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Wednesday, January 20, 2021

फिल्में हमारे सपनों का साकार हैं

                                                        फिल्में हमारे सपनों का साकार हैं

                                                       डाॅ चंद्रप्रकाश द्विवेदी, फिल्म निदेशक

फिल्म निदेशक डाॅ चंद्रप्रकाश द्विवेदी जानेमाने कलाकार हैं। उन्होंने ‘चाणक्य‘ जैसे धारावाहिक से अपनी दमदार पहचान बनाई थी। इनदिनों वह पृथ्वीराज चैहान फिल्म को लेकर फिर चर्चा में हैं। उनसे बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत है-शशिप्रभा तिवारी

आप भारतीय संस्कृति के बारे में क्या सोचते हैं?

डाॅ चंद्रप्रकाश-मेरा इस धरती से क्या संबंध है। जिस काल में इसका विकास हुआ होगा। अगर इस धरती पर नहीं है, किसी और धरती पर हैं, तो वह भी मेरी माता है। जिस काल में हुआ होगा। इस कल्पना का विकास कैसे हुआ होगा, यह सोचकर गजब-सा कौतुहल होता है। इसी संदर्भ में मैं सोचता हूं कि स्तूप की जो परिकल्पना है, उसे भी गर्भ कहा जाता है। और मंदिरों में भी गर्भगृह होता है। हम सोचते हैं कि मैं कहां से आता हूं और कहां को जाता हूं। यानि मां के गर्भ से निकलकर दूसरे गर्भ यानि पृथ्वी पर जाता हूं, तो वह भी मेरी माता है। वह पोषक है। जो भी आपका पालन-पोषण करता है, वह माता का प्रतिरूप है ही। हमारी संस्कृति एक विचार है।

हमारी अमूल्य धरोहर सिंधु घाटी, भारहुत, कोणार्क, हम्पी, सांची, खजुराहो, अजंता, एलोरा, मानसिंह की वेधशाला, आमेर के किले, हवा महल, ताजमहल, लालकिला, अक्षरधाम जैसे अनेकों हैं। यह एक लंबी सूची है। लेकिन, कुषाण काल में मूर्ति कला का अद्भुत विकास हुआ। उनके सिक्कों में यूनान, मिश्र, वैदिक देवी देवता सभी दिखते हैं। चैथी बौद्ध संगति के बाद, बोधि वृक्ष और बौद्ध प्रतीक चिन्हों को सिक्कों पर उकेरा गया। उन्होंने समय और जरूरत के हिसाब से भारतीय विविधता को स्वीकार किया। इसी क्रम में कनिष्क के वंशजों ने कार्तिकेय के रूप का चित्रण सिक्कों पर करवाया। यह प्रदर्शित करता है कि उनलोगों ने भारतीयता को स्वीकार किया। सच तो यह है कि जिसे भारत स्वीकार लेता है, उसे विश्व सहज स्वीकार कर लेता है। 



हमारी संस्कृति की विशेषताएं क्या हैं?

डाॅ चंद्रप्रकाश-परिवर्तन की स्वीकार्यता हमारे देश में सदियों से रही है। लोगों को समझा नहीं पा रहा हूं। कला परिवर्तन ला सकता है। इंद्र ब्रम्हा के पास गया कि मैं लोगों को समझा नहीं पा रहा हूं। मनोरंजन भी हो और लोगों तक पहुंचे। शिक्षा में कला को कैसे ले रहे हैं। वाल्मिकी, तुलसीदास, कवि, लेखक, कलाकार परिवर्तन ला सकते हैं। रवि वर्मा ने कैलेंडर में देवताओं की मूर्तियों को चित्र के रूप में उकेरा। भारत का अतीत श्रेष्ठ, महान धरोहर की प्रतिरूप था। वह एक बड़ा परिवर्तन माना जा सकता है। उन्होंने कं्राति लाया। वह कोई छोटी बात थोड़ी थी। उसके बाद हम देवी-देवताओं के उसी रूप की पूजा करने लगे। यह कलाकार के बहुत बड़ी परिवर्तनकारी सोच की ओर हमें इशारा करता है। 

भारतीय संस्कृति में सिनेमा का क्या योगदान है?

डाॅ चंद्रप्रकाश-पहले लोग पश्चिम से पूर्व की ओर लोग आते थे। ज्ञान का केंद्र भारत हुआ करता था। लेकिन, समय का चक्र घूमा और हम सब कुछ के लिए पश्चिम की ओर देखने लगे। यहां तक कि सिनेमा में काम करने वाले का सपना आॅस्कर कब मिलेगा हो गया तो साहित्यकार बुकर पुरस्कार का सपना संजोने लगे। अगर, कोई लेखक हिंदी में अच्छा लिखता है, तो उसे सलाह मिलने लगते हैं कि अंग्रेजी में लिखो। जल्दी-जल्दी पैसा और नाम दोनों मिल जाएगा। वास्तव में, हम खुद पर गर्व करना ही भूलने लगे हैं। जब कि हमारी सदियांे पुरानी समृद्ध ज्ञान संपदा थी, कला संपदा, विज्ञान संपदा रही है। वह लगातार विकसित हो रही है। पर प्राचीन और वर्तमान का सेतु कहीं हमारे बीच नहीं रहा। इस कारण मुझे लगता है कि आने वाले समय में मैं युवाओं को खासतौर पर अपनी समृद्ध परंपरा से परिचित करवाऊं। कभी-कभी महसूस होता है कि युवा को यही नहीं मालूम है कि उसे कितनी संपन्न व समृद्ध परंपरा उसे उŸाराधिकार के तौर पर मिल रहा है। 

परिवर्तन हर क्षेत्र में आ रहा है, इसे आप किस नजर से देखते हैं?

डाॅ चंद्रप्रकाश-मुझे लगता है कि हम परिवर्तन की ओर लगातार अग्रसर हो रहे हैं। भारत की संस्कृति तो परिवर्तन को लगातार आत्मसात करते हुए, सदा प्रवाहमान रही है। यह परिवर्तन भी कला के माध्यम से ही आएगा। क्योंकि मेरा मानना है कि राजनीति और शिक्षा तो इस प्रयास में लगभग असफल रहे हैं। ऐसे में कला से ही परिवर्तन आना आवश्यंभावी है। अब देखिए न! मैं अपने देश की कला व साहित्य के इतिहास पर नजर डालता हूं तो वेदों के ऋषियों ने कभी विराट परिवर्तन का जयघोष किया होगा। महर्षि व्यास, वाल्मीकि और तुलसीदास ने अपनी-अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति से ही जनमानस को जागृत किया। उनके आधार ऐतिहासिक या पौराणिक पुरूष रहे। ऐसे ही चित्रकार रवि वर्मा ने अपने समय में अनूठा काम किया। उन्होंने हमारे देवी-देवताओं को मूर्तियों से इतर चित्रों में उकेरा। उन्हीं की देन है कि पत्थरों और शिल्पों से निकलकर हर घर में कैलेंडर और चित्रों से हर घर की दीवारें सजने लगी। उन्होंने अपने समकालीन स्वतंत्रता आंदोलन के चित्रों को नहीं बनाया। बल्कि, जो चरित्र उनको कालातीत और अनंत प्रतीत हुए, उनको अपनी कूचियों के रंगों से चित्रित किया। यह हमारी महान धरोहर से प्रेरणा का ही नव-आख्यान माना जा सकता है। मुझे लगता है कि हम कहीं न कहीं अपने ऐतिहासिक पात्रों से प्रभावित रहते हैं, जो हमारे आदर्श और अनुकरणीय चरित्र होते हैं। लोक शिक्षा इन पात्रों के माध्यम से देना सहज रहा है तभी तो दादा साहब फालके ने अपनी पहली फिल्म राजा हरिशचंद्र बनाया है । आज भी कई टीवी धारावाहिक और फिल्में पौराणिक गाथाओं पर बन रहे हैं और लोग पसंद कर रहे हैं। यह समाज की सकारात्मकता को ही बताता है। 

क्या इन-टाॅलरेंस फैक्टर को आप भी मानते हैं?

डाॅ चंद्रप्रकाश-वैसे सिनेमा के संदर्भ में असहिष्णुता कोई नई बात नहीं है। इसका विवरण भरतमुनि के नाट्य शास्त्र के पहले अध्याय में मिलता है। देवराज इंद्र के दरबार में जब पहला नाटक समुद्र मंथन का मंचन हुआ, तब दानवों का राजा विरूपाक्ष इसके विरूद्ध खड़ा होकर उस नाटक का विरोध किया। उसने आरोप लगाया कि असुरों का चित्रण गलत हुआ है। उसने उत्पात मचाया और जहां भी नाटक होता, वहां पहुंचकर विघ्न उत्पन्न करता था। उससे परेशान होकर , इंद्र ब्रम्हाजी के पास गए और अपनी परेशानी बताई कि यह क्या हो रहा है। फिर, ब्रम्हाजी ने विरूपाक्ष को बुलाकर समझाया कि मेरा इरादा तुम्हें अपमानित करने का नहीं है। किंतु, जैसी कथा मुझे ऋग्वेद में मिली है, मैंने सिर्फ उसे वैसा ही मंचित करवाया है। उसे मंचित होने दो। मजेदार बात है कि उसके बाद ही खुले मंच के बजाय बंद सभागारों के मंच यानि एन्क्लोज्ड थिएटर का चलन शुरू हुआ। दरअसल, किसी भी विचार को लेकर विवाद और उससे अलग विचार का चलन हमारे देश में शुरू से रहा है। इसके माध्यम साहित्य और कला ही रहे हैं। यह कला और कलाकार ही हैं, जो अतीत को वर्तमान से सहज ही जोड़ देते हैं। मेरी कोशिश होगी कि आने वाले समय में मैं लोगों को सत्य को सहजता से समझाने का प्रयास करूंगा। कला समाज को जोड़ती रही है और आगे भविष्य में भी जोड़ती रहेगी यही आशा है।

भारतीय दर्शकों से क्या अपेक्षाएं हैं? 

डाॅ चंद्रप्रकाश-मैं तो भारतीय दर्शकों और भारतीय समाज की खुली सोच को शाबाशी देता हूं। हमारे देश ने जितने प्यार से अभिनेत्री सनी लियोन को स्वीकार किया है, वह काबिल-ए-तारीफ है। वह भारत में सफल अभिनेत्री है। उसके काम की तारीफ हो रही है। समाज को ऐसे ही जजमेंटल हुए बिना, चीजों को स्वीकार करना भी आना चाहिए। यही उदाŸा और स्वस्थ परंपरा हमारे यहां रही है। तभी तो वैदिक काल में ही वैदिक धर्म का विरोध हुआ। पर मतभेदों के बीच सामंजस्य स्थापित करना ही भारतीय संस्कृति रही है। ऐसे ही इग्लैंड के लेखक रिचार्ड बैटन कामसूत्र का अंग्रेजी अनुवाद किया। शुरू में उन्होंने अपना नाम प्रकाशित नहीं किया था। उन्हें डर था कि यह विभत्स पुस्तक है, कहीं उन्हें मार न डाला जाए। जब उन्होंने देखा कि वह विश्व की बेस्ट सेलर हो गई है। उन्हें राॅयल्टी नहीं मिल रहा है। उन्हें नुकसान हो रहा है। तब उन्होंने स्वीकार किया, और उसे अपना नाम दिया। कुछ नया और अनूठा करने वाले को थोड़ा-सा डर और चुनौती रहा है। मतभेद में समरसता को स्वीकार करने की हमलोगों ने हमेशा कोशिश की है। 


 


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