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Friday, May 1, 2020

सारंगी साज मुश्किल साज नहीं है-मुराद अली, सारंगीनवाज






                                      सारंगी साज मुश्किल साज नहीं है-मुराद अली, सारंगीनवाज

इनदिनों हम लाॅकडाउन और स्वास्थ्य संकट के दौर से गुजर रहे हैं। हर तरफ खामोशी और उदासी का दौर है। लोग खौफ और डर में कुछ ऐसा कर रहे हैं, जो शायद वह करना नहीं चाहते हों। फिर भी! पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद शहर से कुछ ऐसी ही तस्वीर देखने को मिली। लेकिन, मुरादाबाद पीतल व कांच के नक्काशीदार बरतन, गहने और अन्य हस्तशिल्प के लिए मशहूर है। और, जाना जाता है-सारंगीनवाजों के लिए। सारंगीनवाज मुराद अली, इसी मुरादाबाद शहर की पैदाईश हैं। जिन पर हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत ही नहीं, विश्व संगीत जगत को नाज हैं। उन्हें उस्ताद बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार, सारंगी रत्न सम्मान, संस्कृति सम्मान आदि मिल चुके हैं। आज के रू-ब-रू में हम मुराद अली जी से बातचीत के अंश पेश कर रहे हैं-शशिप्रभा तिवारी

आप ने सारंगी सीखने की शुरूआत कैसे की?

मुराद अली-मैं सारंगी नवाजों के मुरादाबाद घराने से तालुक रखता हूं। अपने परिवार परंपरा में मैं छठी पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करता हूं। मैंने अपने दादा जी उस्ताद सिद्दिक अहमद खां और वालिद उस्ताद गुलाम साबिर खां साहब से तालीम पाई है। मेरे पिताजी आकाशवाणी के ‘ए-ग्रेड‘ कलाकार हैं। वह बहुत गुणी हैं। मैंने शुरूआत में दादा जी से गाना-बजाना सीखा। दस वर्ष की उम्र में पहली बार मंच पर सारंगी बजाया था।

सारंगी को मुश्किल साज क्यों माना जाता है?

मुराद अली-मुझे लगता है कि यह एक हौवा बना दिया गया है। यह सच है कि यह नफासत वाली साज है। थोड़ी मुश्किल तो है ही। सितार की तरह इसमें भी पर्दे नहीं होते। पर्दे नहीं होने से आमतौर पर लोगों को निषाद या गंधार स्वर कहां यह पता नहीं होता। अंगुली की पोरों से बजाना होता है। उसकी अपनी कुछ खूबियां हैं, कुछ दिक्कते हैं। यह कंठ संगीत के करीब का साज है। साज में गायकी को उतारने का अपना अंदाज है। तीन तार का यह साज इंसानी रूप का साज है। इसमें मानवीय अंगों की तरह ही अंगों की भी एक खूबसूरत बनावट है। वाकई, सारंगी सुर में बजती है, तो बहुत अच्छी लगती है। कलाकारों की मेहनत, तालीम, बुजुर्गों का आशीर्वाद है कि हम लोग इसे आगे लेकर जाने की कोशिश में जुटे हैं।

अपने बचपन की कुछ यादों को कृपया, साझा करिए न!

मुराद अली-जब मैं तीन बरस का था। मेरे दादा जी ने उसी उम्र में ही मुझे गाना सिखाना शुरू कर दिया। अब मुझे याद आता है कि उन्होंने सात साल की उम्र तक मुझे खयाल की तमाम बारीकियों, सरगम और पलटे सब सीखा दिया। हालांकि, उस समय मुझे यह भी समझ नहीं थी कि मैं क्या गा रहा हूं? सिर्फ, उन्होंने तालीम दी और मैंने ली। फिर, वही खयाल गायकी की चीजों को उन्होंने सारंगी पर बजाना सिखाया। उनका कहना था कि पहले गाओ और फिर बजाओ। इससे दोनों साथ-साथ चलते हैं और तालीम पक्की हो जाती है। उन्होंने सारंगी की हर बारीकी के साथ ‘बोल काटने‘ का अंदाज बताया। सारंगी में ‘गत अंदाज‘ बजाने का तरीका ंिपछले पचास वर्षों में काफी बदला है।

कोई यादगार समारोह!

मुराद अली-मेरे दादा जी के समय में दंगली गाना-बजाना होता था। उस जमाने में एक ओर गवैया तान दे रहा है, दूसरी ओर सरंगी नवाज उसे सारंगी के तानों में उतार रहा होता। इसलिए, दादा जी को बहुत सारे बंदिशें याद होती थीं। कभी भोपाल में आयाजित सारंगी मेले में सौ से भी ज्यादा सारंगी वादक इकट्ठे हुए थे। पर, शायद यह मुमकिन नहीं। हम लोगों ने वर्ष 2003 और 2006 में सोलह सारंगी वादकों के सामूहिक वादन का कार्यक्रम किया था। दिल्ली के कमानी आॅडिटोरियम में सारंगी सिम्फनी की तरह बजी थी। उस समय उस्ताद असद अली और उस्ताद गुलाम सादिक साहब ने कहा था कि अब तक तुम्हारा सोलो सुना था। पर सारंगी का यह रूप अद्भुत है। मुझे उनकी ये बातें और वह कार्यक्रम कभी भूलता नहीं!




अपने घराने की नई पीढ़ी से क्या उम्मीदें हैं?

मुराद अली-हमारे घराने में लगभग बीसियों सारंगी नवाज हुए हैं, जैसे बन्ने खां, शकूर खां, मेरे पिताजी, वगैरह-वगैरह। आज कोई भी सारंगी वादक या सारंगी साज के भविष्य के बारे में नहीं सोचता। बहरहाल, हमारी ज्वाइंट फैमिली है। हमारे घर में अगली पीढ़ी के बच्चे-सुभान अली, शहनवाज अली, रेहान अली, ताबीश सीख रहे हैं। लगभग 15-16 बच्चे सीख रहे हैं, ये सातवीं पीढ़ी के हैं। ये मेरे वालिद, मुझसे और गुलाम मोहम्मद से सीखते हैं। अब, यह तो आने वाला वक्त बताएगा कि ये किस ओर अपना रूख करते हैं।



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