट्रपति भवन में नृत्य बैले-गीत गोविंद प्रस्तुत की गई। इसमें मैं कृष्ण की भूमिका में था। इसका संगीत नाट्य बैले सेंटर के सुशील दास ने तैयार किया था। इसे विशेष आमंत्रित दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया गया था। गार्गी काॅलेज के एक समारोह के लिए नृत्य नाटिका ‘शकुंतला‘ की रचना की। इस समारोह में तत्कालीन उपराष्ट्रपति राम स्वरूप पाठक उपस्थित थे। वह मेरे नृत्य को देखकर काफी प्रभावित हुए थे। इसके बाद ही भारतीय कला केंद्र की सुमित्रा चरित्रराम ने अपने केंद्र में आमंत्रित किया। दिल्ली में गुरू जी ने श्रीराम भारतीय कला केंद्र में सिखाना शुरू किया। यहीं मैं उनसे नृत्य सीखने जाती थी। उन दिनों गुरू जी न सिर्फ डांस बल्कि, काॅस्ट्यूम, संगीत और नृत्य के तकनीकी पक्ष की हर बारीकी का पूरा ध्यान रखते थे। सब कुछ बहुत परफेक्ट हो। यह उनकी प्राथमिकता होती थी। 

गुरू जी से जुड़ी कोई खास बात!

 गुरू रंजना गौहर-- अक्सर गुरू जी कहते हैं कि अगर अपने नृत्य को जीवंत और मर्मस्पर्शी बनाने के लिए पौराणिक कहानियां, साहित्य और दर्शन को पढि़ए। इससे आप मानवीय भावनाओं से सही तौर पर परिचित होते हैं। तभी आपके भीतर की गहराई से भावनाएं उमड़ेंगी। वह आपके नृत्य में सहजता से दिखेगा। सच कहूं तो गुरू जी का जीवन ही हमें प्रेरणा देता है। गुरू जी ने मंगलाचरण ‘माणिक्य वीणा‘ की कोरियोग्राफी की है। आज भी यह बहुत ही लोकप्रिय नृत्य रचना है। इसे हर कलाकार और हर शिष्य-शिष्या बहुत उत्साह से करते हैं। 

गुरू जी ने अपने  कैरियर का अच्छा समय कला क्षेत्र में बीताया है। उस संदर्भ में कुछ बताइए।

गुरू रंजना गौहर--दरअसल, गुरू जी का नृत्य अभिनय तो रोमांचित करने वाला है। उनके अभिनय में मौलिकता की पराकाष्ठा होती है। वह एक-एक भाव को बहुत सहजता और स्पष्टता से अपने अभिनय में दर्शाते हैं। उनका नृत्य अभिनय सरल और हृदय को छूने वाला होता है। उसमें कहीं कोई बनावटीपन नजर नहीं आता। 

वास्तव में, गुरू जी ने आजीवन ओडिशी नृत्य और कला की सेवा बहुत ईमानदार और समर्पित भाव से की है। कलाक्षेत्र में गुरू जी ने भरतनाट्यम और कथकली दोनों सीखा था। दिल्ली में उन्होंने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के कलाकारों को ओडिशी संगीत सिखाया। नृत्य निकेतन में बतौर गुरू उन्होंने अपने शिष्य-शिष्याओं को मंगलाचरण, बटु, बसंत पल्लवी, ललिता लवंग लता, कल्याणी पल्लवी, मोक्ष और दशावतार की नृत्य रचना की है। उन्होंने कई अष्टपदियों को नृत्य में पिरोया। उन्होंने गौड़ पल्लवी, संगिनी रे, बज्रकांति पल्लवी, याहि माधव, आना कुंज रे और भी बहुत-सी नई नृत्यों की रचना की। 

गुरू जी का कौन-सा गुण आपको सबसे अधिक आकर्षित करता है?

गुरू रंजना गौहर--गुरू जी बहुत मधुर स्वभाव और महान कलाकार रहे हैं। उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि वह नृत्य की दुनिया में मशहूर थे ही। उन्हें उडि़या फिल्म में नृत्य निर्देशन के लिए आमंत्रित किया। उन्हांेने 1962 में फिल्मों में कोरियोग्राफी का काम किया। ये फिल्में थीं-मणिका जोड़ी और जीवन साथी। ब्लाॅक बस्टर फिल्म ‘का‘ की कोरियोग्राफी भी गुरू जी ने की। लेकिन, फिल्मी जगत का चमक-दमक उन्हें ज्यादा समय तक बांध नहीं पाया। फिर, वह वापस अपने पहले प्यार ओडिशी नृत्य की ओर लौट आए। उन्होंने पुनः नृत्य सिखाने,  नृत्य रचना करने और उसकी प्रस्तुति में व्यस्त हो गए। गुरू जी की सरलता और अपने कर्तव्य के प्रति पूर्ण समर्पण भाव अद्वितीय है।



गुरू जी की नृत्य रचनाओं में बेजोड़ अभिनय परिलक्षित होता है। ओडिशी में ऐसा नृत्य अभिनय अद्भुत है। आप की क्या राय है?

गुरू रंजना गौहर--गुरू जी अभिनय दर्पण को बहुत महत्व देते थे। उन्होंने महाकवि श्री जयदेव की गीत गोविंद को विशेष तौर पर नृत्य रचनाओं में पिरोया। यह चुनौतीपूर्ण काम करने वाले वह पहले गुरू थे। इतना ही नहीं, कवि उपेंद्र भंज, कवि सूर्य और अन्य कवियों की रचनाओं को नृत्य में सुसज्जित किया। उन्होंने भरतनाट्यम की तरह अभिनय के स्थाई भाव, संचारी भाव और मुद्रा विनियोग को ओडिशी में समाहित कर, ओडिशी नृत्य को बहुत आकर्षक और सम्मोहक बना दिया। उन्होंने ‘पश्यति दिशि-दिशि‘, ‘सखी हे‘, ‘प्रिय चारू शिले‘, ‘धीरे समीरे‘, ‘चंदन चरित‘, ‘निंदति चंदन‘ को नृत्य में पिरोया। जो बहुत मुश्किल काम था। अपनी विशेष नृत्य रचनाओं को परिकल्पित करने के लिए गुरू जी ने बल्लभ मोहंती, डीएन पटनायक, नील माधव बोस, सुधाकर दास जैसे उड़ीसा के विद्वानों का मार्ग-दर्शन लिया। यह गुरू जी की बहुत बड़ा गुण है। 

गुरू जी की महानता है कि विद्वानों से संवाद करते हैं। उन्होंने प्राचीन ग्रंथों-नाट्य शास्त्र, अभिनय दर्पण और अभिनय चंद्रिका का विशेष अध्ययन किया था। उनके इस ज्ञान ने ओडिशी की हस्तमुद्राओं को समृद्ध किया। उन्होंने ओडिशी नृत्य के अभिनय में संचारी भाव में समाहित किया। अभिनय के संदर्भ में गुरू जी कहते हैं कि अभिनय सागर है। संचारी भाव सागर की लहरें हंै, जो अंततः सागर मंे ही विलीन हो जाती हंै। जब उन्होंने ओडिशी में अभिनय दर्पण की चीजों को जोड़ा, उस समय शुरू-शुरू में उन्हें काफी विरोध का भी सामना करना पड़ा। लेकिन, कुछ समय बाद सभी गुरू जी का लोहा मानने लगे। गुरू जी का मानना है कि अभिनय दर्पण हर शास्त्रीय नृत्य शैली का अभिन्न अंग है। समय के साथ लोगों ने मेरी नृत्य रचनाओं को देखा तो उन्हें उसे उसी रूप में स्वीकार किया। उसके बाद, वही परंपरा और शैली का हिस्सा बन गई। 

 









Friday, July 2, 2021

shashiprabha: योग-सांस्कृतिक कूटनीति का अभिन्न अंग है!---शशिप्रभ...

shashiprabha: योग-सांस्कृतिक कूटनीति का अभिन्न अंग है!---शशिप्रभ...:  योग-सांस्कृतिक कूटनीति का अभिन्न अंग है!-ऊषा आर के ऊषा आरके का नाम कला जगत में काफी लोकप्रिय है। इनदिनों ऊषा जी माॅस्को में भारतीय दूतावास ...

योग-सांस्कृतिक कूटनीति का अभिन्न अंग है!---शशिप्रभा तिवारी

 योग-सांस्कृतिक कूटनीति का अभिन्न अंग है!-ऊषा आर के

ऊषा आरके का नाम कला जगत में काफी लोकप्रिय है। इनदिनों ऊषा जी माॅस्को में भारतीय दूतावास के जवाहरलाल नेहरू संस्कृति केंद्र में बतौर निदेशक कार्यरत हैं। वह संस्कृति मंत्रालय में भी दायित्व निभा चुकी हैं। उन्होंने अपने कार्यकाल के दौरान यूनेस्को से योग, कुंभ मेला, वाराणसी व चेन्नैई को सृजनात्मक नगर आदि परियोजना को मान्यता दिलाने में सफल रहीं। उन्हें शास्त्रीय संगीत और नृत्य जगत के अनेक कलाकारों के साथ कार्य करने के अवसर मिले हैं। हाल ही में पूरे विश्व ने योग पर्व मनाया है। उसी संदर्भ में, माॅस्को में योग पर्व के बारे में ऊषा जी बता रही हैं-शशिप्रभा तिवारी  

आपके अनुसार योग क्या है?

पूरी दुनिया में सभी यही मानते हैं कि योग करने से आप स्वस्थ रहोगे। आपके शरीर में लचीलापन होगा तो आप फुर्ती से कोई भी काम कर पाएंगें। आप भागदौड़ कर पाएंगें। आपकी तबीयत ठीक रहेगी तो आप सांस लेने का, शरीर के विभिन्न अंग सुचारू तंदरूस्त रहेंगें। यही संदेश भारत विश्व समाज तक योग के माध्यम से पहुंचाया है। 

वास्तव में, योग सिर्फ शारीरिक व्यायाम भर नहीं है। यह अध्यात्मिक मार्ग भी है कि हम अपने मन के अंदर झांक कर देखें और मानसिक शक्ति को बढ़ाएं। यह महत्वपूर्ण बात है कि हमारा मानसिक स्तर, आत्मिक स्तर और सकारात्मक विचार का स्तर को मजबूत करना है। ये सारी चीजें जो हमारे भीतर समाहित हैं, इन्हें भी तलाशना है। दरअसल, योग को हमें पूरे 360 डिग्री के कोणात्मक या समग्र रूप में देखना उचित है। तभी हमें समझ आएगा। हम मंत्र के उच्चारण करने के लिए नहीं कर रहे है। सूर्य नमस्कार सिर्फ व्यायाम नहीं है। यह प्रार्थना है कि सूर्य की किरणें हमारे ज्ञान चक्षु को खोलें। वह मानस को उज्जव करें। उसके मंत्र के बारे में बताना चाहिए। 

पतंजलि के सूत्र के अनुसार हम अपने चित्त को अंदर से विकार रहित बनाएं। मन की वृत्ति ही चित्त में परिलक्षित होती है। अगर हमारे मन की वृत्ति से नकारात्मक विचार निकल रहे हैं। इसे हम सकारात्मक कैसे बनाएं। मन को इन विकारों से कैसे बचाएं। मानस को विकार रहित बनाना और सकारात्मक सोच विकसित करना ही एक तरह से योग है। पतंजलि के योग सूत्रों को हम आमजन की भाषा में पिरोकर प्रस्तुत करेंगें तो यह महान कार्य होगा। पतंजलि ऋषि ने योग के सूत्रांे का ही तो संकलन अपने सूत्र के श्लोकों में किया है। उनको सरल भाषा में लोगों को बताना होगा। यही योग सिखाता हैै। योग सिर्फ शारीरिक प्रक्रिया नहीं है, यह आत्मिक क्रिया भी है।


योग को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता कैसे संभव हो पाया?

पहली बात तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यूनेस्को ने इसे मान्यता प्रदान की। यह बहुत बड़ी चीज है। यह मानवीय सम्पत्ति है। पहले भी लोग भारत आकर योग सीखने आते थे। फिर, उसे नियमित करते थे। पर इसे योग दिवस-21जून को घोषणा के बाद प्रधानमंत्री मोदी जी ने इसको विश्व उत्सव का रूप दे दिया। भारतीय सांस्कृतिक धरोहर को प्रधानमंत्री योग खुद करते हैं। और पूरे विश्व को प्रेरित करते हैं। जो आप करते हो, उसे करके दिखा रहे हैं। यानि आपकी कथनी-करनी एकसार हैं, इससे उस स्तर पर सम्मान मिला। विश्व में जैसे अंतरराष्ट्रीय पिता या माता या अन्य दिवस मनाए जाने का सिलसिला चलता रहा है, वैसे ही इस योग दिवस को भी लोग विश्व स्तर पर मना रहे हैं। यह दिन हमें पे्ररित करता है कि हम स्वस्थ, सुखी और खुशहाली भरा जीवन जीएं। 

मेरा योगदान रहा है। जब योग को यूनेस्को से मान्यता दिलाने के लिए काम हो रहा था, उस समय मुझे भी इस अभियान से जुड़ने और काम करने का अवसर मिला। मैं उस दौरान आयुष मंत्रालय के साथ काम किया। जिनका बहुत बड़ा योगदान रहा। तत्कालीन मंत्री श्रीपाद नाइक जी ने बहुत मनोयोग के साथ काम किया। पूरे देश के दस-बारह योग के वरिष्ठ विद्वानों की बैठक में सब कुछ तय हुआ। बहुत से विचार-विमर्श हुए। योग प्रकृति से जोड़ता है। आत्मा और शरीर को जोड़ता है। मानव शरीर के चक्र ऊर्जा के स्त्रोत हैं। ऐसी प्रक्रिया जिससे मानसिक, शारीरिक और आत्मिक तौर पर शरीर को स्वस्थ बनाए। ऐसा दिव्य ज्ञान पूरे विश्व में कहीं भी नहीं है। 


क्या आपको लगता है कि योग की लोकप्रियता भारतीय ज्ञान परंपरा की स्वीकार्यता है?

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर योग को आध्यात्मिक और सामाजिक स्वीकृति व समर्थन मिलना बहुत महत्वपूर्ण बात है। ये है-आपका जीवन जीने का मार्ग, अगर आपको स्वस्थ, सुखी और शांतिपूर्ण जीवन चाहिए। हमारे देश की परंपरा, संस्कृति, ज्ञान, व्यवहार, प्रयोग सभी को विश्व ने इसको सम्मान दिया है। इसकी महत्ता को स्वीकार किया है। हमारे परंपरागत ज्ञान की स्वीकार्यता बहुत है। लेकिन, हम को आधुनिक पीढ़ी को समझाना है कि संस्कृति, संस्कार, विरासत कभी बोरिंग नहीं हो सकते हैं। यह पुरानी चीजें लगातार उनको पुर्ननीविनीकरण या पुर्नपरिष्ककार होाता रहा है। अब, शादी की परंपरा को ही देख लीजिए। हमारे यहां शादियों के समारोह एक महीने तक चलता था। फिर दस दिन के होने लगे। इसके बाद, चार दिन के होने लगे। और अब तो सारे रीति-रिवाज एक दिन में ही पूरे किए जाने लगे हैं। इन सबके बावजूद हम अपने किसी रीति-रिवाज को छोड़ते नहीं है। सांस्कृतिक परंपरा और मूल्य को पूरी तरह से निभाते हैं। 

हमारी ऋषियों ने, साधु संतों ने त्यागराज ने तेलुगु में एक रचना लिखी है। जिसमें वह कहते हैं कि इस मोहल्ले में कोई बड़े-बुजुर्ग नहीं है, जो जवान लड़कों को समझाए कि लड़कियों को छेड़ना नहीं चाहिए। अब ये गाना सत्रहवीं शताब्दी में भी प्रासंगिक था और आज भी है। जब निर्भया काण्ड हुआ, तब लोगों ने आवाज उठाई थी कि पुरूषों को स्त्री के प्रति या लड़कियों के प्रति संवेदनशील होना चाहिए। जिस विषय पर आज लोग बात कर रहे हैं, उस विषय पर हमारे संत सत्रहवीं शताब्दी में ही बात कर चुके हैं। ऐसा नहीं है कि इन विषयों पर हमने नहीं सोचा। बस जरूरत है कि हमें उनको समय के साथ भूलने के बजाय सिर्फ याद रखने की जरूरत है। 

आज सब लोग हाथ मिलाने के बजाय नमस्ते या प्रणाम करने लगे हैं। जबकि, कुछ समय पहले तक हाथ न मिलाने को बैकवर्ड माना जाता है। आज की तारीख में विश्व में हर देश में लोग नमस्ते करने लगे हैं। इतना ही नहीं, हमारे तो जीवन का अंग रही है-हल्दी और अदरक। इसे आज रूस, अमेरिका, यूरोप सभी जगह लोगों में अपनाने की होड़ लगी हुई है। रूस में खासतौर पर महिलाएं रात में बच्चों को दूध में हल्दी और केसर पकाकर पिला रहीं हैं और पी रही हैं। वास्तव में, हमारी परंपराएं हमेशा प्रासंगिक थीं और हैं। जरूरत है इसे पुरजोर तरीके से दुनिया के सामने रखने की जरूरत है। 

रूस में योग कितना लोकप्रिय है?

रूस में तो योग जीवन शैली बन गई है। वर्ष-2015 से अब तक हर साल पचास हजार लोग योग करते हैं। यहां बहुत से शहर में जगह-जगह योग केंद्र, योग क्लास, योग शिक्षक हैं, जो योग बहुत समर्पित होकर सिखाते हैं। यहां योग से संबंधित मंत्रोच्चार, प्रदर्शन, सब कुछ मिल जाते हैं। हमारे जवाहर लाल नेहरू सांस्कृतिक कंेद्र में योग के औसतन सुबह से रात तक सात कक्षाएं चलती हैं। दिन भर में अस्सी लोग योग सीखने आते हैं। इनके अलावा, नृत्य सीखने वाले छात्र-छात्राएं भी योग सीखते हैं। कई डाॅक्टर भी सीखने आते हैं। हमारे राजदूत वेंकटेश वर्मा और विनय प्रधान का मुझे हर आयोजन में विशेष सहयोग मिलता है। हम हर महीने योग या आयुर्वेद पर गोष्ठी या परिचर्चा रखते हैं। हमें योग को खास प्रोत्साहित करते हैं।

योग भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। इसके जरिए अंतरराष्ट्रीय संबंध कैसे प्रगाढ़ बनाए जा सकते हैं?

हमारा अंतरराष्ट्रीय संबंध का विशेष आधार है-संस्कृति कूटनीति। इसे हम शाॅफ्ट पावर कहते हैं। सुषमा स्वराज जी का भी यही मानना था कि हम अपनी सांस्कृतिक मूल्यों से विश्व को जोड़ें। योग के जरिए हम इसे प्रोत्साहित कर रहे हैं। इस वर्ष हमारा योग पर्व बहुत खास रहा। मैं बताना चाहूंगी कि यहां वोल्गा नदी के किनारे संगीत-नृत्य का विशेष समारोह समारा फेस्ट आयोजित किया जाता है। जैसे वाराणसी में गंगा महोत्सव होता है। मैं इसी के मद्देनजर यहां के संस्कृति मंत्री से मिलने गई। मैंने उन्हें सुझाव दिया कि वोल्गा फेस्ट में योग को जोड़ देने से बहुत अच्छा होगा। संभव हो तो इस फेस्ट का समापन योग पर्व से किया जाए। वह बहुत खुश हुईं। वह मान गईं। सो बारह से उन्नीस जून तक रोज सुबह सैकड़ों लोग इकट्ठे होकर योग करते थे। इसका समापन बहुत अद्भुत था। मेरे लिए इस आयोजन को शब्दों में बता पाना थोड़ा मुश्किल है। 





Friday, June 25, 2021

shashiprabha: मुझे यायावरी से प्यार है-राहुल चौधरी नील

shashiprabha: मुझे यायावरी से प्यार है-राहुल चौधरी नील:                                           मुझे यायावरी से प्यार है-राहुल चौधरी नील इस बार हमने रूबरू में लेखक, कवि, यायावर, संस्कृतिकर्मी रा...

मुझे यायावरी से प्यार है-राहुल चौधरी नील

                                         मुझे यायावरी से प्यार है-राहुल चौधरी नील


इस बार हमने रूबरू में लेखक, कवि, यायावर, संस्कृतिकर्मी राहुल चौधरी नील से बात की है। उनका जन्म बिजनौर में हुआ। युवा लेखक राहुल चौधरी ने देश-विदेश की यात्राएं की हैं। आपको घूमने और फोटोग्राफी में खास दिलचस्पी है। वह देश के अनछुए इमारतों और प्राकृतिक दृश्यों के चितेरे हैं। आईए, उनके इस सफर के हम लोग भी हमसफर बनते हैं-शशिप्रभा तिवारी

आपको पढ़ने-लिखने का शौक कैसे हुआ?
राहुल-मुझे बचपन से ही पढ़ने का शौक था। शायद, यह शौक दादाजी को देखकर जागा हो। क्योंकि मैंने देखा कि दादाजी के सिरहाने पर हमेशा कोई-न-कोई किताब होती थी। जब भी फुर्सत में होते थे, वह पढ़ते रहते थे। आल्हा-उदल की कहानियां विशेषकर बुंदेलखंड में लोकप्रिय रही हैं। वहां यह काफी लोकप्रिय भी है। मैं बताऊं कि आठवीं कक्षा से पहले ही मैं आल्हा-उदल की कहानियां पढ़ चुका था। क्योंकि दादाजी बहुत शौक से पढ़ते थे। मुझे याद है कि मैंने महाभारत को काव्यात्मक रूप में कई बार पढ़ा। हालांकि, अब मुझे उस लेखक का नाम विस्मृत हो चुका है। वह महाभारत काफी मोटे आकार की थी। इसके अलावा, धर्मवीर भारती जी की प्रसिद्ध गुनाहों का देवता भी मैं किशोरावस्था में पढ़ चुका था। उस समय इसे काॅलेज के छात्रों का गीता माना जाता था। इस तरह पढ़ने का शौक गजब का था।
सच तो यह है कि मेरा बचपन गांव में बीता है। गंाव का माहौल कैसा होता है? यह सभी जानते हैं। मेरे घर का माहौल जरा जुदा था। पिताजी वकील थे। उनकी हिंदी, इंग्लिश और उर्दू पर बहुत अच्छी पकड़ थी। वह उर्दू में लिखते भी थे। घर में मुझे खासतौर पर पढ़ने-लिखने का माहौल मिला। बारहवीं की पढ़ाई मैंने विज्ञान से की। पर इसके बाद, मुझे लगने लगा कि मैं आगे की पढ़ाई हिंदी साहित्य में करूं। हिंदी साहित्य में ही मास्टर्स किया। नौकरी के सिलसिले में सूर्या फाउण्डेशन से जुड़ा। यहां की लाइब्रेरी बहुत समृद्ध है। इस लाइब्रेरी में हजारों किताबों और ग्रंथों का संग्रह था। यहां भी मैं काम के अलावा, कोई न कोई किताब पढ़ने में ही समय गुजारता था।


आपने लिखने की शुरूआत की कैसे की?
राहुल-दरअसल, लिखने का शौक तो मुझे बाद मंे हुआ। कविताएं तो थोड़ी-थोड़ी लिखने की शुरूआत काॅलेज के दिनों में हुई। विधिवत रूप से लिखने की शुरूआत 2011 में हुई। मैंने खूब यात्राएं की हैं। मैं उन दिनों यात्रा पर ब्लाॅग लिखता था। जो काफी लोकप्रिय हुआ। उन्हीं दिनों एक काव्य संग्रह ‘ओस’ प्रकाशित हुआ। इसमें मैं, जानकी काॅलेज की प्रो संध्या जी, कवि चिराग जैन और कहानीकार विवेक मिश्र की कविताएं थीं। वह मेरी पहली किताब थी।
इसके बाद, मेरे एक मित्र ने प्रभात प्रकाशन के प्रभात जी से परिचय करवाया। उसी मित्र के कहने पर मेेरे ब्लाॅग को प्रभात जी ने किताब का स्वरूप दिया। फिर, मेरी दूसरी किताब ‘कोस कोस पर‘ आई। मेरे पास कहानियों का संग्रह था, जिसे माधव भान जी ने प्रकाशित किया। इसका नाम है-‘कुछ इधर की, कुछ उधर की‘। यह ‘रे माधव‘ प्रकाशन ने प्रकाशित किया। फिलहाल, मैं अगली किताब के काम मेें जुटा हुआ हूं। यह वाणी प्रकाशन के माध्यम से आने वाली है। यह भी यात्रा वृतांत का ही एक सार स्वरूप ‘पगडंडियां‘ के नाम से आ रहा है। इसमें देश के छह अनछुए ऐतिहासिक स्थलों के अनछुए पहलुओं को लेकर मैं पाठकों के सामने उपस्थित होऊंगा। कहानी संग्रह का अगला भाग भी ‘रे माधव‘ प्रकाशन से होगा।




लेखक को लिखने के लिए कुछ समय चुराना पड़ता है?
राहुल-एक लेखक को लिखने के लिए बहुत कुछ छोड़ना पड़ता है। आप बहुत तनाव में हैं, तो आप नहीं लिख पाएंगें। आप को लिखने के लिए समय चाहिए और आप दूसरे काम में उलझे हैं। तब भी लेखक को दिक्कत आती है। लेकिन, मेरे पास प्लस प्वाइंट रहा कि मैं जिस क्षेत्र में काम कर रहा हूं, वह भी कला और साहित्य से जुड़ा हुआ है। मुझे वही परिवेश मिलता रहा है, जो लिखने के लिए प्रेरित करता है।
काॅरपोरेट जगत मंे डायरेक्टर पद की नौकरी छोड़कर, मैं इस क्षेत्र में आया हूं। मैं अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं से जु़ड़ा तो मुझे लगा कि यहां कलाकारों-लोक कलाकारों के साथ काम करने की अपार संभावनाएं हैं। यहां भी एक प्रोफेशनलिज्म की जरूरत है। जिस तरह से कलाओं और कलाकारों को प्रोत्साहन मिलना चाहिए, वह नहीं हो रहा है। उस नाते मुझे लगता कि यहां मैं कुछ बेहतर कर सकता हूं। क्योंकि कहीं न कहीं यह मेरे लेखन से भी जुड़ा हुआ है।
लिखने के लिए समय तो निकालना पड़ता है। यात्रा, मीटिंग्स और अन्य गतिविधियों की व्यस्तताओं के बावजूद समय निकालना मुश्किल तो है। पर नामुमकिन नहीं है। वो कहते हैं कि छोटा बच्चा है। उसे भूख लगती है। पर उसकी पालन-पोषण करने वाली मां को भी भूख-प्यास लगती है। वह जोर मारती है कि नहीं अब सारा काम छोड़कर, बच्चे को खिलाना-पिलाना है। वैसे ही जब मन लिखने के लिए जोर मारता है, तब मैं रात भर जागकर काम करता हूं या सुबह सबसे पहले जागकर अपना काम करता हूं। घर से बाहर, यात्राओं के समय लिखने का बेहतर समय मिलता है।

पूर्वोत्तर की यात्राएं खूब की है। इस बारे में कुछ बताइए।
राहुल-घूमना तो बिना प्लान के ही मजा देती है। मैं पूर्वोत्तर भारत की यात्रा यादगार लगती है। पूर्वोत्तर की यात्रा करना मुझे हमेशा से भाता है। पूर्वोत्तर मंे पर्यटन की बहुत संभावना है। तवांग, नागालैंड की घाटियों, मेघालय, अरूणाचल में हर कण-कण उदारता से आपका स्वागत करता है। वहां चावल हर जगह मिल जाता है। मैं बहुत ज्यादा भोजन प्रेमी नहीं हूं। इसलिए मुझे यात्रा में परेशानी नहीं होती है। पूर्वोत्तर को लेकर लोगों बहुत से भ्रम हैं। यह भ्रम तभी टूटेगा जब लोग यात्राएं करेंगें। वहां भोजन या ठहरने की कोई दिक्कत नहीं होती है। पूर्वोत्तर के लोगों के मन में अपनी सभ्यता, परंपरा और संस्कृति के प्रति जो श्रद्धा-विश्वास है। जब भी याद करता हूं, उसके सामने मैं नतमस्तक हो जाता हूं।

Thursday, May 13, 2021

shashiprabha: अपनी मूल से जुड़े---- शशिप्रभा तिवारी

shashiprabha: अपनी मूल से जुड़े---- शशिप्रभा तिवारी:                                                    अपनी मूल से जुड़े -शशिप्रभा तिवारी ओडिशी नृत्य गुरू मायाधर राउत राजधानी दिल्ली में रहते है...

अपनी मूल से जुड़े---- शशिप्रभा तिवारी

                                                   अपनी मूल से जुड़े -शशिप्रभा तिवारी

ओडिशी नृत्य गुरू मायाधर राउत राजधानी दिल्ली में रहते हैं। उन्होंने अपने नृत्य विद्यालय जयंतिका के जरिए कई पीढ़ियों को ओडिशी नृत्य सिखाया है। उन्होंने अपनी पुत्री और शिष्या मधुमीता राउत को ओडिशी नृत्य का प्रशिक्षण दिया। मधुमीता राउत अपनी गुरू की परंपरा का अनुसरण करती हैं। वह अपने गुरू की नृत्य परंपरा को अपनी शिष्य-शिष्याओं को सौंप रही हैं। पिछले दिनों उन्होंने अपने गुरू के नब्बेवें जन्मदिन के अवसर पर आनंद उत्सव का आयोजन किया। दरअसल, गुरू के सम्मान में यह आयोजन एक महत्वपूर्ण कदम था।

 आनंद उत्सव की अंतिम संध्या में 25मार्च को ओडिशी नर्तक लकी मोहंती ने एकल नृत्य पेश किया। उन्होंने देश पल्लवी से नृत्य आरंभ किया। इसकी नृत्य परिकल्पना गुरू कुमकुम मोहंती और संगीत दीपक बासु ने की थी। इस प्रस्तुति में नर्तक लकी मोहंती ने लयात्मक पद, हस्त और अंग संचालन पेश किया। एक-एक बारीकियों को उन्होंने बहुत ही गरिमा और संतुलन के साथ नृत्य में दर्शाया। उनके तकनीकी पक्ष की विशुद्धता आकर्षक और काफी सधी हुई थी। 

उनकी अगली पेशकश गुरू मायाधर राउत की नृत्य रचना दुर्गा स्तुति थी। इसे लकी ने गुरू मायाधर राउत और नृत्यांगना व गुरू मधुमीता राउत के सानिध्य में सीखा है। यह ललिता सहस्रनाम और दुर्गा सप्तशती के श्लोकों पर आधारित थी। दुर्गा स्तुति राग अहीर भैरव और जती ताल में निबद्ध थी।  


ओडिशी नृत्य के क्षेत्र में युवा नर्तक गिने-चुने हैं। उनमें से लकी मोहंती हैं। लकी मोहंती ने कटक के कला विकास केंद्र में ओडिशी नृत्य अपनी गुरू कुमकुम मोहंती से सीखा है। इसके अलावा, वह गुरू कंदु चरण बेहरा और गुरू मधुमीता राउत से समय-समय पर उनकी व उनके गुरूओं की चीजों को सीखते रहे हैं। इस संदर्भ में, ओडिशी लकी मोहंती कहते हैं कि जब भी मुझे अवसर मिलता है। मैं अपने गुरू के अलावा अन्य गुरूओं से सीखने की कोशिश करता हूं। ऐसे ही, गुरू मायाधर कटक आए तो मैं उनसे और मधुमीता दीदी से सीखने की कोशिश की। मुझे गुरू मायाधर जी की अभिनय पक्ष बहुत प्रभावित करता है। इसलिए जब भी मौका मिलता है, मैं उनके पास आकर ओडिशी नृत्य की बारीकियों को सीखता हूं। 

ओडिशी नर्तक लकी दूरदर्शन के मान्यता प्राप्त कलाकार हैं। उन्हें संस्कृति मंत्रालय की ओर से सीनियर फेलाशिप मिल चुका है। उन्हें श्रृंगार मणि, ओडिशी युवा गंधर्व सम्मान, छत्तीसगढ़ प्रतिभा सम्मान मिल चुके हैं। अपने अनुभव को साझा करते हुए, लकी बताते हैं कि मैं उनदिनों रायपुर में रहता था। वहां मैं ओडिशी नृत्य सिखाता था। यह नृत्य वहां के युवाओं ने बहुत मन से सीखा। वहां खैरागढ़ विश्वविद्यालय के साथ भी मुझे काम करने का अवसर मिला। वास्तव में, मैं अपनी जन्मभूमि कटक से ज्यादा दिनों तक दूर नहीं रह सका और वापस यहां आ गया। 

युवा साथियों को अपनी संदेश में ओडिशी नर्तक लकी मोहंती कहते हैं कि अपनी कला-संस्कृति को सीखने से आत्मसंतोष मिलता है। आप अपनी भाषा, अपने पहरावे और अपने गीत-संगीत से जुड़कर ही अपने व्यक्तित्व का सही विकास कर सकते हैं। इससे हमारे व्यक्तित्व में निखार आता है और मन में शांति आती है। इतना ही नहीं आत्मविश्वास भी बढ़ता है। इसलिए, अपनी कला से जुड़िए ताकि आप अपनी मूल से जुड़े रह सकें। 



Thursday, April 15, 2021

shashiprabha: आनंद उत्सव का आयोजन --शशिप्रभा तिवारी

shashiprabha: आनंद उत्सव का आयोजन --शशिप्रभा तिवारी:   ओडिशी नृत्य गुरू मायाधर राउत राजधानी दिल्ली में रहते हैं। उन्होंने अपने नृत्य विद्यालय जयंतिका के जरिए कई पीढ़ियों को ओडिशी नृत्य सिखाया है...

आनंद उत्सव का आयोजन --शशिप्रभा तिवारी

 

ओडिशी नृत्य गुरू मायाधर राउत राजधानी दिल्ली में रहते हैं। उन्होंने अपने नृत्य विद्यालय जयंतिका के जरिए कई पीढ़ियों को ओडिशी नृत्य सिखाया है। उन्होंने अपनी पुत्री और शिष्या मधुमीता राउत को ओडिशी नृत्य का प्रशिक्षण दिया। मधुमीता राउत अपनी गुरू की परंपरा का अनुसरण करती हैं। वह अपने गुरू की नृत्य परंपरा को अपनी शिष्य-शिष्याओं को सौंप रही हैं। पिछले दिनों उन्होंने अपने गुरू के नब्बेवें जन्मदिन के अवसर पर आनंद उत्सव का आयोजन किया।


जयंतिका की ओर से तीन दिवसीय आनंद उत्सव त्रिवेणी सभागार में संपन्न हुआ। समारोह की पहली संध्या 23मार्च को थी। इसमें ध्रुपद, हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत और कर्नाटक संगीत के कलाकारों ने अपने जलवे से उत्सव को नवाजा। समारोह में कर्नाटक संगीत के गायक जी इलंगोवन ने गायन पेश किया। उन्होंने राग भूपालम और मिश्र चापू ताल में निबद्ध रचना को सुर में पिरोया। महाराजा स्वाति तिरूनाल की रचना ‘गोपालक पाहिमाम‘ को इलंगोवन ने मधुर आवाज में पेश किया। उन्होंने राग कल्याणी में रचना ‘त्वमेव माता, पिता त्वमेव‘ को सुरों में पिरोया। यह आदि ताल में थी। उनके साथ बांसुरी पर हमेशा की तरह जी रघुरामन और पखावज पर एमवी चंद्रशेखर ने संगत किया। सारंगी वादक जनाब कमाल साबरी ने राग जोग पेश किया। उनके साथ तबले पर रमीज रजा और श्रीजगन्नाथ ने संगत किया। समारोह में डागर घराने के ध्रुपद गायक उस्ताद वसीफुद्दीन डागर ने शिरकत किया। उन्होंने ध्रुपद ‘सुर नर मुनि ज्ञानी‘ पेश किया। पखावज पर मोहन श्याम शर्मा ने उनका साथ दिया।

                                                              

त्रिवेणी सभागार में आयोजित आनंद उत्सव की दूसरी संध्या में ओडिशी नृत्य पेश किया गया। समारोह में गुरू मधुमीता राउत की शिष्य-शिष्याओं ने नृत्य पेश किया। इस आयोजन में गुरू मायाधर राउत की नृत्य रचनाओं को नृत्य में पिरोया गया। 24मार्च को नृत्य के कार्यक्रम का आगाज डाॅ सोनाली प्रधान की पेशकश से हुआ। डाॅ सोनाली ने साभिनय पेश किया। उन्होंने उड़िया गीत ‘नाचंति कृष्णा‘ पर भावों को दर्शाया। दूसरी पेशकश अष्टपदी पर अभिनय नृत्य की प्रस्तुति थी। जयदेव की अष्टपदी ‘याहि माधव याहि केशव‘ पर राधा के भावों को नृत्यांगना प्रियंका वेंकटेश्वरन ने पेश किया। कृष्ण की प्रतिक्षा में अधीर राधा को खंडिता नायिका के तौर पर निरूपित किया गया। 


भुवनेश्वर से पधारे गुरू पीतांबर बिस्वाल ने ओडिशी नृत्य पेश किया। उनकी पहली पेशकश ‘सते कि भंगि काला‘ पर अभिनय नृत्य की पेशकश थी। इसकी संगीत रचना सत्यव्रत कथा की थी। यह राग देश और जती ताल में निबद्ध थी। इस रचना में सखी से राधा कहती है कि वह कृष्ण की आंखों और आकर्षण के अधीन हो गई। इन्हीं भावों को गुरू पीतांबर ने चित्रित किया। वहीं, अगली प्रस्तुति सूर्य स्तुति ‘आदि देव नमस्तुभ्यं‘ में सूर्य के रूप और उनकी महिमा का गायन पेश किया।


इस समारोह की अंतिम संध्या 25मार्च को आयाजित थी। इस आयोजन में जयंतिका की कलाकार नित्या पंत और साथी कलाकारों ने दशावतार पेश किया। इसकी परिकल्पना गुरू मायाधर राउत की थी। दूसरी पेशकश नृत्य रचना ‘जागो महेश्वर‘ थी। इसे अंकिता नायक ने पेश किया। इसकी संगीत रचना बालकृष्ण दास ने रची थी। कवि कालीचरण पटनायक की रचना ‘जागो महेश्वर योगी दिगंबर‘ पर आधारित नृत्य अंकिता की अंतिम प्रस्तुति थी। इसके संगीत की परिकल्पना बालकृष्ण दास ने की थी। शास्त्रीय नृत्य के तांडव पक्ष का प्रयोग इस नृत्य में था। शिव से जुड़े त्रिपुरासुर वध, सती दाह, वीरभद्र भस्म, समुद्रमंथन, गंगावतरण जैसे 18आख्यानों इस नृत्य में दर्शाया गया। इस प्रस्तुति की खासियत थी कि इसमें शिव के चिदंबरम, लिंगराज, पशुपति, महाकाल, बैधनाथ आदि मंदिरों से प्रेरित मुद्र्राओं व भंगिमाओं को नृत्यांगना ने निरूपित किया। समारोह में ओडिशी नर्तक लकी मोहंती ने नृत्य पेश किया। लकी मोहंती ने पल्लवी और दुर्गा स्तुति पेश किया। 


Wednesday, April 14, 2021

कला और संस्कृति अमूल्य धरोहर हैं-शशिप्रभा तिवारी

               

संस्कार और संस्कृति किसी भी देश की पहचान होती है। हर देश की अपनी अनूठी संस्कृति होती है। फिर, जब भारत की बात होती है, तब यह तो अपनी सांस्कृतिक विविधता का अनोखा रूप प्रदर्शित करता है। यही हमारी विशिष्टता ही, हमारी समृ़द्ध सांस्कृतिक पहचान है। यह सांस्कृतिक मूल्य सदियांे पुरानी है। इसे संजोना तो जरूरी है ही, इससे भावी पीढ़ी को रूबरू करवाना और उसे जीवन मूल्यों से जोड़े रखना समाज और देश की जिम्मेदारी है। ऐसा आर्ट मैनेजर मालविका मजूमदार मानती हैं।

आप सान्स्कृतिक आयोजन से कैसे जुड़ी?
मालविका मजूमदार-- लगभग तीस सालों तक सांस्कृतिक क्षेत्र की विशिष्ट संस्था स्पीक मैके से जुड़ी रही हूं। स्पीक मैके में बतौर सीनियर प्रोग्राम मैनेजर-आर्टिस्ट और मीडिया कार्य करती रहीं। वैसे उन्होंने अपने करियर की शुरूआत दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी इरविन काॅलेज से की। यहां वह अंग्रेजी की लेक्चरर रहीं। फिलहाल, वह बतौर आर्ट मैनेजर कार्य कर रही हूं ।

गौरतलब है कि 29 अप्रैल को विश्व नृत्य दिवस है। इस अवसर पर वह नृत्य वर्कशाप का आयोजन स्कूलों में कर रही हैं। इस संदर्भ में मालविका मजूमदार बताती हैं कि स्पीक मैके में काम करते हुए, मैं देश के हर क्षेत्र के कला और कलाकार को जान पाई। हालांकि, मेरे जीवन का काफी समय दिल्ली में बीता है। मेरे माता-पिता मुझे शहर में होने वाले नाटक, फिल्म, संगीत-नृत्य के कार्यक्रमों शुरू से लेकर जाते थे। मेरे पिता सरकारी सेवा में थे, सो उनका तबादला हमेशा होता रहता था। इसलिए भी मुझे देश के विभिन्न प्रदेशों की सांस्कृतिक विशेषता से परिचित होने का अवसर मिला और चीजों के प्रति मेरी दृष्टि एवं समझ विकसित हुुईं।


वैल्यू एजुकेशन विद आर्ट एंड कल्चर क्यों जरूरी है?
मालविका --जीवन के इस मुकाम पर मैं समाज और लोगों से अपने अब तक के अनुभव को साझा करना चाहती हूं। मुझे लगता है कि शैक्षणिक संस्थाओं के साथ जुड़कर कला व संस्कृति के जरिए वैल्यू एजुकेशन छात्र-छात्राओं को दी जा सकती है। मैं चाहती हूं कि कला और कलाकारों के जीवन अनुभव का लाभ विद्यार्थियों और लोगों को मिले। कला और संस्कृति से जुड़ कर ही किसी का व्यक्तित्व विशिष्ट बनता है। मेरी कोशिश है कि मैं कला की समृद्ध विरासत से लोगों को परिचित करवा पाऊं।

आपकी आगामी आयोजन कौन-से हैं?
मालविका- पिछले साल 2020 से ही कोविड-19 के कारण सभी अपनेे-अपने घरों की चारदिवारों में कैद हो गए हैं। इससे युवा और स्कूली बच्चे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। ऐसे हालत में, मुझे लगता कि सांस्कृतिक गतिविधि जिसमें-विविध कलाओं की प्रस्तुति, कार्यशाला, लेक्चर व डेमोन्स्ट्रेशन शामिल होंगे। शास्त्रीय संगीत, नृत्य, लोक कलाओं, हस्त कलाएं, चित्रकला की प्रस्तुतियों और कार्यशालाओं के माध्यम से युवाओं को कला विशेष, कलाकारों और उनकी रचनात्मकता को करीब से देखने-सुनने का विशिष्ट अवसर मिलेगा। जिससे उन युवाओं को अपने दिनचर्या के अलावा, कुछ नया सीखने, कुछ नया करने और कुछ नई पे्ररणा से रूबरू होने का अवसर मिलेगा। यह मेरा एक समेकित प्रयास है ताकि युवा छात्र-छात्राओं और आम लोगों के जिंदगी में कला-संस्कृति के माध्यम से कुछ उत्साह और कुछ उमंग भर सकूं।

हमारे जीवन में कलाओं का क्या महत्व है?
मालविका-दरअसल, हमें अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत और उसकी बौद्धिकता पर गर्व है। हमारी कलाएं और संस्कृति हमें जिंदगी से जोड़ती हैं। इन्हें अपनाकर हमारे भीतर आत्मविश्वास आता है। हमारे अंदर अपने प्रति और लोगों के प्रति एक जिम्मेदारी और संवेदनशीलता की भावना जागृत होती है। इसलिए, कला और संस्कृतियों विभिनन आयामों से जोड़कर, विद्यार्थियों के जीवन को अच्छी दिशा दी जा सकती है। उनमें सकारात्मक ऊर्जा का संचार कर सकते हैं। यह उचित समय है कि हम शिक्षा में कला-संस्कृति की महत्वपूर्ण भूमिका पर विचार करें।

Saturday, April 10, 2021

shashiprabha: कदाचित कालिंदी तट ---शशिप्रभा तिवारी

shashiprabha: कदाचित कालिंदी तट ---शशिप्रभा तिवारी: जयंतिका की ओर से नृत्य समारोह ‘भज गोविंदम्‘ का आयोजन दिल्ली में हुआ। यह समारोह नौ अप्रैल को इंडिया हैबिटैट सेंटर के स्टेन सभागार में आयोजित ...

कदाचित कालिंदी तट ---शशिप्रभा तिवारी


जयंतिका की ओर से नृत्य समारोह ‘भज गोविंदम्‘ का आयोजन दिल्ली में हुआ। यह समारोह नौ अप्रैल को इंडिया हैबिटैट सेंटर के स्टेन सभागार में आयोजित था। इस समारोह में गुरू मधुमीता राउत की शिष्याओं ने नृत्य पेश किया। गुरू शिष्य परंपरा के तहत गुरू मधुमीता राउत ने अपने पिता व गुरू मायाधर राउत से ओडिशी नृत्य सीखा। गुरू मायाधर राउत को पद्मश्री और संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित किया गया है। 

नृत्य रचना ‘भज गोविंदम‘ की शुरूआत मंगलचरण स्वरूप ‘कदाचित कालिंदी तट विपिन‘ से हुुई। यह नृत्य रचना गुरू मायाधर राउत की थी। आदि शंकराचार्य रचित जगन्नाथ अष्टकम से ली गई थी। इस रचना में श्री वंृदावन में यमुना के तट कृष्ण राधा व गोपियों से मिलते हैं। वही कृष्ण श्रीजगन्नाथ भी हैं। इन्हीं भावों को शिष्याओं ने पेश किया। इस प्रस्तुति में भूमि प्रणाम व त्रिखंडी प्रणाम विशेषतौर पर शामिल थे। इसमें शिरकत करने वाले कलाकार थे-प्रीति परिहार, वसुंधरा चोपड़ा, नित्या पंत, डाॅ प्रियंका वेंकटेश्वरन, प्रणति मालू, शाल्वी सिंह और अंजलि राॅय।



इन दिनों उत्तर भारत में बसंत की बहार है। और ऐसे में महाकवि जयदेव की अष्टपदी ‘ललित लवंग लता परिशीलन‘ को प्रस्तुत करना, अपने-आप में बहुत समीचीन है। गुरू मधुमीता राउत ने इसका चयन किया यह उनकी सराहनीय दृष्टि है। इस अष्टपदी की संगीत रचना भुबनेश्वर मिश्र की थी और नृत्य परिकल्पना गुरू मायाधर राउत की थी। बसंत ऋतु की बहार अपनी चरम पर है। सभी वृक्ष और लताएं कुसुमित-पल्लवित हैं। ऐसे समय में राधा कृष्ण के लिए व्याकुल हैं और सखी से कृष्ण के बारे में पूछती है। लास्यपूर्ण इस प्रसंग को अभिनय के जरिए चित्रित किया गया। इसमें नित्य पंत, प्रणति मालू, तारिणी सिंह, अकेशा जैन और अंजलि राॅय शामिल थे।

अभिनय अगली पेशकश थी। मध्य युगीन उड़िया गीत ‘नाचंति कृष्ण‘ पर आधारित थी। यह उड़िया राजा ब्रम्हाबर बीरबर राय की रचना है। इसकी नृत्य परिकल्पना गुरू मायाधर राउत ने की है। संगीत रचना बंकिम सेठी ने की थी। यह राग आरभि में निबद्ध थी। इस पेशकश मंे अभिनय पक्ष का सुंदर विवेचन प्रस्तुत किया। 




राग बैरागी पर आधारित बैरागी पल्लवी पेश किया। ओडिशी की तकनीकी पक्ष को विस्तार दिया गया। ओडिशी की विभिन्न भंगिमाओं और करणों को लयात्मक गतियों के जरिए निरूपित किया। उनकी अंतिम पेशकश दशावतार थी। इसमें विष्णु के दस अवतारों को वर्णित किया गया। दोनो ही नृत्य रचनाएं गुरू मायाधर राउत की थीं। इसमें प्रीति परिहार, डाॅ प्रियंका, वसुंधरा चोपड़ा, नित्या, प्रणति, तारिणी सिंह और अकेशा जैन ने नृत्य पेश किया। शिष्याओं का आपसी संयोजन और तालमेल संतुलित था। इससे उनके रियाज का सहज ही भान हो रहा था। कोविड के इस कठिन दौर में गुरू मधुमीता शिष्याओं के मनोबल को कला के जरिए बनाए हुए हैं। उन्हें कला से जोड़े हुए हैं, यह बड़ी बात है। 


Wednesday, April 7, 2021

shashiprabha: आ जा बलम परदेसी! -- शशिप्रभा तिवारी

shashiprabha: आ जा बलम परदेसी! -- शशिप्रभा तिवारी: कथक नृत्यांगना प्रतिभा सिंह पटना में जन्मी और पली-बढी हैं। उन्हें कला की समझ अपने घर में ही मिली। शुरू में उन्होंने पटना में कथक नृत्य सीखना...

आ जा बलम परदेसी! -- शशिप्रभा तिवारी


कथक नृत्यांगना प्रतिभा सिंह पटना में जन्मी और पली-बढी हैं। उन्हें कला की समझ अपने घर में ही मिली। शुरू में उन्होंने पटना में कथक नृत्य सीखना शुरू किया। बाद में, उन्होंने गुरू बिरजू महाराज और गुरू जयकिशन महाराज से कथक नृत्य सीखा है। कला मंडली रंगमंडली की निर्देशक प्रतिभा सिंह को साहित्य कला परिषद सम्मान और विष्णु प्रभाकर कला सम्मान से सम्मानित हैं। उन्हें संस्कृति मंत्रालय की ओर से जूनियर फेलोशिप और अमूर्त धरोहर फेलोशिप भी मिल चुके हैं। वह निरंतर अपने सफर को जारी रखीं हुईं है। वह एक ओर कथक नृत्य आम बच्चों के साथ किन्नरों को नृत्य सीखाती हैं। साथ ही, वह रंगमंच के लिए उत्साहित होकर काम कर रही हैं।

पिछले दिनों संस्कृति मंत्रालय और कथक केंद्र की ओर से सात दिवसीय नृत्य समारोह का आयोजन किया गया। स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर स्वाधीनता के रंग फागुन के संग समारोह था। इसमें 24मार्च को स्वामी विवेकानंद सभागार में कथक नृत्यांगना प्रतिभा सिंह ने शिरकत किया। उन्होंने नृत्य रचना ‘इश्क रंग‘ पेश किया। इसके अलावा, एक अन्य समारोह विविधा में भी उन्होंने नृत्य किया।

आजादी का प्रश्न पूरे विश्व में आजादी के साथ अवतरित होता है। उसके देह में बसी आत्मा परमात्मा से मिलने के लिए। मुक्ति के लिए, परम स्वाधीनता को प्राप्त करने के लिए छटपटाती रहती है। इश्क का होना स्वाधीनता पर विश्वास, आस्था करना ही तो है। इसी संवाद ‘जा तैणू इशक हो जावे‘ से नृत्य रचना ‘इशक रंग‘ की शुरूआत होती है। संवाद के साथ ही, कथक नृत्यांगना प्रतिभा सिंह अभिनय पेश करती हैं। कलाम ‘अव्वल-ए शब बज्म की रौनक‘ के बोल पर नृत्यांगना ने हस्तकों और मुख के भावों के जरिए बैठकी अंदाज में अभिनय में पेश किया। यहीं संवाद प्रियतम की याद में प्रियतमा अपने प्रिय को याद करती है। वह घूंघट की गत, केश सज्जा का अंदाज, आंखों व कलाई की गतों को अपने नृत्य में बखूबी प्रयोग किया। इसके साथ ही, रचना ‘नैना मोरे तरस गए‘ पर नृत्यांगना प्रतिभा ने भाव पेश किया। विरहिणी नायिका के भाव के चित्रण में अच्छी परिपक्वता नजर आई, जो कथक नृत्य में कम देखने को मिलती है।
अगले अंश में, कव्वाली ‘दौड़ छपट कदमों पर गिरूंगी‘ पर प्रतिभा ने मोहक अभिनय पेश किया। शेख फरीद की रचना ‘वेख फरीदा मिट्टी खुली‘ पर भावों को दर्शाया। इसके बाद, उन्होंने अमीर खुसरो की लोकप्रिय रचना ‘आज रंगी है री मां‘ को नृत्य पिरोया। इसे कव्वाली के अंदाज में गायकों ने गाया और नृत्यांगना प्रतिभा ने भावों को दर्शाया।


एक अन्य विविधा का आयोजन कलामंडली की ओर से किया गया। यह समारोह 26-27मार्च को आयोजित था। इस आयोजन में भी कलाकारों ने नृत्य पेश किया। आज रंगी है रचना पर नृत्यांगना श्रुति सिन्हा और नर्तक नरेंद्र जावड़ा ने प्रतिभा सिंह का साथ दिया। एक रचना ‘ता थेई ता धा‘ पर नवीन जावड़ा ने पैर का काम पेश किया। वहीं, एक अन्य रचना में शिव के रूप को दर्शाया। प्रतिभा और श्रुति ने पैर के काम के साथ 21चक्करों का प्रयोग किया। अगले अंश में ठुमरी ‘काहे को मोरी बईयां गहो री‘ पर भाव पेश किया। इसके अलावा, होली ‘खेलें मसाने में होली‘ और ‘बाबा हरिहर नाथ सोनपुर में रंग खेले‘ पर कलाकारों ने नृत्य पेश किया। इन रचनाओं को गायक बृजेश मिश्र और हरिशंकर ने गाया। इसमें शिरकत करने वाले अन्य कलाकार थे-जया प्रियदर्शनी, शांभवी शुक्ल, रमैया और अभय महाराज।
इस पेशकश में संगत करने वाले कलाकारों में शामिल थे-जमील अहमद, उमा शंकर, आशिक कुमार, योगेश गंगानी, सुजीत गुप्ता और योगेश शंकर।

Tuesday, April 6, 2021

shashiprabha: एरी जसोदा तोसे -- शशिप्रभा तिवारी

shashiprabha: एरी जसोदा तोसे -- शशिप्रभा तिवारी: एरी जसोदा तोसे ...

एरी जसोदा तोसे -- शशिप्रभा तिवारी

एरी जसोदा तोसे

शशिप्रभा तिवारी

कथक नृत्यांगना इशिरा पारीख और नर्तक मौलिक शाह की जोड़ी का नृत्य देखना किसी रोमांच से कम नहीं रहा है। यह नृत्य युगल अपनी मोहक नृत्य के लिए मशहूर रही है। दोनों ही दूरदर्शन के टाॅप ग्रेड आर्टिस्ट हैं। वो लोग देश के सभी महत्वपूर्ण उत्सवों में नृत्य पेश कर चुके हैं। उन्हें सुर संसद और नवदीप सम्मान मिल चुके हैं। इसके अलावा, इशिरा और मौलिक माॅरीशस, कनाडा, ब्रिटेन, हाॅलैंड, मैक्सिको के विभिन्न आयोजनों में शिरकत कर चुके हैं। पिछले दिनों कथक नृत्यांगना इशिरा पारीख ने नुपुर एकेडमी, एलए के आयोजन के दौरान नृत्य पेश किया।

नुपुर एकेडमी की ओर से यूट्यूब व फेसबुक पेज पर यह समारोह आयोजित किया गया था। चैदह फरवरी को आयोजित समारोह में इशिरा पारीख ने एकल नृत्य पेश किया। गुरू कुमुद लाखिया के सानिध्य में उन्हांेने नृत्य सीखा है। वह अपने गुरू के अंदाज को बखूबी निभा रही हैं। हालांकि, परंपरा के साथ नवीनता को अपनाना उनका स्वभाव रहा है, जो उनके नृत्य में नजर आता है। उनके नृत्य में रचनात्मकता का सौंदर्य आकर्षक है। यह उनके नृत्य को देखकर एक बार फिर से महसूस हुआ।
यह सच है कि सोशल मीडिया के माध्यम से दर्शकों से रूबरू होना आसान नहीं है। पर वरिष्ठ नृत्यांगना इशिरा की उपस्थिति गरिमापूर्ण थी। उन्होंने बनारस घराने के पंडित राजन व पंडित साजन मिश्र की गाई देवी स्तुति को अपनी पेशकश का आधार बनाया। यह स्तुति राग दुर्गा और तीन ताल में निबद्ध थी। पंडित रामदास रचित स्तुति के बोल थे-‘जय-जय दुर्गे माता भवानी‘। उन्होंने देवी के रूप को हस्तकों और भंगिमाओं से दर्शाया। एक तिहाई में पैर के साथ हस्तकों और मुख के भाव के जरिए देवी के श्रृंगार व रौद्र रूप को निरूपित करना प्रभावकारी था। वहीं, देवी के महिषासुरमर्दिनी, दयानी, शिवानी, भवानी रूपों को चित्रित करना लासानी था। इस स्तुति का समापन सोलह चक्कर से किया।


कथक नृत्यांगना इशिरा पारीख ने अपनी प्रस्तुति के क्रम में ठुमरी पर भाव पेश किया। ठुमरी ‘एरी जसोदा तोसे लरूंगी लराई‘ को अपनी गुरू कुमुदनी लाखिया से सीखा था। इसको पंडित अतुल देसाई ने संगीतबद्ध किया था। यह राग सोहनी में थी। इस प्रस्तुति में इशिरा ने माता यशोदा, गोपिका और कृष्ण के भावों को बहुत ही निपुणता के साथ पेश किया। एक-एक भाव को बारीक और महीन अंदाज में वर्णित किया। उन्होंने नृत्य में घूंघट, मटके, नजर की गतों का प्रयोग कई तरीके से किया। जिसमें परिपक्वता के साथ-साथ नजाकत भी दिखी।

चैदह मात्रा के धमार ताल में कथक नृत्यांगना इशिरा ने शुद्ध नृत्त को पिरोया। उन्होंने तिहाई में पंजे और एड़ी का काम पेश किया। थाट में नायिका के खड़े होने के अंदाज को दर्शाया। इसमें कलाई की घुमाव व पलटे का प्रयोग मोहक था। एक रचना ‘गत धा ता धा गिन ता धा‘ में उत्प्लावन का अंदाज काफी सधा हुआ था। उन्होंने गिनती की तिहाइयांे को अपने नृत्य में शामिल किया। आरोह और अवरोह का अंदाज ‘धा‘ के बोल पर पेश किया। परण ‘धा गिन कत धा‘ में पांच-पांच चक्करों का प्रयोग मार्मिक लगा। वहीं, चक्करदार तिहाई में इक्कीस चक्करों का प्रयोग और लयकारी में पैर का काम प्रभावकारी था।
कई वर्ष बाद, इशिरा को नृत्य करते देखना अच्छा लगा। उन्होंने पूरे प्रोफेशनल और पूरे गंभीर तरीके से प्रोग्राम को पेश किया। उनके नृत्य को देखकर ऐसा लगा कि सभागार में बैठकर देख रहे हैं। लाइव म्यूजिक में उनके साथ संगत किया-प्रहर वोरा, जाॅबी जाॅय, श्रेयश दवे और हृदय दे