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Saturday, December 14, 2019

   



                             
                                    वर्तमान परिदृश्य और शास्त्रीय संगीत में राग-ताल के सौंदर्य

                                    शशिप्रभा तिवारी


शास्त्रीय संगीत में रस और सौंदर्य का समायोजन होता है। यह मन को छूता है। इसी के मद्देनजर दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर से दो दिवसीय समारोह का आयोजन किया गया। इस आयोजन के दौरान संगीत के विद्वानों ने वर्तमान परिदृश्य और शास्त्रीय संगीत में राग-ताल के सौंदर्य पर परिचर्चा में भाग लिया। इसके अलावा, कुछ कलाकारों ने अपनी कला का प्रदर्शन किया।


समारोह के उद्घाटन सत्र में संगीत एवं कला विभाग की प्रमुख व डीन प्रो दीप्ती ओमचेरी भल्ला ने स्वागत भाषण दिया। इस दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो योगेश कुमार त्यागी, पूर्व राजनयिक चिन्मय गरेखान, संतूर वादक पंडित भजन सोपारी, सितार वादक पंडित देबू चैधरी मंच पर मौजूद थे।


उद्घाटन सत्र के दौरान सितार वादक पंडित देबू चैधरी ने कहा कि सौंदर्य और रस के बिना शास्त्रीय संगीत संभव ही नहीं है। हमारे गुरू उस्ताद मुश्ताक खां साहब कहते थे कि स्वर ईश्वर है, लय ज्ञान है, कर्म पथ है और ध्यान आत्मा है। जबकि, चिन्मय गरेखान ने अपने वक्तव्य में कहा कि हर कोई भीमसेन या अमीर खां नहीं हो सकता है। पर अपनी क्षमता के अनुकूल हर कलाकार को कोशिश करनी चाहिए। भारतीय संस्कृति तीन ‘स‘ यानि संस्कृति, संगीत और साड़ी से पूर्ण होती है। जबकि, पंडित भजन सोपोरी ने कहा कि अनहद नाद से शून्यता अथवा निराकार ब्रम्ह की अनुभूति होती है। यह शून्यता ही कुछ सूक्ष्म होता है तो विभाव, अनुभव और आनंद की अनुभूति देता है। इस परिचर्चा में भाग लेते हुए, पंडित अजय चक्रवर्ती ने कहा कि प्यार, विश्वास, श्रद्धा और समर्पण के बाद ही कोई सच्चा कलाकार बन सकता है।

अगले सत्र में शास्त्रीय गायन में राग और लय के सौंदर्य पर चर्चा विदुषी कृष्णा बिष्ट और पंडित अजय चक्रवर्ती ने किया। इस अवसर पर पंडित अजय चक्रवर्ती ने राग मालकौंस में रचना ‘आज की शुभ घड़ी‘ और ‘मेरे मन में बसो‘ को गाया। उन्होंने सरगम के सुर की साधना के अंदाज को भी पेश किया।








शाम की सभा में सरोदवादन पेश किया गया। इसे पंडित तेजंेद्र नारायण मजूमदार ने पेश किया। उनके साथ तबले पर पंडित रामकुमार मिश्र ने संगत किया। तेजेंद्र नारायण ने राग ललिता गौरी बजाया। इसमें मध्य लय की गत झप ताल में बजाया। उन्होंने राग पीलू बजाया। इसमें दो गतों को पेश किया, जो तीन ताल में निबद्ध थीं।


 अगले दिन वाद्य यंत्र में सौंदर्य विषय पर चर्चा हुई। इस सत्र में प्रो अनुपम महाजन, उस्ताद बहाउद्दीन डागर और पंडित भजन सोपोरी ने शिरकत किया। इस दौरानपंडित भजन सोपोरी ने कहा कि संगीत सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं है। यह भावपूर्ण होता है। यह अभिव्यक्ति की खूबसूरत प्रक्रिया है, जिससे साधक गुजरता है। उन्होंने भैरव थाट के राग बसंत मुखाारी को वादन के लिए चुना। राग बसंत मुखारी में विरह का करूण भाव है। यह कर्नाटक संगीत का लोकप्रिय राग है। उनके साथ तबले पर दुर्जय भौमिक और पखावज पर ऋषि उपाध्याय ने संगत किया। उन्होंने बंदिश ‘उठत जिया में हूक, सुनि कोयल के कूक‘ को संतूर पर बजाया। उन्होंने अत में तीन ताल में बंदिश को पेश किया।

संगीत विभाग की प्रो अनुपम महाजन ने सौंदर्य को परिभाषित करते हुए, कहा कि सौंदर्य भाव है जो हृदय के करीब हो। रागों के दो भाग बताए गए हैं-नादमई रूप एवं देवमई रूप। अभिनव गुप्त ने रस निस्पति के जरिए भाव अभिव्यक्ति की है। आज के परिप्रेक्ष्य में, जब कलाकार स्वतंत्र है, वह किस प्रकार अभिव्यक्ति पर बल दें।
इस सत्र में वीणा वादक उस्ताद बहाउद्दीन डागर का मानना था कि संगीत भगवान तक पहुंचने का मार्ग है। उन्होंने राग शुद्ध भैरवी बजाकर, राग के सौंदर्य को दर्शाया। उनके साथ पखावज पर पंडित डालचंद शर्मा ने संगत किया। पिताश्री की रचना ‘ए री जोबन तेरो‘ में सौंदर्य की दृष्टि से बदलाव किया जा सकता है। हालांकि, सबकुछ नियम में बंधे हैं। लेकिन, परंपरा का पालन करते हुए, हम इसमें बदलाव कर सकते हैं।

समारोह में संगीत विभाग के विद्यार्थियों ने वंदना पेश किया। इसका संचालन डाॅ पाश्र्वनाथ जी पाई किया। यह वंदना राग नाटई और आदि ताल में निबद्ध थी। दूसरे सत्र में ताल वाद्य के बारे में प्रो मुकंद भाले और पंडित सुरेश तलवरकर ने भाग लिया।  तबला वादक प्रो मुकंुद भाले ने अपने वक्तव्य में कहा कि ताल राग से भिन्न हैं। इसका सौंदर्य राग की तरह नहीं है। हम इसे ठेके, बंदिश के जरिए परिभाषित करते हैं।

अपने प्रदर्शन के क्रम में तालयोगी पंडित सुरेश तलवरकर ने रूपक ताल से वादन आरंभ किया। उन्होंने ठेके की बढ़त, पेशकार, फर्शबंदी की। उन्होंने अपने वादन में खाली-भरी तालों और आरोह-अवरोह को दर्शाया। सौंदर्य बंधन में होता है। नियमों में होता है। यह अतिआवश्यक है। इंसान शरीर, बुद्धि, मन और आत्मा के जरिए संगीत से जुड़ता है। कला मन से साधी जाती है। शरीर तंत्र क्रिया का सहभागी होता है। शास्त्र बजाया जाता है, विद्या दी जाती है और कला संस्कारों से आती है।

टप्पा गायन में राग एवं ताल के सौंदर्य के बारे में पंडित लक्ष्मण कृष्णराव और प्रो नजमा परवीन अहमद ने चर्चा की। पंडित लक्ष्मण राव ने कहा कि टप्पा गायन की स्वतंत्र शैली है। यह अत्यंत कष्टसाध्य है। पंजाबी भाषा में पाई जाती है। इसका जन्म पंजाब में हुआ और इस पर वहां के लोक गीत का प्रभाव है। टप्पा गाने के लिउ गले की लोच का उपयोग किया जाता है। इस समृद्ध गायकी का विस्तृत रूप है, जैसे-टप्पा तराने, टप्पा ठुमरी। बंगाल में इसे खुले मन से स्वीकार किया गया। यह वहां काफी प्रचलित हुआ।

उन्होंने पुरानी रिकार्डिंग सुनाकर, टप्पे गायन पर प्रकाश डाला। यह टप्पा आर्ता चक्रवर्ती का गाया हुआ था। पंडित लक्ष्मण कृष्णराव पंडित के साथ तबले पर सागर गुजराती, हारमोनियम पर विनय मिश्रा, तानपुरे पर आशिक कुमार व गायन पर आर्ता चक्रवर्ती मौजूद थे।

शाम की सभा में कर्नाटक संगीत में सौंदर्य के संबंध में मृदंगम वादक डाॅ टी भक्तवत्सलम ने जानकारी दी। उनके साथ सहयोगी कलाकार के तौर पर आर श्रीधर, एन पद्मनाभम, अनन्या, आदर्श, वीएसके अन्नदुर्रई मौजूद थे। उन्होंने प्रभावकारी मृदंगम वादन पेश किया। उन्होंने पांच अंशों में वादन पेश किया। शुरूआत आदि ताल से की। अगले अंश में खंड चापू ताल में निबद्ध कीर्तनम पेश किया। यह एनएस रामचंद्रन की रचना थी। फिर, रूपकम और मिश्र चापू ताल का परिचय दिया। उन्होंने अपने वादन का समापन राग कल्याणी व आदि ताल में निबद्ध रचना से की। यह मुत्थुस्वामी दिक्षितर की रचना थी।






अगली पेशकश विदुषी उमा गर्ग की थी। उन्होंने ख्याल गायन पेश किया। उनके साथ तबले पर पंडित आशीष सेनगुप्ता, हारमोनियम पर डाॅ विनय मिश्र और तानपुरे पर रिनदाना व अनुभूति ने संगत किया। शास्त्रीय गायिका उमा गर्ग ने राग मुलतानी गाया। उन्होंने इसमें विलंबित एक ताल में बंदिश-‘अल्लाह तू साहिब‘ गाया। उन्होंने बंदिश ‘बलमा मोरे तुम संग लागी प्रीत‘ से गायन को विराम दिया।

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी-दादरा के रंग को बनारस घराने के पंडित भोलानाथ मिश्र ने पेश किया। उन्होंने राग पटदीप में बंदिश-‘ना जावो श्याम उन संग‘ को सुर में पिरोया। यह एक ताल में निबद्ध था। इसके बाद, उन्होंने राग देश में रचना ‘सौतन घर न जावो सैंया‘ को अपने सुर से नवाजा। यह जत ताल में निबद्ध था। उन्होंने दादरे में ठुमरी का अंदाज पेश किया। दादरे के बोल थे-‘जरा कह दो संवरिया से आया करे‘।



                                                                
 




                                       


समारोह के पहले दिन की परिचर्चा के दौरान कर्नाटक संगीत के सौंदर्य का परिचय भी करवाया गया। इस में वायलिन वादक डाॅ मैसूर मंजूनाथ, गायक डाॅ श्रीराम परसुराम और प्रो टीवी मणिकंडन ने भाग लिया। संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित डाॅ मैसूर मंजूनाथ ने वायलिन पर राग किरवाणी बजाया। उन्होंने राग और तानों के प्रयोग के जरिए राग किरवाणी के सौंदर्य को उजागर किया। उन्होंने तार सप्तक से लेकर मंद्र सप्तक में तानों का संचरण मोहक अंदाज में किया। उनके मधुर वादन ने समां बांध दिया।



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