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Friday, August 28, 2020

पंडित जसराज को कलारंग का नमन

                                                        पंडित जसराज को कलारंग का नमन

शशिप्रभा तिवारी

पंडित जसराज को पदृमविभूषण, पद्मभूषण, पद्मश्री, संगीत कला रत्न, मास्टर दीनानाथ मंगेशकर अवार्ड, महाराष्ट्र गौरव, मारवाड़ संगीत रत्न अवार्ड से नवाजा जा चुका है। उन्हें संगीत नाटक अकादमी की ओर से अकादमी रत्न सम्मान प्रदान किया गया। इसके अलावा, उड़ीसा में भरतमुनि सम्मान से वहां के राज्यपाल मुरलीधरन चंद्रकांत भंडारे ने उन्हें सम्मानित किया। इस अवसर पर जब उनसे पूछा गया कि इस छोटे से सम्मान को पाकर वह कैसा महसूस कर रहे हैं, तब वह बड़ी विनम्रता से कहते हैं कि हर सम्मान अपने-आप में बड़ा होता है। मैं खुद को खुशकिस्मत मानता हूं। सम्मान पाकर कलाकार के मन में उत्साह पैदा होता है। सम्मान पाकर कलाकार के मन में गर्व की भावना नहीं आनी चाहिए। कोई भी सम्मान व्यक्ति विशेष के लिए नहीं होता, बल्कि वह उसके कार्यों का सम्मान होता है। यह मेरा नहीं मेरे ईश्वर का सम्मान है।

पिछले दिनों न्यूजर्सी में पंडित जसराज ने अंतिम सांसें लीं। उनसे जुड़ी यादों को उनके कुछ शिष्यों ने मुझसे साझा किया। उनके कुछ अंश प्रस्तुत हैं-शशिप्रभा तिवारी



गुरू जी का ऐसा बड़ा दिल था-संजीव अभ्यंकर, शास्त्रीय गायक
मैं करीब दस साल उनके सानिध्य में रहा। करीब तेरह साल का था, जब मैं उनके पास गया था। और 25 की उम्र तक उनके छत्रछाया में रहते हुए, संस्कार ग्रहण किया। घर में संगीत का माहौल शुरू से था। लेकिन, गुरू जी कहते कि देखो, जिसको भगवान की देन होती है, कम रियाज करते देखे जाते हैं। मैं रियाम में कम नहीं पड़ता था। यह तय था कि मुझे नियमित षड़ज साधना करना ही है।
मुझे याद आता है कि अस्सी के दशक में एक समारोह में गुरूजी के साथ गया था। उनदिनों गुरूजी प्लेन से जाते थे। हमलोग ट्रेन से जाते थे। गुरूजी ने राग कलावती गाया था। मैंने वोकल सपोर्ट दिया। आयोजक मेरे गायन से बहुत खुश हुए। उन्होंने गुरूजी से कहा कि हम संजीव को कुछ उपहार दे सकते हैं? इस पर गुरू जी ने तुरंत कहा कि इसे भी मेरे साथ प्लेन में भेज दो। गुरू जी का ऐसा बड़ा दिल था।



अरे, क्लासिकल गाना है-पंडित रत्न मोहन शर्मा, शास्त्रीय गायक
मैं हर बार मामाजी के साथ अमेरिका यात्रा पर जाता था। इस बार मुझे उनके बाद दस-पंद्रह दिनों मैं जाने वाला था। लेकिन, लाॅकडाउन की वजह से नहीं जा पाया। उन्होंने भी कहा कि अभी मत आओ। कभी-कभी सोचता हूं तो लगता है कि मुकंुद लाठ जी का जाना उनको बहुत अखर रहा था। मुकंुद जी को वह बहुत प्यार करते थे। उनको मित्र, शिष्य, छोटा भाई सब कुछ मानते थे। वह अक्सर कहते थे-तोहे मोहे नाते अनेक, मानिए जो भावे। मात-तात, गुरू-सखा, आप जो मानना मानिए मुकंुद। उनके साथ में बैठकर, संगीत चर्चा करना, रियाज करना, बंदिशें बनाना, यात्रा करना। दोनों की एक-दूसरे के प्रति समझदारी गजब की थी।
मेरा सौभाग्य है कि मेरे बेटे स्वर को भी मामा जी पांच साल से संगीत शिक्षा दे रहे थे। एक दौर था, मेरा गला साथ नहीं दे रहा था। मैं निराश था। एक दिन ऊपर कमरे में जोर-जोर से आवाज निकालने की कोशिश कर रहा था। अचानक वह कमरे में आकर, बोलते हैं-यह क्या कर रहे हो। अरे, क्लासिकल गाना है तो आवाज को मधुर बनाए रखो। ‘सा‘ तक स्वर जा रहा है, तो वहीं तक रखो। धीरे-धीरे गला अपने आप खुल जाएगा। उनका यह कहना ही मुझे हिम्मत दे दिया। और मैं धैर्य पूर्वक उस स्थिति से बाहर आ गया।


वह अंतरयामी थे - लोकेश आनंद, शहनाई वादक
पिछले साल शंकरलाल संगीत समारोह के समय गुरूजी से मुलाकात हुई थी। संयोग से उस समय उनके साथ गुरू मां भी थीं। गुरू मां हम सभी शिष्यों का बहुत ख्याल रखती हैं। हर किसी के नाश्ते से लेकर रात के खाने तक के बारे में पूछती रहती थीं। इस बार गुरू पूर्णिमा के समय के दौरान गुरू जी का दर्शन हुआ। फेसबुक के जरिए यह संभव हो पाया। इस दौरान दुर्गा जी के पेज पर लाइव प्रोग्राम में भी बजाया। उस रोज उन्होंने मेरी शहनाई सुनकर कहा कि आज के जमाने का सबसे अच्छा शहनाई बजाने वाला है। अच्छा समझकर बजाता है। इससे बड़ा आशीर्वाद मेरे लिए और क्या होगा?
जब भी दिल्ली में गुरूजी का प्रोग्राम होता था, मैं जरूर जाता था। मैं हाॅल में पीछे की सीट पर बैठकर, सुनता। जब भी गुरूजी मंच पर आते ‘जय हो‘ बोलते तो मंच प्रकाशित हो उठता था। आंख बंदकर, उनका गायन सुनते हुए, अपने चारों तरफ प्रकाश का अनुभव करता था। वह अंतरयामी थे, सबको अपने सकारात्मक प्रकाश से प्रकाशित कर देते थे।

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