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Tuesday, April 10, 2018

नेह की डोर

केशव!
जानती थी
इस जीवन में
सब कुछ नश्वर था
फिर, मन कहाँ माना!
तुमको अर्पित कर आई
तुम से मन का कहती आई
दुःख था या सुख
तुमसे सब कुछ बांटा.
तुम सुनते थे
मन हल्का हो जाता था
लेकिन, केशव!
दुनिया रोज सिखाती है
नए जोड़-तोड़
मैं सीख पाई
वह किस्सा-कहानी
इस लिए
राधा अकेली रह जाती है
पनघट पर खड़ी!
सिर्फ, तुम्हारी राह देखती है
कभी तो गुजरोगे इधर से
तब, फिर से अपनी
तुमसे कहेंगे!
केवल, विनती है तुमसे
कि नेह की डोर थामे रहना
उसमें ही बसी हैं
मेरी सांसो की आवाजाही
केशव!

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