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Thursday, July 2, 2020

गुरु के सानिध्य से ही जीवन संवरा
शशिप्रभा तिवारी

हिंदुस्तानी या कर्नाटक शास्त्रीय संगीत और नृत्य की परंपरा को कायम रखने में गुरू-शिष्य परंपरा का अमूल्य योगदान है। कलाकार चाहे वह परिवार परंपरा के हों या गुरू-शिष्य परंपरा के अंतर्गत हों, सभी पर गुरूओं की कृपा तो होती ही है। इस नजर से देखा जाए, तो गुरूओं की महानता, उनके विद्या दान की प्रवृŸिा अनूठी रही है। शायद, गुरूओं की सदाशयता के कारण ही प्राचीन सांगीतिक परंपरा का सुदीर्ध जीवन कायम रहा है। इसलिए, गुरूओं के महत्व और उनके प्रति आदर व्यक्त करने के भाव का ही दूसरा नाम गुरू पूर्णिमा है। इस अवसर पर हर शिष्य की यह कोशिश रहती है कि वह अपने गुरू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त कर सके। इसी संदर्भ में कुछ कलाकारों ने अपने गुरूओं को स्मरण करते हुए, अपने विचार व्यक्त किए।

मालविका सरूकई
वरिष्ठ भरतनाट्यम नृत्यांगना मालविका सरूकई ने वैसे तो कई गुरूओं से नृत्य सीखा है। लेकिन, उनके नृत्य पर गुरू कल्याण सुंदरम पिल्लै, राजारत्नम और कलानिधि नारायणन की छाप खासतौर पर पड़ी। मालविका सरूकई अपने गुरू के बारे में बताती हैं कि नृत्य मेरा जीवन है। मैं आम बच्चियों की तरह बचपन से ही नृत्य सीखने लगी थी। मुझे नृत्य की प्रेरणा मां से मिली। मैं मानती हंू कि मेरे नृत्य पर मेरे गुरूओं का प्रभाव रहा है। मुझे श्रृंगार के सौंदर्य का परिचय कलानिधि अम्मा ने करवाया। गुरू कल्याणी सुंदरम से बहुत कुछ सीखा। लेकिन, मां कि एक बात हमेशा याद रहती है कि वह कहती थीं कि अगर आप तलाश करोगे तभी कुछ आपको मिलेगा, तभी आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलेगी। मुझे याद आता है बचपन में जब सात-आठ साल की थी, तब मां मुझे लेकर यामिनी कृष्णमूर्ति, संयुक्ता पाणिग्रही, सोनल मानसिंह जैसे नृत्यांगनाओं के कार्यक्रम में लेकर जाती थी। मैं कुछ समय देखती और कुछ समय सो जाती। जब वो कलाकार नृत्य के क्रम में कुछ खास स्टेप्स पेश करतीं तो मां मुझे हिलाकर जगातीं और उन्हें देखने को कहती। फिर, मैं हौले से जगती और नृत्य देखने लगती। उसी दौरान मुझे बाला सरस्वती जी का नृत्य देखने का अवसर मिला। उनके अभिनय और एक-एक भाव की सूक्ष्म बारीकियां मुझे मन के अंदर तक छू गई.




शुभा मुद्गल
गायिका शुभा मुद्गल ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय और भारतीय पाॅप संगीत जगत में अपनी खास पहचान बनाई है। इलाहाबाद में जन्मी शुभा मुद्गल ने संगीत की शुरूआती शिक्षा गुरू रामाश्रय झा के सानिध्य में ग्रहण किया। फिर, वह राजधानी दिल्ली में पंडित विनयचंद्र मुद्गल, पंडित वसंत ठकार, कुमार गंधर्व और नैना देवी से मार्ग दर्शन प्राप्त किया। उन्होंने खयाल, ठुमरी, दादरा के साथ-साथ हिंदी सिनेमा के गीतों को भी अपने सुरों में ढाला है। गायिका शुभा मुद्गल अपने गुरूओं के बारे में बताती हैं कि मेरा सौभाग्य रहा है कि मुझे कई गुरूओं का प्रेम और सानिध्य मिला। मुझे नहीं लगता कि मैं अपने गुरूजनों की बराबरी करने का दुस्साहस तो मैं कभी नहीं कर सकती, लेकिन, प्रयास तो हम सब करते हैं कि जिस उदारता से हमारे बुजुर्गों ने हमें सिखाया और तैयार किया, उस परंपरा को हम कभी धूमिल या शिथिल नहीं होने देगें। मैं और अनीशजी अपने घर पर निशुल्क विद्यार्थियों को सिखाते हैं। हम गर्व से कह सकते हैं कि हमारा शिष्य परिवार बड़ी लगन से मेहनत करने में जुटा हुआ है।
शास्त्रीय गायिका शुभा मुद्गल कहती हैं कि दरअसल, मैंने गुरूओं से सुना है कि वह बारह-बारह घंटे तक रियाज करते थे। जब तक कि पसीने-पसीने न हो जाएं या सुबह से दोपहर न ढल जाए। लेकिन समय के साथ बहुत-कुछ बदला हैं। हालांकि, अब उतने घंटे तो किसी के लिए रियाज कर पाना मुश्किल है। क्योंकि, उस समय की जीवन शैली और आज के कलाकारों की जीवन शैली और दुनियादारी में काफी बदलाव आ गया है। इससे कलाकार भी अछूते नहीं हर सकते हैं। यह सच है कि हमारा रियाज करे बिना तो काम चलता नहीं, लेकिन रियाज करने की विधि-अवधि आदि हर कलाकार अपने लिए सुनिश्चित करता है। लेकिन, रियाज, चिंतन, अभ्यास, सुनना, पढ़ना आदि हर संगीत के विद्यार्थियों के लिए अनिवार्य है, चाहे उसे कलाकार का दर्जा प्राप्त हो या न हो। एक उम्र के बाद वरिष्ठ कलाकारों के लगातार कार्यक्रम और यात्रा का दौर चलता है, तो उसमें घंटों रियाज की वह जरूरत नहीं रह जाती है। पर, ग्रीन रूम में या प्रोग्राम से पहले कुछ-कुछ तो योजना बनानी पड़ती है। इसके लिए किसी से किसी तरह की शिकायत नहीं रह जाती। यह तो अनुभव की बात हो जाती है। इस बात को तो सभी स्वीकारते हैं कि रियाज के बिना परफाॅर्मिंग आर्ट में काम नहीं चल सकता।




रोनू मजूमदार
संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित बांसुरी वादक रोनू मजूमदार ने गुरु पंडित विजय राघव राव और पंडित रविशंकर के सानिध्य में बांसुरी वादन सीखा। पंडित रोनू मजूमदार मानते हैं कि उनके तीनों गुरूओं ने मुझे बहुत कुछ दिया। आज बदलते समय में हमारे समाज की और हम कलाकारांे सभी की मान्यताएं काफी कुछ बदली हैं। वह बताते हैं कि पहले जब हम लोग सीख लेते थे, घर में बैठकनुमा महफिलें होती थीं। जिसमें नए व उभरते हुए कलाकार अपनी कला को वरिष्ठ कलाकारों के सामने पेश करके मार्ग-दर्शन लेते थे। इसी बहाने नई बंदिशें, लय और ताल के बारे में जानकारी हासिल हो जाया करती थी। आज हम किसी युवा कलाकार से पूछें कि आप को फलां राग की फलां बंदिश आती है। अगर उसका जवाब नहीं में है। और हम उसे सलाह दें कि आप को उन गुरू के पास जाकर इसे सीख लेना चाहिए, वह इसे बहुत अच्छा गाते हैं या बजाते हैं। इस पर उनका जवाब होगा कि गूगल पर सर्च कर लूंगा। सच तो यह है कि इस जल्दीबाजी के जमाने में समय किसके पास है। ये लोग गूगल को सब कुछ मानने लगे हैं।
हमारी पीढ़ी या कई पीढ़ियों का सौभाग्य रहा कि उन्हें गुरूओं के सानिध्य में रहकर सीखने का मौका मिला। आज स्काइप, इंटरनेट, गूगल के जरिए लोग शास्त्रीय संगीत सीखने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि, गुरू-शिष्य परंपरा की अपने मूल्य और नियम हैं। वह खत्म तो नहीं होगा। पर समय के साथ सामांनांतर बहुत कुछ चलता रहेगा। शास्त्रीय संगीत गुरूमुखी विद्या है। इसे आप गुरू के सामने बैठकर सीखते हैं, तो गुरू एक-एक सुर, एक-एक स्वर के बारे में आपको अवगत कराते हैं। वह बात स्काईप पर सीखने वाले को बताने में दिक्कत आती है। क्योंकि मैं अमेरिका में स्काईप के जरिए क्लास लेता हूं, तो मुझे खुद कई बार संतुष्टि नहीं होती है। मुझे लगता है, इसमें शक नहीं कि जो गुरू के सानिध्य में रहकर सीखेगा, वह तो आने वाले समय में बाजी मारेगा ही। लेकिन, हम कुछ तय नहीं कर सकते। इनमें से कौन सफल कलाकार बन पाएगा, यह तो जनता तय करेगी और उनकी किस्मत तय करेगा।







पंडित हरिप्रसाद चैरसिया
पद्मविभूषण पंडित हरिप्रसाद चैरसिया ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में बांसुरी वादन को पराकाष्ठा पर पहुंचाया है। न सिर्फ भारत में, बल्कि विदेशों में उनके अनेक शिष्य-शिष्याएं हैं, जो आज भी उनसे संगीत की बारीकियां सीख रहे हैं। उन्होंने अपने गुरूकुल की स्थापना नीदरलैंड और कटक में की है। वह अपने गुरू के संदर्भ में बताते हैं कि इलाहाबाद में ही मेरा पहला परिचय महान संगीतज्ञ उस्ताद अलाउद्दीन खां साहब से हुआ। वहां रेलवे स्टेशन के पास होटल प्रयाग हुआ करता था। उसके मालिक रामचंद्र जयसवाल थे। उनदिनों रेडियो स्टेशन में अपनी रिकार्डिंग करवाने जो बड़े कलाकार वहां आते थे, उसी होटल में ठहरते थे। संयोग से मैं वहां पहंुचा तो काॅरिडोर में खड़ा हुआ था, तभी किसी के वायालिन बजाने की धुन मेरे कान में पड़ी। मैं वही कमरे के बाहर बैठकर सुनने लगा। वह दोपहर का समय था, कमरे का दरवाजा खुला हुआ था, मेरी परिछाई बाबा के दरवाजे पर पड़ रही थी, जिससे उस्तादजी को लगा कि बाहर कोई है। सो उन्होंने मुझे आवाज देकर अंदर बुला लिया। फिर, पूछा, ‘तुम क्य करते हो?‘ मैंने बाबा को बताया कि मैं पढ़ता हूं, गाता हूं। लेकिन आवाज अच्छी नहीं है, इसलिए बांसुरी बजाना मुझे अच्छा लगता है। फिर, उन्होंने मुझे बांसुरी बजाने के लिए कहा। मेरी बांसुरी सुनकर बाबा ने कहा कि मेरे साथ मैहर चलो या पढ़ाई खत्म हो जाए तो वहां आ सकते हो। अगर किसी वजह से मैं वहां नहीं मिला तो तुम मेरी बेटी अन्नपूर्णा से सीख सकते हो। वह तुम्हें सिखा देगी।
यह सच है कि गुरू के ज्ञान प्रकाश से ही शिष्य का जीवन आलोकित होता है। गुरू के बिना ज्ञान आज भी संभव नहीं है। वैसे भी भारतीय शास्त्रीय कलाएं गुरू मुखी विद्या है। यह गुरू के सानिध्य और शरण में गए बिना सीख पाना आसान नहीं है और नहीं संभव है।




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