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Thursday, April 9, 2020

कला एकांत साधना है-पूर्वा धनाश्री





                                               कला एकांत साधना है-पूर्वा धनाश्री


युवा नृत्यांगना पूर्वा धनाश्री अपनी अनूठी प्रतिभा के लिए जानी जाती है। उन्होंने भरतनाट्यम नृत्य गुरू कमलिनी दत्त और राधिका सुरजीत से सीखा है। जबकि, गुरू स्वप्नसंुदरी से उन्होंने विलासिनी नाट्यम नृत्य सीखा। लगभग लुप्तप्राय नृत्य शैली विलासिनी नाट्यम को उनकी गुरू ने देवदासी परंपरा की देवदासियों से सीधे सीखा। यह नृत्यांगना पूर्वा का सौभाग्य है। वह अपनी गुरू से सीखकर, इस विरासत को बखूबी संजोया। यह चुनौती पूर्ण है। आज रूबरू में हम पूर्वा धनाश्री से रूबरू हो रहे हैं-शशिप्रभा तिवारी





भारतीय शास्त्रीय नृत्य क्या है?

पूर्वा धनाश्री-शास्त्रीय नृत्य संवाद की सशक्त भाषा है। यह कला की अन्य विधाओं, मसलन-संगीत, साहित्य, शिल्प, चित्रकला का क्रिस्टल रूप है। नृत्य जीवन जीने के सलीके के साथ-साथ जीवन का दर्शन भी है। नृत्य हमें जीवन के विशद यथार्थ से परिचित करवाता है। वास्तव में, यह दृश्यमान कविता की तरह है। यह एक अमूल्य परंपरा है, जिस धरोहर को एक पीढ़ी-दूसरी पीढ़ी को गुरू-शिष्य परंपरा के जरिए सौंपती रही है। नृत्य कहीं न कहीं हमारे समकालीन समाज की रचनात्मक अभिव्यक्ति का भी एक रूप है। यह समाज का दर्पण है। इसके साथ ही, यह स्वंय से परिचित होने का सुवसर देती है। जिसे दूसरे शब्दों में, हम इसे आत्मबोध कहते हैं। हमारे जीवन के बोध, अनुभव, अध्यात्म और विशेष अनुभूतियों को नृत्य के जरिए वाणी मिलती है।

क्या शास्त्रीय नृत्य आत्मबोध की एक सतत् यात्रा है?

पूर्वा धनाश्री-दरअसल, मेरा अनुभव है कि हम नृत्य के जरिए हर पल अपना आत्मविश्लेषण करते हैं। नृत्य सीखते हुए या नृत्य करते हुए, हम अपनी ही संवेदनाओं, भावनाओं, चेतना और रचनात्मकता को एक नया आयाम दे रहे होते हैं। वास्तव में, शास्त्रीय नृत्य के जरिए अपने भीतर के जुनून, संघर्ष, दर्द, प्रेम, भक्ति की कथा का दैहिक वाचन कलाकार करते हैं।

शास्त्रीय नृत्य हमारी अमूर्त कलात्मक धरोहर है। मैंने भरतनाट्यम और विलासिनी नाट्यम दोनों शैलियों के नृत्य को सीखा है। विलासिनी नाट्यम नृत्य सीखने के लिए मुझे दृढ़ विश्वास और मेहनत करने की जरूरत पड़ी। विलासिनी नाट्यम को सीखने के दौरान मुझमें काफी भावनात्मक बदलाव आए। इसे मैं महसूस करती हूं। इसने मेरी सोच और मेरे जीवन को एक नई दिशा़ दिया। वह दौर मेरे आत्मबोध का समय था। उसी की वजह से आज जो मैं हूं वह हूं।


शास्त्रीय नृत्य की विशुद्धता को कायम रखना क्या एक चुनौती है?

पूर्वा धनाश्री-दरअसल, शास्त्रीय संगीत या नृत्य में संपूर्ण विशुद्धता जैसी कोई चीज संभव है ही नहीं। प्रकृति में भी विभिन्न तत्व मौजूद हैं। पर सबका अस्तित्व आपसदारी से ही संभव है। यह एक सापेक्ष सत्य है। हम जब भी पूर्ण विशुद्धता की बात करते हैं, तो संभव है कि वह स्वयं अपनी उपस्थिति के साथ इम्प्योरिटी को स्वीकार करता है। शास्त्रीय नृत्य के संदर्भ में,  कलाकार, दर्शक, संरक्षक, समीक्षक सभी का समेकित दृष्टिकोण विशुद्धता को लेकर है। और विशुद्धता की यह परिभाषा समय के साथ बदलती रहती है। मैं समझती हूं कि कलाकार, दर्शक या समीक्षक सभी अपने समय के अनुरूप कला को देखते और परखते हैं। यह सब भी व्यक्ति विशेष की नजरिए, अंतःकरण, कला के प्रति आस्था-विश्वास पर भी निर्भर करता है कि वह अपनी समझदारी और अंर्तयात्रा का विशद विवेचन के जरिए विशुद्धता नहीं वरन् ‘सत्व‘ को अपनी कला में अभिव्यक्त करते हैं। वास्तव में, नृत्य की ‘आत्मा‘ अथवा ‘सत्व‘ को कोई गुरू किसी शिष्य को न ही सीखा सकता है और न उस पर थोप सकता है। यह तो कोई भी कलाकार सिर्फ समर्पण और आस्था के जरिए अपनी कला में अभिव्यक्त करता है।

वैसे भी कलाकार एकांत में साधना जरूर करते हैं। लेकिन, वह शून्य में नहीं रहते। वह भी समाज के ही अंग हैं। मैं जहां तक समझ पाती हूं, कला की विशुद्धता को कायम रखने की जिम्मेदारी गुरूओं के महती कंधों पर है। वह अपने शिष्य-शिष्याओं को नृत्य शिल्प से परिचित करवाते हैं। गुरूओं को यह अंदाज होता है कि उनके शिष्य-शिष्याओं की ग्रहणशक्ति कितनी और कैसी है। उनकी क्षमता के अनुरूप ही आत्म विश्लेषण के लिए वह प्रेरित कर सकते हैं। ताकि, नृत्य सीखने वाले न सिर्फ नृत्य के तकनीकी पक्ष से अवगत हों, बल्कि कला की विशुद्ध गहराई और उसकी आत्मा को भी तलाश कर सकें।

विलासिनी नाट्यम नृत्य शैली पर कुछ प्रकाश डालें?

पूर्वा धनाश्री-विलासिनी नाट्यम देवदासी परंपरा की नृत्य शैली है। इसे देवदासी मंदिर की सेवा में प्रस्तुत करती थीं। मेरी गुरू ने देवदासी गुरू मदुला लक्ष्मीनारायण से सीखा। गुरूजी बताती हैं कि उनकी गुरू मदुलाजी ने उन्हें हाथ पकड़कर नृत्य नहीं सिखाया। सच तो यह है कि गुरू मदुलाजी नहीं चाहती थीं कि उनकी शिष्या ‘क्लोन‘ बनें। क्योंकि, दो नृत्यांगना समरूप नृत्य नहीं कर सकतीं। यहां तक कि दो देवदासी भी एक जैसा नृत्य नहीं कर सकती।

आज के समय में तो नृत्य सीखना, देखना और प्रस्तुत करना आसान हो गया हैं। आज के समय की मांग है कि सभी कलाकार एकजुट होकर नृत्य परंपराओं का संरक्षण और संवर्द्धन करें। हम सभी कलाकार एक-दूसरे के प्रयास की सराहना करें। एक साथ मिलकर काम करें। इससे न सिर्फ कला की गरिमा को पुर्नस्थापित किया जा सकेगा, बल्कि कलाकारों का उत्साहवर्द्धन भी होगा।   

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