कथक और पहाड़ी चित्रों का आपसी रंग
कविता ठाकुर, कथक नृत्यांगना
रेबा विद्यार्थी से सीख कर आए हुए थे। जिन्होंने लखनऊ घराने की तकनीक को सीखा था। सो उनको दिक्कत नहीं होती थी। पर मैं तो जयपुर घराने की तकनीक सीखी थी, सो मेरा मन नहीं लगता था। जब नजाकत और सौम्यता अच्छी लगती थी। मेरे दोस्त धीरे-धीरे बाहर के प्रोग्राम और ट्यूशन वगैरह शुरू कर दिए थे। लेकिन, मैं सिर्फ अपने नृत्य पर ध्यान देने लगी। इससे ऐसा हुआ कि मेरे जो साथी पहले पहले-दूसरे स्थान पर आते थे, उनके जगह पर मैं पहुंच गई। मुझे खुद पर विश्वास ही नहीं होता था।
मेरी पोस्ट डिप्लोमा की परीक्षक रोहिणी भाटे जी थीं। उस समय मैं रामचरितमानस के सुंदरकाण्ड के दोहे-चैपाई को नृत्य में पिरोया था। अगले दिन, हमलोग क्लास में थे, तभी रोहिणी जी आकर गुरू जी से बोलीं कि कविता ठाकुर ने कल अच्छा काम दिखाया। उनकी बात सुनकर मैं मन ही मन मुस्कुराई थी।
मैं गुरू मुन्ना शुक्ला जी के पास चैदह वर्ष लगातार नृत्य सीखा है। मैं कथक केंद्र से पास होने के बाद भी सीखती रही। क्योंकि कथक केंद्र अपने छात्रों को यह सुविधा देता है। कथक केंद्र से रिटायर हुए, तो उनके घर में जा कर सीखती रही। अभी भी कुछ पूछना होता है, तो उनके पास जाती हूं।
मैंने गुरू जी से बहुत कुछ सीखा। अभी कोविड के समय नींद की समस्या से जूझ रही थी। गुरू जी से यूं ही साढ़े नौ मात्रा के ताल की चर्चा की। उन्होंने उसके बोल बताए। उसके बाद, मैं दिन रात उसके ही बोलों की पढ़ंत करती रहती। तो एक रचनात्मक और सृजनात्मक शक्ति गुरू से मिलती है। गुरू जी की लक्ष्मी ताल बहुत खास है। एक बार चर्चा के दौरान पंडित किशन महाराज ने उनसे लक्ष्मी ताल की चर्चा की। उस समय गुरू जी ने बताया कि मेरी एक विदेशी छात्रा को लक्ष्मी ताल से ही नृत्य सिखाना शुरू किया और वह बहुत अच्छा कथक करती हैं। फिर, उस विदेशी छात्रा ने नृत्य प्रस्तुत भी किया।
गुरू जी से बहुत कड़क थे। उनके क्लास में मैं सबसे पीछे खड़ी होती थी। अगर, कुछ थोड़ी-सी गलती हुई। वह खूब जोर से डांटते और हम कमरे से बाहर हो जाते। फिर पूरे समय उसी बरामदे नाचते रहते। लेकिन, दोबारा क्लास में जाने की हिम्मत नहीं होती थी। मेरा तो तीन साल वहीं बरामदे में ही रियाज चला है। मैं गुरू जी से डरती बहुत थी।
उनकी अनुशासनप्रियता गजब की थी। हमारी सफेद डेªस पहनना होता था। दुपट्टे को भी कायदे से लगाना। घुंघरू नहीं पहने तो क्लास नहीं कर सकते। घड़ी पहन कर क्लास में नहीं जा सकते थे। लेकिन, शनिवार को हम पूरे स्टूडेंट्स एक साथ तत्तकार और पैर का काम सारे दिन करते थे। तब बहुत मजा आता था। अब महसूस होता है कि उनका कड़क होना ही हमें इस योग्य बनाया कि हम मंच पर नृत्य कर पा रहे हैं।
आज शिष्यों मंे गुरू और कला के प्रति कोई भाव नहीं है। लोगों को शास्त्रीय नृत्य या संगीत के प्रति कोई भक्ति भाव नहीं है। हम आज भी गुरू जी के बराबर मंे नहीं बैठ सकते। मेरे क्लास में अक्सर नीलिमा अजीम आया करती थीं। वह भी नीचे ही बैठती थीं।
गुरू के तौर पर मैं उदार हंू। मैं अपने शिष्य-शिष्याओं को हर तरह से मदद करती हूं। मैं यह जानती हूं कि मेरे किस्मत में जो है, वह मुझे मिलेगा। मैं चाहती हंू कि मेरे स्टूडंेट्स के मन में कला के प्रति एक लगाव हो। उनसे समर्पण की उम्मीद मैं नहीं करती। वह बाॅलीवुड की ग्लैमर से दूर रहे।
मेरी पहली गुरू इला पांडेय जी थीं। उन्होंने बहुत प्यार से हमें अपने परिवार के सदस्य की तरह रखा और अपनापन दिया। वो हमलोग को बहुत घरेलू और पारिवारिक माहौल में रखती थीं। वह अपने घर से खाना बनवा कर सबके लिए लातीं और खिलातीं थीं। फिर, क्लास में अंगीठी बनी हुई थी, उस पर हम शिष्याएं चाय बनाते। उसके बाद जूठे बर्तनों को साफ करते थे। जन्मदिन पर वह हमें गिफ्ट देती थीं। वह मुझे सूट देती थीं। जिसका मैं साल भर इंतजार करती थी, कि कब मेरा जन्मदिन आएगा। तो गुरू जी से अच्छा सा उपहार मिलेगा। मैं भी अपनी शिष्याओं को इस तरह की छोटी-छोटी खुशियां देना चाहती हूं। अपनी गुरू जी से प्यार देना और मिल-बांटकर खाना सीखा।
गुरू मुन्ना शुक्ला का अनुशासन और समय की कद्र करने का अंदाज। अद्भुत है। वह बहुत सलीके और समय पर अपना काम करने के पाबंद हैं। उनका प्रोग्राम दो महीने बाद होना तय है। तो वह उसकी तैयारी डेढ़ महीने पहले कर लेते हैं। डांस की स्क्रिप्ट, संगीत, काॅस्ट्यूम, डांसर सब तय हो जाता है। फिर, सिखाने का तरीका गजब है।
कोरोना की वजह से विपरीत स्थितियां हैं। पर उनकी दिशा-दशा का ठीक रहना जरूरी है। नए कलाकारों को देखकर लगता है कि बहुत मेहनत से नृत्य कर रहे हैं। उनके सामने प्रतियोगिता बहुत है। उन्हें कमाने के लिए ट्यूशन और डांस करने के बहुत मौके हैं। अगर समर्पित हैं तो अपनी कला का दामन नहीं छोड़ना चाहिए। परिस्थितियां कभी एक सी नहीं होती। मुझे याद आता है कि पंडित बिरजू महाराज बताते थे िकवह साइकिल चलाकर डांस सिखाने जाते थे और परफाॅर्मेंस के लिए भी जाते थे। उन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपनी जिजीविषा और मेहनत से अपनी कला को जिंदा रखा। उन युवा कलाकारों में जज्बा बना रहा और अपने लक्ष्य पर कायम रहेंगें तो उनकी मेहनत रंग जरूर लाएगी। लेकिन, अगर हिल गए तो संभलना बहुत मुश्किल है।
मैंने देखा और सुना है कि कोई भी कलाकार अपनी मेहनत और किस्मत से ही बनता है। मुझे उस्ताद शाहिद परवेज जी का एक इंटरव्यू याद आता है। इसमें वह बताते हैं कि घर में जगह नहीं होती थी, तो वह छत पर पानी के टंकी की छाया में बैठकर रियाज करते थे। जैसे-जैसे सूरज की स्थिति बदलती थी, वह अपने बैठने की जगह बदलते रहते थे। लेकिन, रियाज पूरे दिन भर लगकर करते थे।
नई पीढ़ी ऐशो-आराम के साथ कला को बनाए रखना आसान नहीं है। मैं करियर को लेकर बहुत ज्यादा संघर्ष नहीं किया। क्योंकि मेरा डांस के जरिए पैसा कमाने का उद्देश्य रहा ही नहीं है। पहला सोलो प्रोग्राम इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में किया। उस समय इतना पैसा मिला कि मैं संगत कलाकारों को आराम से पैसे दे पाई। मेरे लिए यही संतोष का विषय था। साहित्य कला परिषद से हमें स्पांन्सर कर दिया। मैंने सीखने के लिए संघर्ष किया। आज कल मैं कथक और पहाड़ी चित्रकारी के संबंध पर शोध कार्य कर रही हूं।
सौ सुनार की एक लोहार की। एक प्रोग्राम ऐसा करो कि लोगों को पता चल जाए कि मैं जिंदा भी हूं और मेरा काम बोलता है। इससे लोग तुम्हें याद रखेंगें। मैं अपने इस शोध से यह बताना चाहती हूं कि कथक के कलाकार भी नव प्रयोग करना चाहते हैं। सिर्फ उन्हें अवसर मिलना चाहिए।
दरअसल, पंजाब, हिमाचल और हिमालय की तराइयों में पहाड़ी कलम के चित्र मिलते हैं। कांगड़ा राज्य में बहुत से चित्र मिलते हैं। इन्हें कांगड़ा चित्र के नाम से भी जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि मुगल कलम के चित्रकार जब दिल्ली से हटने लगे, तो बहुत से कलाकार तराइयों में चले गए। वहां राजपूत कलम की परंपरा प्रचलित थी, जिससे पहाड़ी कलम का विकास हुआ। लाहौर और अमृतसर में सिक्ख राज दरबारों में पहाड़ी कलम को प्रश्रय मिला था। पहाड़ी चित्रों के विषय बहुत विस्तृत हैं। इन चित्रों में भारतीय ग्रंथों में से अनेक ग्रंथ चित्रित हुए होंगे। पहाड़ी चित्रों में कृष्ण की लीलाओं का विशेष चित्रण है। यहां बाल सुलभ स्वभाव का जितना शिष्ट रूप चित्रकारों ने अंकित किया है।
मैंने तो पाया है कि पहाड़ी चित्रों में कथक नृत्य के अंश बहुत सहज से उभर कर सामने आता है। खासतौर पर कई चित्रों में नर्तकी को चित्र किया गया है। इसमें इसकी वेश भूषा और आभूषण आधुनिक कथक के बहुत समान नजर आते हैं। श्रृंगार के कोमल पक्षों में नायिका भेद के चित्र खूब नजर आते हैं। इन चित्रों की कोमलता, आकृतियों की मृदुलता, हल्के और अकर्षण वर्ण-विधान, रेखाओं की सजीवता सर्वोपरि है। इनमें दृश्यों का बहुत सजीव चित्रण नजर आता है।
अक्सर, समय के साथ चीजें बहुत बदलती हैं। धीरे-धीरे कलाकारों के वंशज भी कला सेवा को छोड़कर, जीविकोपार्जन के लिए नौकरी करने लगे। किंतु, सबसे भयानक बात यह हुई कि सन् 1905 ईस्वी में जो भूकंप आया, उससे कांगड़ा नगर विध्वंस्त हो गया। केवल पहाड़ी कलम ही नहीं, उस कलम के बहुत से कलाकार भी भूकंप में नष्ट हो गए।
विजय शर्मा ने मुझे प्रेरित किया। उन्होंने मेरे से सहमति जताई कि पहाड़ी चित्रकला और कथक एक दूसरे से काफी प्रेरित हैं। उन्होंने बताई कि एक डाॅक्यूमेंटरी फिल्म है, जो जर्मन भाषा में है। यह फिल्म मिनिएचर पेंटिंग पर है। उसमें पूरा कथक नृत्यांगना को दर्शाया गया था। उन्होंने ठुमरी के भाव दर्शाया। कुमार गोस्वामी ने लिखा है कि एक चित्र में कथक नृत्यांगना कर रही है। उसके साथ एक तबले और हारमोनियम वाला संगत कर रहा है। और इस पेंटिंग में ऐसा लगता है कि नृत्यांगना तोड़ा खत्म कर सम पर आई है। उसमें उर्दू में नर्तकी का नाम जफर है। इसका मतलब कि चित्रकार ने यह नृत्य देखा है। नर्तकी की हस्तमुद्रा अराल है। विजय जी ने मुझे कुछ नायिकाओं पर आधारित ठुमरी के बारे में बताया। पहाड़ी पेंटिंग में अभिसारिका और वासकसज्जा को विशेष चित्रित किया गया है। वैसे भी ठुमरी के भाव को दर्शाने से पहले नायिका को स्थापित करने के लिए इन नायिकाओं को नृत्यांगना दिखाती हैं। नायिका काले वस्त्र पहनी है। चांदनी रात है। रास्ते में उसे सांप नजर आ रहा है। बिजली चमकी है। वह भयभीत है। इन विषयों को खूब दर्शाया गया है। यह भाव कथक और पहाड़ी चित्रकारी में खूब दिखता है।
कुछ पद ऐसे हैं, जो पहाड़ी चित्रों के पीछे लिखे गए हैं। रसिकप्रिया, रसमंजरी और गीत गोविंद को विशेष तौर पर दर्शाया गया है। याहि माधव, नील माधव नील कलेवर आदि अष्टपदी को कथक नृत्यांगना करती हैं। लेकिन, कथक के कलाकार आसान रास्ते पर चलते हुए, ठुमरी को ही चुनते हैं। हमें गीत गोविंद परिपक्वता के बाद ही पढ़ना चाहिए। ताकि, आप राधा और कृष्ण के आत्मा-परमात्मा के भाव से देखने का नजरिया विकसित हो। केशवदास ने अपने पदों में अष्टनायिकाओं, रामायण, नलदमयंती, भक्ति श्रृंगार का सुंदर वर्णन किया है। इनको पहाड़ी चित्रों में शामिल किया गया है।
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