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Tuesday, August 4, 2020

भारतीय शास्त्रीय संगीत शाश्वत है-नीलाद्री कुमार, सितार वादक



                                   भारतीय शास्त्रीय संगीत शाश्वत है-नीलाद्री कुमार, सितार वादक

सितार वादक पंडित नीलाद्री कुमार ने कला जगत मंे अपनी अच्छी पहचान बनाया है। उन्होंने अपने पिता गुरू कार्तिक कुमार से वादन सीखा है। मैहर घराने की परंपरा में पंडित रविशंकर के वादन की छाप नीलाद्री कुमार के वादन में बखूबी नजर आती है। वह शास्त्रीय संगीत के साथ-साथ फिल्म संगीत में भी उनके संगीत की धमक है। वह एआर रहमान, शंकर-अहसान-लाॅय, प्रीतम के साथ बजा चुके हैं। उन्हें संगीत नाटक अकादमी की ओर से उस्ताद बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। उन्हें पिछले वर्ष फिल्म लैला मजनूं के संगीत के लिए फिल्म फेयर अवार्ड से सम्मानित किया गया। इस बार रूबरू में हम नीलाद्री कुमार से बातचीत के अंश पेश कर रहे हैं-शशिप्रभा तिवारी 

आपके लिए संगीत क्या है?
नीलाद्री कुमार-मुझे लगता है कि हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के हर कलाकार के उम्र या अवस्था के अनुसार संगीत की परिभाषा बदलती है। एक वरिष्ठ कलाकार के लिए संगीत का आशय अध्यात्म या आत्म-साक्षात्कार से हो सकता है। वहीं एक युवा कलाकार के लिए संगीत साधना की प्रतीति हो सकता है। मैं तो संगीत को ही अपना जीवन मानता हूं। क्योंकि जब से इस दुनिया में आंख खोला संगीत में रचा-बसा खुद को पाया हूं। मेरी हर सांस ही संगीत से जुड़ी हुई है। 
संगीत के बिना जिंदगी नहीं जिया जा सकता है। संगीत से परे मैंने जिंदगी को सोचा ही नहीं है। मैं संगीत को गुरू की वजह से संगीत सीखा। मेरी जीवन यात्रा संगीत के जरिए हुई है। मेरे लिए कोई भी चीज संगीत के बिना मायने नहीं रखती है।

भारतीय शास्त्रीय संगीत को किस नजर से देखते हैं?
नीलाद्री कुमार-भारतीय शास्त्रीय संगीत का ऐतिहासिक पक्ष बिल्कुल स्पष्ट है। हमारा शास्त्रीय संगीत वैदिक काल से प्रचलित है। हमारे संगीत का आधार सामवेद है। हमारे देश में शास्त्रीय संगीत दो धाराओं में प्रवाहित होता रहा है-कर्नाटक संगीत और हिंदुस्तानी संगीत। हमारे लगभग सभी देवी-देवताओं के हाथों में कोई न कोई वाद्य विद्यमान है। भारतीय दर्शन में 44लाख देवी-देवताओं को अलग-अलग रूपों में माना जाता है। हर देवता कोई न कोई साज अथवा वाद्य यंत्र हाथ में लिए हुए हैं। शिव, कृष्ण, गणेश, सरस्वती, नारद, ब्रम्हा सभी संगीत से जुड़े हुए हैं।

आपके अनुसार भारतीय शास्त्रीय संगीत की विशेषताएं क्या है?
नीलाद्री कुमार-हमें पौराणिक गं्रथ और ऐतिहासिक साक्ष्य प्रमाणित करते हैं कि विश्व अभी जागृत भी नहीं हुआ था, तब से हमारे यहां शास्त्रीय संगीत प्रचलित था। ऐसे में हमारा संगीत तो विश्व धरोहर है और सबसे प्राचीनतम संगीत है। हमारे यहां मौखिक गुरू शिष्य परंपरा में संगीत शिक्षा की व्यवस्था रही है। आज भी हम इसे गुरू मुखी विद्या मानते हैं। हमारे यहां गुरू गाकर या बजाकर अपने शिष्य को सिखाते थे। क्योंकि यह करने की यानी व्यवहारिक ज्ञान से ही पूरी होती है। वह लिखकर गायन या वादन या नर्तन नहीं सिखाते थे। गुरू अपने हिसाब से कौन-सा सुर कितना लगेगा बताते हैं। सुरों पर समय, शरीर, वातावरण, मौसम सबका असर होता है। हमारे यहां गरमी, बारिश, बसंत या कहें कि हर मौसम की गायकी अलग है। इसके प्रति लोगों को भी जागरूक करना जरूरी है। लोगों को इस बारे में आमतौर पर पता नहीं है। इससे भारतीय शास्त्रीय संगीत का बहुत नुकसान हो रहा है। सदियों से शास्त्रीय संगीत चला आ रहा है। और चलता रहेगा, चाहे इसकी जड़ों को कितना भी हिलाने की कोशिश की जाए। भले ही, समय के साथ इसका स्वरूप बदलता रहा है। हम परिवर्तन को स्वीकार करते हुए, आगे बढ़ने में विश्वास करते हैं। यही स्वीकार्यता है कि आज विश्व परिदृश्य में भारतीय शास्त्रीय संगीत गूंजायमान है। 

फ्यूजन म्यूजिक के बारे में आप क्या सोचते हैं? 
नीलाद्री कुमार-हमारे पास लिखित ग्रंथ हैं। पर उनके आधार पर हर कोई गा नहीं सकता, जैसा की पश्चिम संगीत में है। इतना ही नहीं, हमारे संगीत की समृद्ध परंपरा में मौसम, प्रहर, वातावरण, अवसर के अनुरूप गायन परंपरा रही है। रही बात, फ्यूजन म्यूजिक की तो फिल्मी संगीत के साथ ही हमारे यहां फ्यूजन म्यूजिक का दौर शुरू हो गया था। अनिल विश्वास, नौशाद, सहगल जैसे कलाकारों ने फिल्म संगीत में आए। उन्होंने रागों पर आधारित बंदिशों के साथ बांसुरी, तबला, ट्रम्पेट, मृदंग, को भी संगत के साज में शामिल किया। इस का बीज तो कहीं और है।
थोड़ा गहराई और खुले मन से सोचेंगें तो हम पाते हैं कि इसकी कहानी का बीज तीन पीढ़ी पहले यानि 80साल पहले 1930 में ही शुरू हो गया था। ‘फ्यूजन‘ को देखने का हमारा नजरिया थोड़ा विस्तृत होना चाहिए। आज ‘रेस‘ के दौर में यह प्रचार करना भ्रामक है। हम बीते कल, वर्तमान और भविष्य को ‘युग‘ नहीं मानते हैं। पंद्रह साल पहले का समय भूत काल है। और बीस साल पहले इक्कीसवीं सदी का आरंभ था। सच कहूं तो हर बीस-पच्चीस साल बाद पीढ़ियां बदल जाता है। आज का सच है कि वर्ष 2000 में पैदा हुए बच्चे आज अठारह-बीस साल की उम्र के हैं और म्यूजिक इंडस्ट्री में काम कर रहे है। आज के दौर का संगीत रच रहे हैं। हर दौर परिवर्तन का दौर रहा है। 


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