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Monday, July 3, 2017

जानीमानी नृत्यंागना सोनल मानसिंह

शशिप्रभा तिवारी

   नृत्य के विशाल पटल पर वरिष्ठ नृत्यंागना और नृत्य गुरू सोनल मानसिंह ने पंाच दशक पूरे किए हैं। पद्मभूषण से सम्मानित नृत्यंागना सोनल मानसिंह ने भरतनाट्यम और ओडिशी दोनों ही नृत्य को सीखा है। वह मानती हैं कि शास्त्रीय नृत्य शैलियां मुख्यतः एकल नृत्य शैलियां हैं, पर इनदिनों बैले या नृत्य-नाटिकाओं का फैशन चल पड़ा है। वह कहती हैं कि एक अजीबोगरीब परिपाटी अब चल पड़ी है। अंतरराष्ट्रीय समारोहों में समूह नृत्य के लिए बुलाया जाता है। उनके यहां सोलो नहीं चलता। तो अब सिर्फ नृŸा ही नृŸा हो रहा है। नृत्य की आत्मा न जाने कहां भटक गई है। अभिनय कहां है किसी को मालूम नहीं है।
नृत्य के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाली नृत्यांगना सोनल मानसिंह के लिए जीवन ही नृत्य है, नृत्य ही जीवन है। वह कहती हैं कि जहां हम खड़े हो जाते हैं वहीं मंदिर बन जाता है। मैं देवदासी हंू। मैं साधना के उस पथ पर अग्रसर हंू, जहां नृत्य के अलावा मुझे कुछ सूझता ही नहीं। नृत्य की परिभाषा लाखों हैे, क्यांेकि इसके आयाम लाखों हैं। मेरे खातिर जीवन ही नृत्य है, नृत्य ही जीवन हैै। नींद में सांस चल रही है, वह भी लयात्मक नृत्य है। जहां गति है, वहां नृत्य है। हमारे पूर्वजों ने इसे उŸाम स्थान दिया है। हमारे जीवन से नृत्य इस कदर जुड़ा है कि जीवन का शिव तत्व ही नटराज है। सबसे मोहक रूप, जिसका अजन्म रूप है। उसकी जटाएं हिमालय की सघन वन की प्रतीक हैं। कल्पना कितनी विराट है कि यदि वो जंगल नहीं होते तो कैसा उधम मचता? फिर गंगा यानी ‘गम गच्छति इति गंगा‘। जो बहता है, वह सब कुछ गंगा है। इधर गंगा का मार्ग अवरूद्ध हो रहा है। वैज्ञानिकों का मानना है कि गंगा का उद्गम, जो गोमुख ग्लेशियर है, वह हर वर्ष पीछे जा रहा है। अगर इसे संकेत मानकर देंखें, तो कहना पड़ेगा कि इसी गंगा की तरह, हमारी संस्कृति, कलाएं, ज्ञान के सारे संसाधन प्रतिवर्ष पीछे जा रहे हैं। शिव की इन जटाजूटों को बचाना होगा। वरना संस्कृति ही नहीं हमारा अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। नटराज के बाद, हमारे कृष्ण का विशाल स्वरूप हमारे सामने आता है, जिन्हें हम नटनागर कहते हैं। उनको हम नृत्य में त्रिभंग भंगिमा में दिखाया जाता। देवी तो शक्ति हैं, वह नटरानी हैं। इतना ही नहीं, देवी-देवताओं की नृत्य-संगीत से जोड़ा गया है। सरस्वती के हाथ में वीणा, शिव के हाथ में डमरू, कृष्ण बंासुरी बजाते हैं, तो ब्रह्मा के हाथ में खड़ताल है। यानी हमारे यहां नृत्य या कला जीवन का सार है। इसलिए जीवन में बेतालापन या बेसुरापन नहीं होना चाहिए। दरअसल, हमारी संस्कृति में ‘कला-विद्या-अध्यात्म‘ अलग-अलग नहीं हैं। यह पश्चिम में है। हमारी परम्परा में सब कुछ एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं, एक हथेली की पांच अंगुलियों की तरह। ये जीवन में उदाŸाता के प्रतीक हैं।
नृत्य के बारे में ही वह आगे कहती हैं कि जहां हम नृत्य करने खड़े होते हैं, वहीं मंदिर बन जाता है। मैं देवदासी हंू। मुझे लगता है कि आजकल हम शब्दों का इस्तेमाल तो करते हैं, पर उसके सही अर्थ या विशेष अर्थ से वाकिफ नहीं होते। ‘देवदासी‘ का बीजाक्षर-‘दिव्‘ है। इसका तात्पर्य है- दिव्यता, देवता, दिवस, देव या डिवाइन है। इन सभी शब्दों में ‘तेज‘ यानी तेजोमय है। उनमें आलोक या दिव्यता है। दिव्यता का ठोस रूप आम लोगों को समझ आता है। अब देखिए, हमारी आदिवासी संस्कृति में ‘देव‘ का अन्यतम स्थान है। आदि संस्कृति में पत्थर, पेड़-पौधे, नदी, पहाड़ सब देव स्वरूप हैं। इस तरह मैंने देवदासी के विराट रूप को समझा है। हमें अपनी संर्कीणता को छोड़कर अपनी सोच को विस्तार देना है। ‘नारी‘ दिव्यता का प्रतिरूप स्वयं है। वह दिव्यता को अपने कोख से जन्म देती है। इस संसार में देवता को भी अवतार रूप में जन्म लेने के लिए नारी की कोख या दिव्यता का सहारा लेना पड़ता है। तभी तो उन्हें यशोदा या कौशल्या का सहारा लेना पड़ता है। इस दिव्यता की बात अपनी जगह है, पर समाज की सच्चाई और ही है। हाल ही, मैं केरल की एक महिला से मिली जो गैंग रेप की शिकार हुई थी। उसे सोचती हूं तो मन क्षोभ से भर जाता है। उसने मुझे एक मुलाकात के दौरान बताया कि अब तक उसने चार हजार लड़कियों को रेप का शिकार होने से बचाया है। वह अपनी कोशिश जारी रखे हुए है। मैं भी अपने नृत्य के जरिए समाज में जागरूकता पैदा करना चाहती हूं।
नृत्यंागना सोनल मानसिंह कहती हैं कि आज की तारीख में हम अपनी कला के साधना पथ पर निरंतर चलते जा रहे हैं। हमारे लिए नृत्य का अर्थ सृष्टि का कलात्मक आकलन है, जहां देवता और मनुष्य, देह और प्रतिमा, शब्द और संगीत का भेद मिट जाता है। नृत्यरत शरीर इस लिहाज से एक मूर्तिमान दैवीय सŸाा में परिवर्तित हो जाती है, वह साधारण से उठकर असाधारण रचती है। भरत मुनी के ‘नाट्यशास्त्र‘ जिसे पंचम् वेद माना गया है। उसमें कहीं भी ‘मंदिर‘ का जिक्र नहीं आता है। ‘सभा‘ यानी गुणीजन का समाज या हवेली संगीत में समाज शब्द आता है। इसलिए मेरा मानना है कि उम्र के इस पड़ाव पर नृत्य मेरे लिए धूप, दीप, चंदन, फूल चढ़ाकर देवता के साकार रूप को प्रसन्न करना मात्र नहीं है। पहले कभी कृष्ण, गणपति, विष्णु मेरे अराध्य देव रहे। पर अब मन भगवान शिव में रमने लगा है। इनके अलावा, देवी तो सर्वोपरि हैं ही। यह अध्यात्म समय के साथ परवान चढ़ता है। यह मानस पूजा है, जो निरंतर श्वांस के साथ चलती रहती है। मेरे लिए यह पूजा एक ऐसा विंदु है, जहां मेरी सारी ऊर्जा संचित होती है। उस समय मेरे मन किसी देवता का नाम भी हो सकता है या किसी व्यक्ति सभी में वो चेतना है, क्योंकि सब में उस दिव्य शक्ति का वास है। अब मेरा यह नृत्य सिर्फ आनंद की प्राप्ति और आनंद को लोगांे के साथ बंाटना है। इस वक्त मुझे अपनी वर्ष-2006 की कैलाश मानसरोवर की यात्रा याद आ रही है। विशाल कैलाश पर्वत के पृष्ठभूमि में बने मंच पर मैंने बौद्धों के पर्व-‘सागा दागा‘ के मौके पर नृत्य पेश किया। उस दिन बुद्ध पूर्णिमा था। वह दिन जिसमें बुद्ध का जन्म, उन्हें बोधिज्ञान और परिर्निवाण की प्राप्ति हुई थी। वह क्षण मेरे लिए हमेशा अविस्मरणीय रहेगा।
वह युवाओं कलाकारों को अपने संदेश में कहती हैं कि गुरू और ईश्वर के प्रति हमेशा आभारी होना चाहिए। एक कलाकार सहज रहे, दूसरों के प्रति सहृदय हो और जो कुछ मिला है, उसके प्रति कृतज्ञता बोध हो। तब वह पारंपरिक अर्थांे में सच्चा कलाकार है। भले ही वह व्यवहारिक स्तर पर कम सफल हो या कम चर्चित हो।

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