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Thursday, May 7, 2020

गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊं-डाॅ अजय कुमार, तबला वादक






                                   गुरु बिन ज्ञान कहां से पाऊं-डाॅ अजय कुमार, तबला वादक


विश्व धरोहर शहर वाराणसी हर किसी को अपना बना लेता है। गंगा, वरूणा और असी नदी की धाराएं, अट्ठासी घाटें, अनगिनत मंदिरें, हर गली-मोहल्ले में गूंजता संगीत। काशी जहां-जीवन का स्पंदन और मृत्यु का क्रंदन सब संगीत के सुर निनाद बन जाते हैं, जहां-जीवन का अवसान भी नव जीवन का आवगाहन करता है। इसलिए, बनारस घराने के सुर-लय-ताल की मधुरता की मंगलमयता की पराकाष्ठा है। इसी की झलक तबले के तालों के जरिए कलाकार बखूबी बयान करते हैं। ऐसे ही तबलावादक हैं-डाॅ अजय कुमार। अजय कुमार को जूनियर फेलोशिप और यूनिसेफ का आईसीएच फेलोशिप मिल चुके हैं। उनकी दो किताबें-‘पखावज की उत्पत्ति, विकास एवं वादन शलियां‘ और ‘बनारस घराने के प्रवर्तक‘ प्रकाशित हो चुकी हैं। आईए, इस बार रू-ब-रू में उनके बारे में जानें!-शशिप्रभा तिवारी


तबला से पहला परिचय कब और कैसे हुआ?

डाॅ अजय कुमार-मेरे पिताजी को संगीत का शौक था। वह बहुत अच्छा भजन गाते थे। मेरे दादाजी मंदिर से जुड़े हुए थे। कुछ पारिवारिक माहौल था कि मुझे और मेरी बहनों को बचपन में संगीत की शिक्षा पिताजी देने लगे थे। हमें नियमित अभ्यास पिताजी ही करवाते थे। जब छोटा था, तब समझ नहीं आता था। सिर्फ, वह जो कहते, वही मैं करता गया। लेकिन, धीरे-धीरे समय के साथ संगीत सुनना और तबला बजाना अच्छा लगने लगा।

आपने किसी उम्र में तय किया कि अब तबला वादन को करियर बनाना है?

डाॅ अजय कुमार-मैं सन् 1999 मंे ग्रेजुएशन की पढ़ाई के बाद, वाराणसी चला आया। सच कहूं तो काशी ने मेरी जिंदगी के प्रति नजरिया ही बदल दिया। बीएचयू से पढ़ाई के दौरान ही, गुरू जी पंडित छोटे लाल मिश्र के सानिध्य में आया। गुरू जी बोलते बहुत कम थे। लेकिन, उनकी परख गजब की थी। हर शिष्य की क्षमता और प्रतिभा के अनुरूप उसे वह तालीम देते थे।

गुरूजी से तबला सीखने के दौरान, तबला का वास्तविक रूप समझ में आया। उन्होंने हमें तबले को समझने के लिए दृष्टि दिया। उन्होेंने विषय की समझ के साथ उसके सकारात्मक और वैज्ञानिक पहलू से हमें अवगत कराया। उन्हीं से पता चला कि तबले की उत्पत्ति मध्य काल में माना जाता है। यह एक भ्रांति है। ऐसी बात नहीं है। हमारी कलाओं का आधार ‘नाट्य शास्त्र‘ में पुष्कर वाद्यों की चर्चा है। प्राचीन समय में इसे उध्र्वक आदि नाम से जाना जाता था। मुगलकाल में तबला कहा जाने लगा।

बनारस घराने मंे तबला वादन की खासियत क्या है?

डाॅ अजय कुमार-दरअसल, हर घराने की अपनी खासियत है। हमारे घराने में तबले वादन की शुरूआत उठान से होती है। इसे छोटे-छोटे बोलों के समूह से सजाते हुए, हम उपज अंग बजाते हैं। खुले अंदाज में तिहाई को बजाकर, चक्रदार से समापन करते हैं। वैसे तो बनारस घराने को बहुत से कलाकारों ने समृद्ध किया। लेकिन, पंडित रामसहाय जी की देन अनुपम है। बताया जाता है कि उनकी चारों अंगुलियों स्याही के साथ सटी होती थीं। वह अनामिका अंगुली को मोड़ देते थे। इससे ध्वनि में गूंज पैदा होती थी। जो लोगों को आकर्षित करती थी। वास्तव में, वादन के क्रम में बोल की शुद्धता को बनाए रखने की जिम्मेदारी वादक की है।







बनारस में समय कैसा बीता?

डाॅ अजय कुमार-मैं बनारस में लगभग आठ साल रहा। रीवा कोठी इलाके में गंगा के किनारे हमारा हाॅस्टल था। बारिश के दिनों में गंगा नदी का पानी काफी अंदर तक आ जाता था। कुछ भी नहीं है, फिर भी कोई फिक्र नहीं। काशी का रहन-सहन, मिजाज, बोलचाल हर किसी को स्वावलंबी बना देता है। हर चीज का सलीका यहां सीखने को मिला। वैदिक गायन से लेकर सांस्कृतिक सोच काशी की अद्भुत है। यहां रिक्शेवाले, सब्जी बेचने वाले या कहें कि आम आदमी अपना काम खत्म करके संकटमोचन संगीत समारोह या गंगा महोत्सव में कार्यक्रम देखने-सुनने पहंच जाता है। वह कलाकारों को देख-सुनकर, उस पर चर्चा करते हैं। वह माहौल कर किसी को प्रेरित करता है। ये आम लोग अनजाने में ही जीने की कला सीखा देते हैं। सिर्फ, आपकी नजर होनी चाहिए, परखने की।

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