Popular Posts

Tuesday, May 26, 2020



                                           हमने जीवन का लक्ष्य उन्हीं से पाया
                                          -रीतेश मिश्र और रजनीश मिश्र
                                           बनारस घराने के शास्त्रीय गायक युगल






                                       

यह जीवन एक बहती हुई नदी की तरह है। यह जीवन एक गुनगुनाती हुई गीत की तरह है। यह जीवन एक गुजरते हुए रास्ते की तरह है। यही तो है जीवन की परिकल्पना। जिसे हम तब नहीं सोचते जब हमारा जन्म लेते हैं। यह अहसास धीरे-धीरे गहराता है, जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं। हमें भी अपने परिवार की गरिमा और विशालता का धीरे-धीरे ही पता चला। और दादाजी, पिताजी और चाचाजी के संगीत के सुरों के बीच हमलोग कब बड़े हो गए, इसका पता ही नहीं चला।
हमारे घर में हर वक्त संगीत की धारा प्रवाहित होती रही है। पिताजी और चाचाजी का बचपन और युवावस्था बनारस में बीता है। उन्होंने अपने दादा गुरू बड़े रामदासजी के सानिध्य में संगीत साधना की। साथ ही, हमारे दादाजी हनुमान प्रसाद और गोपाल प्रसाद जी से भी सीखा। पिताजी ओशो की बात को हमेशा कहते हैं कि संगीत दौलत नहीं है। यह कला है। यह प्रेम है। यह भक्ति है। यह प्रार्थना है। इसलिए इसकी जितनी साधना करेेंगें, यह उतनी आपको विस्तार देती रहेगी।
पिताजी और चाचाजी को क्रिकेट खेलने का शौक बचपन से था। हम दोनों भाई उनदिनों बनारस में थे। घर के पीछे के स्कूल ग्राउंड में हम दोस्तों के साथ सुबह-सुबह क्रिकेट खेलने चले जाते थे। उस सुबह पिताजी और चाचाजी बनारस पहुंचे। दादाजी से पता चला कि हमदोनों क्रिकेट खेल रहे हैं। वो दोनों भी वहीं आ गए और हमलोगों के साथ क्रिकेट खेलने लगे। हमें खेलते हुए, शाम हो गया। अंततः बाबाजी छड़ी लेकर, वहां पहुंच गए। अब तो सब घर चलो। इसके बाद, अगली सुबह फिर हमलोग चारों क्रिकेट खेलने पहुंच गए। धीरे-धीरे और भी दोस्त पहुंच गए। खेल दोपहर तक खत्म हुआ। फिर जीतने वाली टीम को पास के कचैड़ी वाली दुकान पर पिताजी लेकर गए। हमलोगों ने छककर कचैड़ी-जलेबी खाई। आज उस अहसास को याद करके लगता है कि वो हमें बताना चाहते थे कि जिंदगी को उत्सव और उमंग के साथ जीना जरूरी है।
हमें सŸार और अस्सी के दशक याद आते हैं। वह हमारे परिवार के संघर्ष का दौर था। हालांकि, तब हमलोग छोटे थे। बहुत समझदारी नहीं थी। लेकिन, थोड़े बड़े होने पर समझ आया कि पिताजी और चाचाजी ने हमें उस कठिन समय का पता ही नहीं चलने दिया। चाचाजी कहते हैं कि आप किसी भी महान शख्सीयत की जीवनी पढ़िए और प्रेरणा लिजीए। आपको उनकी जीवनी से प्रेरणा मिलेगी कि इस ऊंचाई तक वो रातों-रात नहीं पहुंचे। उन्होंने कड़ी मेहनत और लगातार कठिन रास्ते से गुजरें हैं। दरअसल, सोने को चमकने के लिए आग मंे तपना पड़ता है। इसलिए संगीत सीखने के लिए स्वर का आनंद लेने की चाह जरूरी है।
उनदिनों हमारे गुरूजन जर्मनी की यात्रा पर थे। पिताजी और चाचाजी के साथ हमलोग भी मंच पर थे। उन्होंने बहुत मन से दो-ढाई घंटे तक गाया। कार्यक्रम खत्म हो गया। लेकिन, एक भी ताली नहीं बजी। हम आश्चर्यचकित थे। तभी आॅरगेनाईजर ने आकर धन्यवाद दिया और कहा कि आप सोच रहे होगें कि ताली नहीं बजी। दरअसल, भारतीय संगीत से जो सांगीतिक समरसता का जो वातावरण यहां बना है, उसे श्रोता भंग नहीं करना चाहते थे। उसके बाद, होटल के कमरे में बातचीत में पिताजी बताया कि यही फर्क है एक म्यूजिशियन और मैजिशियन में। हमें संगीत का दो सुर ऐसे लगाना चाहिए कि हम सीधे सुनने वाले के दिल में उतर जाएं।
हमारे लिए प्रेरणा के स्त्रोत हमारे दोनों गुरू हैं। हमारे गुरूओं के अनुसार गायक या कलाकार को हर परिस्थिति में अपने संगीत या कला से आनंद प्राप्त करना जरूरी है। उनका कहना है कि आनंद में रहेगें तब आप पे्रम से बातचीत करेंगें। प्रेम पूर्वक व्यवहार करेंगें। इससे प्रेम का विस्तार होगा और आपके आस-पास सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह रहेगा। इससे आपको काम करने, आपको जीवन जीने में आनंद आएगा। और आनंद का संचार होगा तो सब कुछ अपने-आप सहज और सरल हो जाएगा। इसके लिए आपको अलग से कोई प्रयास नहीं करने की जरूरत होगी।
अक्सर, हमलोग पिताजी और चाचाजी को बातचीत करते सुनते हैं। उनके बीच के प्रेम और सौहार्द को देखकर आश्चर्य होता है। दोनों हमेशा आपस में प्रेम से बोलते हैं। कभी जोर से नहीं बोलते। कभी किसी से इष्र्या या द्वंद्व नहीं रखते। अपने आवेश को रोक कर रखते हैं। हमेशा विनम्र बने रहना। आज के समय में ऐसा व्यवहार अनूठा लगता है। वो लोग घर में ही नहीं बाहर भी लोगों से वैसे ही पे्रम से मिलते-जुलते हैं। हमलोगों की कोशिश रहती है कि हम भी उनकी तरह प्रेम भाव और संतुलित व्यवहार करना सीखें। हम अपने आनंद को कभी खोए नहीं, कुछ भी हो जाए।
उनकी रिकाॅर्डिंग्स की बंदिश ‘सखी एरी आली पिया बिन‘ हों या भजन ‘चलो मन वृंदावन की ओर‘ या ‘भैरव से भैरवी तक‘ हो हमलोग हमेशा ही सुनते रहते है। उनलोगों के दिए संस्कार का ही परिणाम है कि हमलोग शास्त्रीय संगीत को कुछ समझ पा रहे हैं। पिताजी और चाचाजी का मानना है कि किसी भी कलाकार को सुनो तो उसके संगीत की खूबसूरत चीजों को समझकर आत्मसात करने की कोशिश करो। वैसे हमें लगता है कि हर कलाकार का संगीत की गूढ़ता को समझ लेना बहुत बड़ी बात है। उनका कहना है कि संगीत सिर्फ तैयार तानों की जादूगरी नहीं है। बल्कि, अपनी अपनी कल्पना और सोच को अपने कंठ के माध्यम से अवतरित करना जरूरी है। तभी वह आपके श्रोता को बंाधता है, जैसे गंगा की लहरें मन को तरंगित कर देती हैं। संगीत के प्रति आपकी श्रद्धा, समर्पण और झुकाव होनी चाहिए। तभी आप सच्चे और अच्छे कलाकार बन पाते हैं। और आपका संगीत आपको मार्ग दिखाता है।
हमें याद आता है कि एक बार स्पीक मैके का कार्यक्रम था। पिताजी और चाचाजी दोनों उस समय दिल्ली से बाहर थे। सरदी का मौसम था। कोहरे के कारण फ्लाइट देर हो गई। कुछ देर बाद पता चला कि फ्लाइट कैंसिल हो गई। दोनों परेशान थे। फिर, कुछ समय उनका फोन आया कि हमदोनों जाकर प्रोग्राम पेश करें। हमदोनों एक बार आश्चर्यचकित थे कि इतने बड़े मंच पर जहां हमारे गुरूओं का कार्यक्रम है, वहां क्या श्रोता हमें स्वीकार करेगें? हम ईश्वर की प्रार्थना करते हुए, मंच पर गए। हम लोगों ने बनारस घराने की पारंपरिक बंदिशों को गाया। लोगों को हमारा संगीत पसंद आया। कार्यक्रम के बाद लोगों ने हमें प्यार से घेर लिया। कुछ लोग कह रहे थे-आप लोगों ने अपनी समृद्ध विरासत को संभालने का प्रयास किया है। यह सराहनीय है.
अब तो पिताजी और चाचाजी दोनों काफी व्यस्त रहते हैं। कभी दिल्ली रहते हैं। कभी देहरादून के गुरूकुल ‘विराम‘ में रहते हैं। इसके अलावा, देश-विदेश में कार्यक्रम के सिलसिले में आना-जाना होता रहता है। जब दिल्ली में वो लोग रहते हैं, तब घर में बहुत रौनक रहती है। सुबह जब वो लोग टहलने जाते हैं, तब हमलोग रियाज कर रहे होते हैं। फिर, जब पिताजी लोग लौटकर आते हैं, तब संगीत की तानों या अन्य तकनीक के बारे में थोड़ी चर्चा हो जाती है। इसके बाद, कभी कोई अतिथि या कोई शिष्य या कोई मिलने आ गए तो वहीं सब साथ मिलकर बैठते हैं।
एक कार्यक्रम में उनके साथ गायन पेश करना था। हमलोग उनसे सीखते रहते हैं। मार्गदर्शन लेने के क्रम में हम हर सूक्ष्म बारीकियों को समझने की कोशिश करते हैं। लेकिन, उनके साथ मंच साझा करना हमलोगों के लिए बहुत बड़ी बात थी। मंच पर उनके गाने के बाद, उनके इशारे का इंतजार करना। इसके बाद, अपनी समझ से सुरों को लगाना, बहुत बड़ी जिम्मेदारी का काम होता है। चाचाजी कहते हैं कि मैं तो आज भी भाई से मंच पर भी सीखने की कोशिश करता हूं। वह जिन-जिन तानों का प्रयोग करते हैं, उनको समझने और अपने गले में उतारने का प्रयास करता हूं।
वो दोनों ही मानते हैं कि संगीत में प्रतिस्पद्र्धा का भाव नहीं होना चाहिए। हमारी किसी से कोई प्रतियोगिता नहीं है। हमारे संयुक्त परिवार के मुखिया पिताजी हैं। उसके बाद चाचाजी हैं। चाचाजी, पिताजी की हर बात बिना किसी प्रश्न के मानते हैं। फिर हम सब लोग को मिलजुल कर रहने की आदत है। आपस में हर चीज बांटकर लेना। घर में हर बात की चर्चा करना। हमें याद आता है कि जब हम दोनों छोटे थे, तब हर गरमी की छुट्टी में पिताजी बनारस दादाजी के पास भेज देते थे। उनदिनों हमलोग दादाजी से संगीत सीखते और उनके साथ रहते, खाते-पीते और सोते। सुबह दादाजी इतने प्यार से जगाते-देखो, भैरव जा रहा है, ललित जा रहा है। यानि देर हो रही है, जाग जाओ। वह यादगार पल थे।
दोनों में गजब की तालमेल है। हम देखते हैं कि जब फुरसत होती है तो पिताजी ओशो की किताबें पढ़ना पसंद करते हैं और चाचाजी क्रिकेट या फुटबाॅल का मैच देखना पसंद करते हैं। दोनांे भाइयों को जंगलों में घूमना बहुत पसंद है। पहले अक्सर वो लोग छुट्टी में जिम काॅर्बेट नेशनल पार्क में जाकर समय बीताते थे। हमलोगों को भी उनके साथ मजे करना अच्छा लगता था। पिताजी कहते हैं, हमेशा जद्दोजहद में मत रहो, जब भी फुरसत मिले, जिंदगी को जीना चाहिए। 

No comments:

Post a Comment