गालिब के बहाने-प्रतिभा सिंह, कथक नृत्यांगना
कथक नृत्यांगना प्रतिभा सिंह पटना में जन्मी और पली-बढी हैं। उन्हें कला की समझ अपने घर में ही मिली। शुरू में उन्होंने पटना में कथक नृत्य सीखना शुरू किया। बाद में, उन्होंने गुरू बिरजू महाराज और गुरू जयकिशन महाराज से कथक नृत्य सीखा है। कला मंडली रंगमंडली की निर्देशक प्रतिभा सिंह को साहित्य कला परिषद सम्मान और विष्णु प्रभाकर कला सम्मान से सम्मानित हैं। उन्हें संस्कृति मंत्रालय की ओर से जूनियर फेलोशिप और अमूर्त धरोहर फेलोशिप भी मिल चुके हैं। वह निरंतर अपने सफर को जारी रखीं हुईं है। वह एक ओर कथक नृत्य आम बच्चों के साथ किन्नरों को नृत्य सीखाती हैं। साथ ही, वह रंगमंच के लिए उत्साहित होकर काम कर रही हैं। वह लोक कलाओं को रंगमंच से जिस तरह जोड़ती हैं, उससे यह सहज भान होता है कि उनकी दृष्टि कहीं न कहीं रंगमंच के बादशाह हबीब तनवीर से प्रभावित हैं। इस बार प्रतिभा सिंह से बातचीत के अंश प्रस्तुत हैं-शशिप्रभा तिवारी
आप अपने गुरूओं को किस नजरिए से देखती हैं,?
प्रतिभा सिंह-गुरू-शिष्य परंपरा में गुरू शिष्य को गढ़ते हैं। वह जीवन की हर सूक्ष्मता से अवगत कराते हैं। बाकी तो शिष्य की मानसिक क्षमता पर निर्भर करता है कि वह आगे का अपना सफर किस तरह से तय करता है। वैसे कला तो गुरू शिष्य और परिवार परंपरा में एक दूसरे के साथ ही फलता-फूलता है। जिस परिवार में गुरू के शिष्य को महत्व दिया जाता है, वहां कला समृद्ध होती है। खून के रिश्तों और परिवार परंपरा में तो कलाएं विकसित होती हैं। सुरक्षित रहती ही है। दोनों ही एक शरीर के अंग-प्रत्यंग की तरह ही हैं। कलाकार अपनी साधना से पूर्वजों की थाती को सींचता है। तभी कला प्रवाहमान होती है। और उस कला की सरिता में हर पीढ़ी रसपान और स्नान कर पाती है।
आप दिल्ली कब आईं?
प्रतिभा सिंह-नब्बे के दशक में राजधानी दिल्ली की ओर अपना रूख किया। कथक केंद्र, दिल्ली में कथक की तालीम ले रही थीं। साथ ही, मंडी हाउस की हर सांस्कृतिक हलचल का भी हिस्सा बनतीं थीं। जहां एक ओर उनकी सुबह से दोपहर तक का समय कथक केंद्र में बीतता तो दूसरी ओर उनकी शामें कमानी, एनएसडी या श्रीराम भारती सेंटर में नाटक देखते या संगीत या नृत्य का कार्यक्रम देखने में बीतता।
आपके घर में सांस्कृतिक माहौल था, इस संदर्भ में कुछ बताएं?
प्रतिभा सिंह-पिताजी उमेश प्रसाद सिंह ‘कला संगम‘ समूह से जुड़े हुए थे। वह रंगमंच के प्रसिद्ध कलाकार थे। उन्होंने उस्ताद अहमद जान थिरकवा से तबला वादन भी सीखा था। पिताजी ने ‘हे गंगा मईया तोहे पियरी चढइबो‘ जैसे भोजपुरी फिल्म में काम भी किया था। प्रतिभा के पिता रंगमंच से जुड़े रहे हैं। सो उनके घर में जोकू महाराज, गुदई महाराज, किशन महाराज, कुमार बोस का आना-जाना लगा रहता था। पटना में कार्यक्रम में भाग लेने जो कलाकार आते थे, वह उनके घर पर ही ठहरते थे। इस संदर्भ में प्रतिभा बताती हैं कि एक बार गुदई महाराज घर पर ठहरे हुए थे। उन्होंने बैठक में तबले और तबले वादन पर चर्चा शुरू कर दिया। मैं भी वहीं बैठी थी, उनके बताए कई तिहाई मुझे याद हो गए। उन्होंने मुझे कुछ नोट भी करवाया था। अक्सर, मधुकर आनंद, जितेंद्र महाराज, गीतांजलि लाल, पंडित बिरजू महाराज के नृत्य को देखने का अवसर मिलता था। मैं पहली बार, जब महाराजजी का मयूर की गत देखी तो दंग रह गई। उस समय मैंने तय किया कि महाराजजी से कथक नृत्य सीखना ही सीखना हैै।
पंडित बिरजू महाराज के सान्निध्य का प्रभाव आप पर है। इसे आप कैसे महसूस करती हैं?
प्रतिभा सिंह-बतौर गुरू महाराजजी के सान्निध्य में रहकर सीखना, अपनी जिंदगी को संवारने की तरह था। लेकिन, गुरू जयकिशन महाराज से कथक की हर बारीकी को सीखने का अवसर मिला। क्योंकि जयकिशन महाराज जिन्हें हम लोग प्यार से चीकू भईया कहते हैं, उनकी उदारता गजब की है। महाराजजी कार्यक्रम के सिलसिले में ज्यादा व्यस्त रहते थे। इसलिए, हमलोगों का ज्यादा समय चीकू भईया के साथ बीतता। उनसे कोई तिहाई या टुकड़े के बारे में चर्चा करना हम लोगों के लिए आसान होता था। वैसे महाराजजी से झप ताल में पिराए गए, एक नगमे को सीखा था। वह कभी भूलता नहीं है। पिछले वर्ष कुंभ के दौरान नृत्य समारोह में नृत्य रचना शिव शक्ति पेश किया। वहां लोगों ने फरमाईश किया कि अब होली पर एक नृत्य पेश किया जाए। मैं लाइव म्यूजिक पर नृत्य कर रही थी। गायक ने होली की रचना ‘यशोदा के लाल खेले होली‘ पर गाया और मैंने भाव पेश किया।
परंपराएं हमारी पहचान हैं। क्या आप ऐसा मानती हैं?
प्रतिभा सिंह-परंपराएं चलती हैं। सौ साल तक कोई भी विधा या नृत्य तकनीक एक पीढ़ी-दर-पीढ़ी जारी रहता है, वही तो परंपरा बन जाता है। भरतमुनि ने भी कभी नाट्यशास्त्र लिखा गया है। धीरे-धीरे यह परंपरा का रूप बन गया। शैली, क्राफ्ट, डिजाइन के जरिए मंच को रंगमंच बनाया। नृत्य एक ऐसा माध्यम है, जो जोड़ देता है कि रंगमंच को नाटक, कथक, वाचिक नहीं होती है। हम कथक में आंतरिक भाव तो नृत्य में दिखा देते हैं। रंगमंच पर देखती हूं। कला जगत में साहित्य का खास महत्व है। अगर, मैं कबीर को पढ़ती हूं। उनकी रचना पढ़ने के साथ-साथ पंडित कुमार गंधर्व, पंडित मधुप मुद्गल, विदुषी शुभा मुद्गल, प्रहलाद टिपाणिया आदि का गायन सुनती हूं। इसके बाद, कहानी को अपनी परिकल्पना में आकार देती हूं। फिर, अपने साथी कलाकारों से चर्चा करती हूं। फिर, नाटक की पृष्ठभूमि, कथा, गीत, संवाद सबको पिरोती हूं।
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