अलविदा संस्कृति अग्रदूत-डाॅ कपिला वात्स्यायन
शशिप्रभा तिवारी
मेरी कपिला दीदी-पंडित बिरजू महाराज, कथक सम्राट
उनदिनों मैं छोटा-सा बालक था। लखनऊ में कपिला दीदी पिताजी से कथक सीखतीं थीं। पिताजी उनको जब नृत्य सिखाते, तब मैं बैठकर देखता और गुनता रहता था। वह मुझे बड़े प्यार से ‘बिरजू भैया‘ बुलाती थीं। अक्सर, मजाक करतीं, अब तो बड़े कलाकार हो गए हो! अब तो तुम्हारा बहुत नाम हो गया है। तुमने अपने पिताजी का नाम ऊंचा किया है। तुम पर नाज है। उनके ऐसा कहने पर मैं मुस्कुराकर रह जाता था। मुझे दिल्ली लाने वाली दीदी हीं थीं। साढे़ नौ बरस का था, जब वह यहां लेकर आईं।
उन्होंने संगीत भारती में वह मणिपुरी नृत्य सीखा था। वहां उनके गुरू अमोबी सिंह थे। संगीत भारती में कपिला दीदी की मणिपुरी नृत्य के डेªसे में तस्वीर भी सजी हुई थी। उनका मुझ पर कभी न भूलने वाल अहसान रहा है। उन्होंने अपने गुरू के बेटे की जिम्मेदारी को भरपूर निभाया। सच कहूं तो वह बहुत ज्ञानी थीं। सबसे बड़ी बात कि बहुत इज्जत के साथ इस दुनिया से विदा हुईं।
उनका सार्थक जीवन-ओम थानवी, कुलपति, हरिदेव जोशी पत्रकारिता एंव जनसंचार विश्वविद्यालय
संस्कृति के बौद्धिक परिवेश में कमलादेवी चट्टोपाध्याय, रूक्मिणी देवी अरूंडेल और कपिला वात्स्यायन की एक विदुषी त्रयी बनती है। बीते दिनों अंतिम कड़ी भी टूट गई। पता नही, एक साथ ऐसा समर्पित समूह अब कब अवतरित होगा।
यों डाॅ कपिला वात्स्यायन ने कमोबेश पूरा और सार्थक जीवन जिया। कला और संस्कृति के क्षेत्र में उनके योगदान पर बहुत कुछ कहा गया है। संस्थाएं खड़ी करने पर भी। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र उन्हीं की देन है। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर को सांस्कृतिक तेवर प्रदान करने में उनकी भूमिका जग जाहिर है। इतने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आयोजन मैंने आइआइसी में देखे-सुने कि उससे दिल्ली के अलग दिल्ली होने का अहसास होता था।
जयदेव कृत ‘गीत गोविंद पर अपने शोध और भरत के नाट्यशास्त्र के विवेचन से बौद्धिक हलकों में उन्होंने नाम कमाया। पारंपरिक नाट्य परंपरा पर भी उन्होंने विस्तार से लिखा है। बाद में उन्होंने शास्त्रीय और लोक दोनों नृत्य शैलियों पर काम किया। मूर्तिकला-खासकर देवालयों में उत्कीर्ण नृत्य मुद्राओं-का उनका गहन अध्ययन सुविख्यात है। साहित्य और चित्रकला के नृत्य विधा से रिश्ते पर भी उन्होंने शोधपूर्ण ढंग से लिखा।
अपनी कल्पना को विस्तार दिया-डाॅ सच्चिदानंद जोशी, सदस्य सचिव, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला कंेद्र
जब चार साल पहले पहली बार इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र की सीढ़ियां चढ़ रहा था तो मन में उत्साह तो था। साथ ही संकोच भी था। उस संस्था में काम करना है, जिसकी स्थापना कपिला वात्स्यायन जी ने की है। उस संस्था में काम करना जिसके कण-कण का सृजन कपिला जी की कल्पना से हुआ हो। इन संस्थान की कल्पना और इसके विस्तार को समझने में ही काफी दिन लग गए। चुनौती थी कि जो उच्च मानदंड उन्होंने स्थापित किए है, उनके अनुरूप आगे काम को ले जाना।
इसलिए आइजीएनसीए में काम शुरू करने के बाद उनसे पहली मुलाकात करने में कुछ दिन का समय लिया। सोचा कि पहले कुछ जान समझ लूं फिर जाऊंगा। वैसे कपिला जी से भोपाल में एकाधिक बार मिलना हुआ था, जब वे ‘रंगश्री लिटिल बैले ट्रुप‘ की ट्रस्ट की बैठकों में आती थीं। उनके साथ उस ट्रस्ट में सदस्य होने का भी सौभाग्य मिला। लेकिन, तब उनसे बहुत बात करने की हिम्मत नहीं होती थी। हम लोग बस उनकी, मेरे गुरू प्रभात दा की और गुल दी की गप्पों और नोंक-झोंक का आनंद लिया करने थे। मन में ये भी शंका थी कि क्या कपिला जी उन मुलाकातों को याद रख पाई होंगी।
भारतीय संस्कृति को देखने की दृष्टि कपिला जी ने विकसित की थी, वह अद्भुत थी। वह भारतीय संस्कृति के अध्ययन को सिर्फ अतीतजीवी होने से बचाती हुई, वर्तमान का बोध करते हुए, भविष्योन्मुखी बनाने में सक्षम थी। इसलिए उनका लक्ष्य था, श्रेष्ठतम संदर्भों का निर्माण। वे लगातार कार्य करती रहीं, अपने उसी लक्ष्य को पूरा करने में जुटी रहीं। आयु के इस दौर में भी उन्हें लगाता काम करते देखना प्रेरणा देने वाला था।
वह सांस्कृतिक सेतु थीं-एन एन वोहरा, अध्यक्ष, इंडिया इंटरनेशनल सेंटर
डाॅ कपिला वात्स्यायन इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की संस्थापक अध्यक्ष रहीं। उनका इंडिया इंटरनेशनल सेंटर से करीब साठ साल का संबंध रहा। वह भारतीय कला और संस्कृति की अग्रदूतों में से थीं। उन्होंने इंडिया इंटरनेशनल सेंटर और कई अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के बीच संबंध स्थापित करने में सेतु का काम किया। मुझे विशेष तौर पर उनके साथ वर्षों तक काम करने का अवसर मिला। उनके जाने से सांस्कृतिक जगत में एक शून्यता पैदा हो गई है, जिसे भर पाना शायद संभव नहीं है।
विश्वास नहीं होता-शाश्वती सेन, कथक नृत्यांगना
डाॅ कपिला वात्स्यायन हमारी पथ प्रदर्शक, शुभ चिंतक और माता-पिता के बाद उनका प्यार मिला। वह ज्ञान की अथाह समंदर थीं। उनके ज्ञान सागर से अगर हम दो लोटा ज्ञानरूपी जल निकाल भी लेते तो उनपर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था। वह नृत्य, संगीत, हस्तकला, साहित्य हर विधा में बराबर का दखल रखतीं थीं। याद आता है, उनसे अंतिम मुलाकात आइआइसी में शाॅरेन लाॅवेनजी के एक कार्यक्रम में करीब छह महीने पहले हुई थी। वह ऐसे अचानक विदा हो जाएंगी, विश्वास नहीं होता है।
हम महिला की प्रेरणापुंज-रीता स्वामीचैाधरी, सचिव संगीत नाटक अकादमी
संस्कृति की पर्याय डाॅ कपिला वात्स्यायन अपने सांस्कृतिक विभूति थीं। उन्होंने संस्कृति और साहित्य जगत में उस समय कदम रखा, जब इस क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की संख्या अंगुलियों पर गिनी जा सकती थी। मेरी वह प्रेरणास्वरूप रही हैं। उनसे कई बार मिलने का अवसर मिला। सोचती हूं, उन्होंने अपनी प्रतिष्ठा अपने काम से प्राप्त की थी। वह संस्कृति के प्रति पूरी तरह समर्पित व्यक्तित्व थीं। वास्तव में, वह संास्कृतिक फलक की ध्रुव तारा थीं, जो आने वाले समय में वह हमेशा हर किसी को प्रेरित करेंगी। वह सदा-सदा अपनी लेखनी और कृतित्व के माध्यम से अमर रहेंगीं। उन्हें हम कभी भूल नहीं पाएंगें।
संस्कृति की केंद्र विंदु-सुमन कुमार, उपसचिव संगीत नाटक अकादमी व निदेशक कथक केंद्र
डाॅ कपिला वात्स्यायन अपने नाम के अनुरूप ही सौम्यता से परिपूर्ण थीं। चाहे वह लोककला हो या शास्त्रीय कला या कोई अन्या विधा हर किसी को एक समान आदर और प्यार देतीं थीं। वह सभी संास्कृतिक विधा की केंद्र विंदु थीं।
वर्तमान में कलाओं का जो सौम्य मुख दर्शन हम कर पा रहे हैं, वह उनकी मेहनत का नजीजा हैं। उन्होंने जो सपने देखे, उसे अपने जीवन काल में फलीभूत होते हुए देखने का सौभाग्य पाया। उन्होंने संस्कृति के स्वर्ण युग के स्वर्ण स्वप्न को साकार किया।
वह परम विदुषी, हर क्षेत्र का ज्ञान रखने वाली, शास्त्र का ज्ञान, अनुभव की बौद्धिकता और सौम्य थीं। मुझे याद आता है कि काॅलेज के दिनों में लोक कलाओं पर उनके आलेख को पढ़कर मुझे प्रेरणा मिली थी। उसे प्रेरित होकर मैंने पहला आलेख कला से संबंधित लिखा था|
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