जो भरा नहीं भावों से
विदुषी उर्मिला नागर जयपुर घराने की जानीमानी नृत्यांगना और गुरू हैं। वह लंबे समय तक दिल्ली के कथक केंद्र से जुड़ी रहीं। वह कथक केंद्र की निदेशक पद को सुशोेभित कर चुकी हैं। उन्हें संगीत नाटक अकादमी सम्मान मिल चुका है। उन्हें नृत्य के साथ-साथ संगीत में भी अधिकार प्राप्त है। उनसे देश के संदर्भ मेें बात करने का अवसर मिला। उस बातचीत के कुछ अंश पेश हैं-शशिप्रभा तिवारी
अपने देश को आप किस तरह से महसूस करती हैं? गुरू उर्मिला नागर-हमारा देश भारत भावना, रसानुभूति और तादात्म्य अनुभूति का देश है। देश की स्वतंत्रता, अखंडता और एकता है, तब तक हम भारतवासी सुरक्षित और स्वतंत्र है। हमें देश की एकता और राष्ट्रीयता की अखंड ज्योति को जलाए रखना है। ताकि, आने वाली पीढ़ी भी हमारी तरह आजाद हवाओं में सांसें ले और मानवता के विकास और उत्थान के लिए काम करे। मुझे कवि मैथिलीशरण गुप्त की एक कविता की कुछ पंक्तियां याद आती हैं- ‘जो भरा नहीं भावों से, बहती हृदय में रस धार नहीं। वह हृदय नहीं वह पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।‘ सच। कवि की ये पंक्तियां आज भी मुझे उद्वेलित कर देती हैं। जब मैं देश के अलग-अलग हिस्सों से हिंसा और अत्याचार की खबरें टीवी पर देखती हूं या अखबार में पढ़ती हूं तब मन दुखी हो जाता है। फिर, एक बार मन सोचने को मजबूर हो जाता है कि हमारे स्वतंत्रता सेनानियों या क्रांतिकारियों ने क्या इसी लिए अपने प्राण न्योछावर किए थे? या इसलिए कि हम देशवासी अमन-चैन और प्यार से मिल-जुल कर साथ रहें और देश का विकास करें। देश आगे बढ़ेगा तो हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां तरक्की करेंगीं। इससे विश्व में भारत की एक विशेष पहचान बनेगी।
कलाकारों और देश के बीच के संबंध को आप कैसे देखती हैं? गुरू उर्मिला नागर-हम कलाकारों को आजादी मिली हुई है। तभी तो हम अपनी कला को सीख और सिखा रहे हैं। मैं अपने जीवन का सŸार बसंत देख चुकी हूं। मेरा जन्म जोधपुर में हुआ था। हालांकि, उस जमाने में मध्यमवर्गीय परिवार में संगीत-नृत्य सीखना या उसे प्रस्तुत करना अच्छी नजर से नहीं देखा जाता था। लेकिन, मेरे पिताजी को इन कलाओं का बहुत शौक था और वह दिल से चाहते थे कि उनकी बेटियां इसे सीखें। आमतौर जो परिवार के बड़े-बुजुर्गों की ओर से जो रोक-टोक हमें नहीं झेलना पड़ा। हमारे पिताजी ने बहुत खुले मन से हमें संगीत और नृत्य सीखने का अवसर दिया। उस समय तो कुछ पता नहीं था, लेकिन अब जब सोचती हूं तब महसूस होता है कि वह समय से बहुत आगे की सोच रखने वाले थे। मैं मानती हूं कि आज मैं जो कुछ भी हूं वह उनके और गुरूओं के आशीर्वाद से हूं।
आप महिला की आजादी के संदर्भ क्या सोचती हैं? गुरू उर्मिला नागर-वास्तव में, मुझे लगता है कि आज भी छोटे शहरों में खासतौर पर एक लड़की को आजादी देना बहुत बड़ा निर्णय होता है। यह पिताजी की ही सोच थी कि मैं सन् 1964में कथक नृत्य सीखने दिल्ली आ गई। मैंने भारतीय कला केंद्र में पंडित सुंदर प्रसाद जी के सानिध्य में नृत्य सीखा और दूसरी ओर गंधर्व विद्यालय में संगीत की तालीम लिया। उनदिनों कला जगत का माहौल बहुत स्वस्थ, स्वतंत्र और खुशनुमा होता था। हर गुरू अपने शिष्य को बेहतर से बेहतर तालीम देकर तैयार करने के लिए समर्पित नजर आता था। उन्हीं दिनों एक समारोह में मुझे नृत्य पेश करने का अवसर मिला था। उस कार्यक्रम में सिताराजी, रोशनजी, गोपीजी के साथ मैंने मंच साझा किया था। एक युवा कलाकार के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी। अब मुझे महसूस होता है कि मुझे मिली वह अमूल्य स्वतंत्रा कुछ करने और कुछ गढ़ने की मिली, जिसके बल पर मैं अपने जीवन काल में कुछ कर पाई।
देश भक्ति की भावना को आप किस तरह अपने भीतर महसूस करती हैं? गुरू उर्मिला नागर-जहां तक मुझे याद है सŸार का दशक रहा होगा। मैंने आकाशवाणी में संगीत के लिए आॅडिशन दिया और मैं पास हो गई थी। कुछ दिनों बाद ही मैंने पहला प्रोग्राम दिया। वह मुझे अभिभूत कर दिया था। क्योंकि मुझे भी आकाशवाणी को कोयर-ग्रुप में गाने का अवसर मिला था। इसमें हमें लालकिले के प्राचीर से राष्ट्रगान ‘जन-गण-मन‘ गाना था। उस समूह में हमलोग दस-बारह लोग थे। सफेद साड़ी और केसरिया ब्लाउज पहन कर प्रधानमंत्री द्वारा तिरंगा फहराने के तुरंत बाद गाने का वह अनुभव अनुपम था। आज भी याद करके मन सिहर उठता है। उसके बाद तो वह सिलसिला कई सालों तक जारी रहा। वह अनुभूति हमें वाकई देश भक्ति के भावों से भर देता है। मुझे महसूस होता है कि इंसान में ही नहीं, पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों में भी स्वतंत्रता और स्वदेश प्रेम निरंतर तरंगित होता रहता है। हिमालय प्रदेशों में रहने वाले पशु-पक्षी हिम के झोकों को ही आनंद ओर मुख की तरंगें मानते हैं। हिम की गोद से अलग होते ही उनकी हंसती हुई आंखें उदास हो जाती हैं। जैसे मरूस्थल की धूल फांकनेवाले पशु-पक्षाी वहां की प्रचंड लू में ही सुख और संतोष का जीवन बीताते करते हैं। पेड़-पौधे को भी अपनी जन्मभूमि से पे्रम होता है। अपनी जन्मभूमि से हटते ही वे मुरझा जाते हैं। कश्मीर के पेड़-पौधे को यदि हम बंगाल चाहें तो वे उगकर भी सदा उदास रहेंगें। ऐसे ही हमारी कलाएं हैं। हमारे देश की महिलाओं को मिलकर अपनी रचनात्मक को बढ़ाना चाहिए। वो स्वतंत्रता से अपने सम्मान को कायम रखते हुए, मेहनत से अपनी अस्मिता को कायम रखना है। लोग कीड़े-मकोड़े की तरह दुनिया में आते हैं, और अपना समय जीवन जीने में गंवा देते हैं। ऐसे में हम अपनी मेहनत से काम करके समाज में अपनी पहचान और सम्मान कायम करना है। क्योंकि आपके काम को ही लोग याद करते हैं। आपके काम से ही आपकी पहचान बनती है।
बतौर कलाकार आपके लिए आजादी के क्या मायने हैं?
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