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Friday, December 6, 2024
shashiprabha: #कोणार्क उत्सव 2024 -शास्त्रीय नृत्य का महाकुंभ को...
#कोणार्क उत्सव 2024 -शास्त्रीय नृत्य का महाकुंभ कोणार्क उत्सव @शशिप्रभा तिवारी
#कोणार्क उत्सव 2024
शास्त्रीय नृत्य का महाकुंभ कोणार्क उत्सव
@शशिप्रभा तिवारी
भारतीय संगीत-नृत्य के लंबे और गहरे अंतर-संबंध हैं। उनको ऐतिहासिक या व्यवहारिक नजरिए से देखना एक सदी के इतिहास के अध्ययन करने जैसा है। हर कलाकार अपनी शिल्प के अघ्र्य से कला के समुद्र में अपना योगदान देता है। कुछ सौभाग्यशाली कलाकारों को समय याद रखता है और कुछ कलाकार काल के गर्त में समाकर धूमिल हो जाते है। कलाएं ही हमारा ऐसा स्वअर्जित लोकतंत्र हैं, जहां उनके प्रभाव में रहने पर दर्शक को अभय की सीख मिलती है। ऐसा ही अहसास हुआ, कोणार्क उत्सव 2024 की संध्याआंे में भारतीय शास्त्रीय नृत्य की प्रस्तुतियों को देखते हुए।
कोणार्क उत्सव का समापन दिवस यानी पांच दिसंबर को दीक्षा मंजरी और नाट्य वृक्ष के कलाकारों ने शिरकत किया। नाट्य वृक्ष ने भरतनाट्यम शैली में नृत्य संरचना प्रवाहति पेश किया। इसकी परिकल्पना गुरु गीता चंद्रन ने किया था। इस प्रस्तुति में मल्लारी, सखी स्वरम और रास के माध्यम से देवी पार्वती के भावों को विवेचित किया। समय स्थिर नहीं रहता है। यह परिवर्तनशील है। समय और स्थान के परिप्रेक्ष्य में भावों को विवेचित किया गया।
समारोह की अंतिम संध्या में ओडिसी नृत्य शैली में दीक्षा मंजरी के कलाकारों ने नृत्य पेश किया। इनका निर्देशन वरिष्ठ ओडिसी नृत्यांगना डोना गांगुली ने किया। प्रस्तुत नृत्य की परिकल्पना गुरु केलुचरण महापात्र और गुरु रतीकांत महापात्र की थी। संगीत रचना पंडित भुवनेश्वर मिश्र और देबाशीष सरकार की थी। दीक्षा मंजरी के कलाकारों ने सूर्य वंदना, मंगलाचरण-विष्णु वंदना, सावेरी पल्लवी और दुर्गा प्रस्तुत किया।
कोणार्क उत्सव की चैथी संध्या में कुचिपुडी नृत्यांगना दीपिका रेड्डी और शिष्याओं ने मोहक नृत्य पेश किया। दीपांजलि कलाकारों की पहली प्रस्तुति कुचिपुडी वंदना थी। इस प्रस्तुति में गणपति के साथ कुचिपुडी गांव के मुख्य देवता भगवान शिव का आह्वान किया गया। गणेश की वंदना ‘जय गणपति वंदे‘ में गणपति, कार्यसिद्धिप्रदायक, शुभम, जगतपिता, करूणाकर रूपों को दर्शाया गया। साथ ही, देवी के त्रिपुरसंुदरी, महालक्ष्मी, परमेश्वरी, जगजननी रूपों को विवेचित किया गया। उनकी दूसरी प्रस्तुति वाग्यकार भक्त रामदासु की रचना ‘थक्कुवेमि मनकु‘ पर आधारित थी। इसमें विष्णु के राम अवतार को प्राथमिकता से चित्रित किया गया। दशावतार को दर्शाते हुए, अंत में राम दरबार का निरूपण मर्मस्पर्शी था। वहीं अगली प्रस्तुति ‘मधुरम मधुरम कस्तूरी तिलकम‘ में कृष्ण की लीलाओं का चित्रण मोहक था। नंद यशोदा के द्वारा पूतना वध, नवनीत चोर, ब्रह्मण्ड दर्शन, कालिया मर्दन, विभिन्न दैत्यों के संहार आदि प्रसंगों को पेश किया गया। भाव भंगिमाओं, आंगिक अभिनय और संचारी भाव के साथ तरंगम की प्रस्तुति में पद संचालन की सामूहिक प्रस्तुति में संतुलन और आपसी तालमेल प्रभावकारी थी। अंतिम प्रस्तुति नृत्य निरंजम राग मालिका और ताल मालिका में निबद्ध थी। इसमें मधुर भक्ति को पेश किया गया।
चौथी संध्या की अंतिम प्रस्तुति रूद्राक्ष फाउंडेशन के कलाकारों की थी। उन्होंने गुरु बिचित्रनंद स्वाईं की नृत्य रचनाओं को पेश किया। इस प्रस्तुति की संगीत रचना गुरु रामहरि दास व गुरु सृजन चटर्जी ने की थी। ताल पक्ष की परिकल्पना गुरु धनेश्वर स्वाईं ने की थी। उनकी पहली पेशकश हंसकल्याणी पल्लवी थी। यह राग हंसकल्याणी और मŸा ताल में निबद्ध थी। उनकी दूसरी प्रस्तुति गौतम बुद्ध के जीवन चरित्र पर आधारित साक्य मुनि बुद्ध नृत्य रचना थी। इसमें बुद्ध के जन्म, जातक कथाएं, उनके उपदेश-आष्टांगिक मार्ग और धर्म चक्र प्रवर्तन प्रसंगों की व्याख्या की गई थी। कुलमिला कर यह प्रस्तुति अच्छी थी। लेकिन, इसे और बेहतर तरीके से प्रस्तुत करने की गंुजाईश काफी थी।
तीसरी संध्या में ओडिसी नृत्य का आगाज महाकवि जयदेव के गीतगोविंद पर आधारित नृत्य से हुआ। यह अष्टपदी श्रित कमल कुच मंडल थी। मधुर पदावली के मधुर संगीत पर श्री विष्णु के रूपों का विवेचन पेश किया गया। नर्तक अर्णव व साथी कलाकारों ने हरि के गरूड़वाहन, राम अवतार प्रसंग के सीता स्वयंवर, रावण वध, दशावतार का विवेचन किया। दूसरी प्रस्तुति हंसध्वनि पल्लवी थी। यह दोनों नृत्य और संगीत का संयोजन गुरु केलुचरण महापात्रा और संगीत पंडित भुवनेश्वर ने किया।
नृत्य संरचना कृष्ण कथा उनकी अगली प्रस्तुति थी। इसकी परिकल्पना अर्णम बदोपाध्याय और संगीत संरचना हिमांशु शेखर स्वाईं व सौम्या रंजन नायक थी। इसे रचना ‘कृष्ण तुभ्यं नमः‘, श्रीमद्भागवतगीता के श्लोक और श्रीकृष्णाष्टकम् के अंशों को पिरोया गया। कृष्ण के विश्वरूप, चर्तुभुज, गोवर्धनधारी, कालियामर्दन, राम से जुड़े अहिल्या प्रसंगों को नृत्य में चित्रित किया।
उत्सव की तीसरी संध्या की दूसरी पेशकश मोहिनीअट्टम नृत्य थी। मोहिनीअट्टम नृत्य डाॅ सुनंदा नायर ने गणपति तालम से आरंभ किया। गणपति तालम रचना ‘गजपति ओम गणपति गजेंद्र‘ पर आधारित था। इसमें गणेश के गजपति, गणपति, गणाधिपति, विनायक, सिद्धिविनायक, एकदंत, वक्रतुंड रूपों को दर्शाया गया। उनकी दूसरी प्रस्तुति कात्यायिनी देवी थी। जय जय महिषासुरमर्दिनी व ए गिरिनंदिनी रचनाओं के जरिए देवी दुर्गा के रूपों को चित्रित किया गया। मधुराष्टकम अंतिम प्रस्तुति थी। वल्लभाचार्य की रचना पर कृष्ण के मधुर रूपों को विवेचन प्रस्तुत किया। इन नृत्य संरचनाओं की परिकल्पना डाॅ सुनंदा नायर ने की थी।
उत्सव की दूसरी संध्या में दो दिसंबर 2024 को मणिपुरी नृत्य शैली की नृत्यांगना प्रीति पटेल और साथी कलाकारों ने नृत्य रचना नाचोम ली पेश किया। इस नृत्य रचना में मणिपुर की संस्कृति में फूलों के महत्व को दर्शाया गया। सुकुमार पुष्प तत्व-भाव, पवित्रता, सौंदर्य, सुगंध, रंग के संवाहक हैं। फूल देवताओं को प्रिय होते हैं। फूल प्रकृति की नैसर्गिक सुष्मा को वहन करते हैं। मणिुपरी संस्कृति में कमल के फूल भक्ति के प्रतीक हैं। इसे संकीर्तन उत्सव में राधा-कृष्ण को अर्पित किया जाता है। बैंगनी आॅर्किड के फूल प्रेम, सौंदर्य और शक्ति के प्रतीक है। इसे भगवान शिव के शौर्य और उत्सर्ग के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने के लिए चढ़ाया जाता है। सुनहरा आॅर्किड शुद्धता, धैर्य और दृढ़ता का प्रतीक है। इसे राजा और योद्धाओं को भेंट किया जाता है। श्वेत आॅर्किड आध्यात्मिक पूर्णता, शांति और सहिष्णुता का प्रतीक माना जाता है। इन्हीं भावों को इस नृत्य रचना में मणिपुरी नृत्यांगना प्रीति पटेल और साथी कलाकारों ने समाहित किया था। इसमें उन्हें एस करूणा देवी और इमोचा सिंह का विशेष सहयोग प्राप्त था।
नृत्य रचना नाचोम ली के आरंभ और अंत में बाल कलाकार गुनदेबी के गायन ने दर्शकों को विशेष रूप से आकर्षित किया। गुनदेबी ने प्रस्तुति के अंत में ‘मालबाइसु अइदिसु केंदानि‘ गीत को भावपूर्ण अंदाज में गाकर, विश्व को शांति और सद्भाव को संदेश दिया। इस प्रस्तुति के दौरान रचना ‘गजगामिनी चंद्रबदनी प्रेमतरंगिणी हंसिनी‘ व ‘अनंतशायी कोमला श्रीहरि‘ के माध्यम से श्रीकृष्ण और राधा के रास नृत्य का संक्षिप्त चित्रण भी प्रसंगानुकूल था। इसमें मणिपुरी नृत्य शैली के विभिन्न आयाम-पुंगचोलम, चाली, जागोई, अभिनय और हुयन लांगलाॅन को मोहक अंदाज में पेश किया। गोप रास और उद्धत अकान्बा के क्रम में उत्प्लावन व भ्रमरी का प्रयोग प्रभावकारी था।
वहीं दूसरी प्रस्तुति ओडिसी नृत्य में रंगों के महत्व और प्रभाव का बखान था। शिंजन नृत्यालय के कलाकारों ने वंदे मातरम् प्रस्तुत किया। यह कवि बंकिम चंद्र चटर्जी की अमर रचना वंदे मातरम् पर आधारित थी। इसमें तिरंगे के तीनों रंगों के माध्यम से देश की वीरता, अखंडता, विविधता, एकता और संपन्नता को प्रदर्शित किया गया। वहीं अंतिम प्रस्तुति सूर्य लावण्यम में सूर्य मंदिर की पृष्ठभूमि में सूर्य के विविध रंगों और उसके प्रभाव को निरूपित किया गया। यह संस्कृत विद्वान नित्यानंद मिश्रा की रचना पर आधारित था। उदयमान सूर्य का गुलाबी रंग और अस्ताचल का सूर्य जीवन का संदेश देता है। वहीं बारिश के दौरान सूर्य की किरणें इंद्रधनुष के सात रंगों में बिखर जाती हैं। इन सात रंगों का प्रकृति और मानवीय जीवन पर क्या और कैसा प्रभाव पड़ता यह नृत्य में पेश किया गया। नृत्य रचना सम्मोहक थी। शिंजन नृत्यालय के कलाकारों ने त्रिभंग और चैक का सुंदर प्रयोग नृत्य में किया। वहीं, तारा पल्लवी जो राग तारा और ताल मालिका में निबद्ध थी। इसमें विविध चाली भेद और गतियों से मोहक छवियां उकेरी गईं। यह प्रस्तुति जानदार रही। इन प्रस्तुतियों की संगीत हिमांशु स्वाईं, संगीता पंडा, गुरु धनेश्वर स्वाईं और लक्ष्मीकांत पालित ने तैयार किया था। नृत्य परिकल्पना आलोका कानूनगो की थी।
समारोह की पहली संध्या का उद्घाटन नव निर्वाचित मुख्यमंत्री मोहन चरण माझी और उपमुख्यमंत्री पार्वती परीडा ने किया। कोणार्क उत्सव का आरंभ उत्कल संगीत महाविद्यालय के कलाकारों की प्रस्तुति से हुआ। इस संगीत महाविद्यालय की स्थापना वर्ष 1964 में हुई थी। यहां ओडिसी नृत्य और संगीत की शिक्षा दी जाती है। यहां के विद्यार्थियों ने अपने मोहक नृत्य प्रस्तुति से उत्सव का शुभ आरंभ किया। उन्होंने उड़ीसा की पावन भूमि के मुख्य देवता भगवान जगन्नाथ जी हैं। उन्हीं की वंदना में पहली प्रस्तंुति श्री जगन्नाथ अष्टकम थी। यह आदि शंकराचार्य रचित श्री जगन्नाथ अष्टकम ‘कदाचित्कालिंदीतटविपिनसंगीतकरवो‘ पर आधारित थी। इसमें पुरी की प्रसिद्ध रथ यात्रा प्रसंग का चित्रण परंपरागत धुन में प्रस्तुति लासानी बन पड़ी। भगवान जगन्नाथ को दयासिंधु, जगतधारी, प्रमथपति, परब्रह्म के रूप में निरूपित करना मोहक था।
उत्कल संगीत महाविद्यालय के कलाकारों की दूसरी प्रस्तुति भावरंग थी। यह परंपरागत घन वाद्यों की धुनों के साथ श्रीकृष्णाष्टकम के अंश-‘भजे व्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं‘ पर आधारित थी। श्रीकृष्णाष्टकम भी आदिशंकराचार्य की रचना है। इस प्रस्तुति में ओडिसी संगीत और छंदों का मोहक प्रयोग नजर आया। छंद ‘नाचे गिरिधर नागर‘ के माध्यम से कृष्ण और सखाओं की लीलाओं को दर्शाया गया। इसमें कंदुक क्रीडा और कलिया मर्दन प्रसंग का चित्रण प्रभावकारी थी।
उनकी अगली प्रस्तुति शक्ति थी। इसमें देवी दुर्गा के रौद्र रूपों को विशेषतौर पर निरूपित किया गया। इसमंे जगतपालिनी, घोरा, गौरी, दुर्गा, नीलसंुदरी आदि रूपों को दर्शाया गया। यह रचना ‘नमस्ते चंड मुंड विनाशिनी‘ व ‘नारायणी विष्णु पूज्या‘ पर आधारित थी। इन सभी प्रस्तुतियों का संगीत श्रीनिवास सत्पथी और गुरु बिजय कुमार जेना व बिजय कुमार बारिक ने निर्देशित किया। इस दल में धनेश्वर स्वाईं भी शामिल थे। नृत्य रचना गुरु लिंगराज प्रधान और गुरु पंकज कुमार प्रधान ने किया था।
पैतींसवे कोणार्क उत्सव की पहली संध्या की दूसरी कलाकार थीं-कथक नृत्य गुरु मालती श्याम और उनकी शिष्याएं। उन्होंने नृत्य रचना-नर्तन मंजरी पेश किया। इसकी शुरूआत में कृष्ण वंदना थी। यह रचना ‘दर्शन दीजै त्रिभुवन पाली‘ पर आधारित थी। दूसरी प्रस्तुति शुद्ध नृŸा थी। यह नौ मात्रा की ताल बसंत थी। इसमें कथक के तकनीकी पक्ष को पेश किया गया। साथ में पंडित बिरजू महाराज की कविŸा-‘जब कृष्ण ताल देत जमुना हिलोर लेत‘ को कथक में पिरोया गया। अगले अंश में नायिका के भावों को पेश किया गया। यह तीन ताल और तिश्र जाति में निबद्ध था। इसमें रचना ‘मनमोहना तोरी मुरलिया‘, ‘चंचल चतुर नार‘ और तराने के जरिए नायिका के भावों को उकेरा गया। कथक की तिहाइयां, चलन, गत और चक्कर का प्रयोग किया गया। अंत में जुगलबंदी की प्रस्तुति थी। इस प्रस्तुति के संगतकारों में शामिल थे, तबले पर योगेश गंगानी, पखावज पर महावीर गंगानी और गायन पर समीउल्लाह खां।
कोणार्क सूर्य मंदिर, चंद्रभाग समुद्र तट, रामचंडी मंदिर और हरे भरे सुष्मा के इस गोद में स्थित कोणार्क उत्सव स्थल। मुक्ताकाशी मंच के चारों ओर हरियाली, टिमटिमाते बिजली की लड़ियां और साथ में अल्पना से सजी भूमि एक कलात्मक परिदृश्य रचते हैं। इस वातावरण में रंग बिरंगे तोरण, मरदल और तबले जैसे वाद्ययंत्रों के सेल्फी प्वाइंट आमलोगों को आकर्षित करते हैं। फिर ऐसे माहौल में हर शाम विशिष्ट अतिथियों, देशी-विदेशी पर्यटकों और आम लोगों की उपस्थिति हजारों की संख्या में। ऐसे ही माहौल में सुरमई संध्या के समय शास्त्रीय नृत्य के कलाकार अपनी प्रस्तुतियों से रसमय संसार का सृजन करते हैं। इस माहौल में लोक कलाकारों द्वारा लोक वाद्यों की मंगल ध्वनि तीसरे प्रहर से ही गंुजायमान होने लगती है। ऐसा लगता है कि वह दर्शकों को समारोह स्थल पर आने के लिए आमंत्रित कर रहे हैं।
यह उत्सव एक दिसंबर से पांच दिसंबर तक कोणार्क के सूर्य मंदिर के पृष्ठभूमि में आयोजित था। समारोह का आयोजन ओडिसा पर्यटन विकास निगम और ओडिसा संगीत नाटक अकादमी के सहयोग से किया गया था। यह समारोह मुक्ताकाशी मंच पर संपन्न हुआ। समारोह के आयोजन में संगीत नाटक अकादमी की सचिव शकुंतला मलिक की आयोजनकर्ता के रूप में थी। वहीं, अकादमी के भावोग्राही साहू, भवानचरण पंडा, देव प्रसाद महापात्र आदि ने अपना योगदान दिया। उत्सव मंे उद्घोषणा के कार्य को डाॅ मृत्यंुजय महापात्र, शोभना मिश्रा और मानसी मिश्रा ने संपादित किया। पूरे उत्सव को संयोजन करने का दायित्व डाॅ संगीता गोस्वामी ने निभाया।
Friday, November 29, 2024
shashiprabha: #आज के कलाकार@ शशिप्रभा तिवारी -----बनारस घराने की...
#आज के कलाकार@ शशिप्रभा तिवारी -----बनारस घराने की कथक नृत्य की एक शाम
#आज के कलाकार@ शशिप्रभा तिवारी
बनारस घराने की कथक नृत्य की एक शाम
नटवरी कथक फाउंडेशन की ओर से रस रंग सांस्कृतिक संध्या का आयोजन किया गया। त्रिवेणी सभागार में आयोजित सांस्कृतिक संध्या में कथक नृत्यांगना अरूणा स्वामी ने बनारस घराने की नृत्य शैली में पेश किया। संतूर वादक डाॅ बिपुल कुमार ने वादन पेश किया। 24 नवंबर को संपन्न समारोह के साक्षी के तौर पर कथक नृत्यांगना नलिनी अस्थाना, लेखिका डाॅ चित्रा शर्मा, सितार वादक सईद जफर, शहनाई वादक लोकेश आनंद और अन्य कलाकार भी सभागार में मौजूद थे। कलाकारों को देखने-सुनने जब कलाकार वर्ग खुद उपस्थित होते हैं, तो सभा का माहौल और उत्साहवर्धक हो जाता है।
त्रिवेणी सभागार में आयोजित समारोह में कथक नृत्यांगना अरूणा स्वामी ने संतुलित और सुघड़ता से कथक नृत्य पेश किया। उनके नृत्य में स्थिरता और परिपक्वता दिखा। वह गुरु सुनयना हजारीलाल की शिष्या है। उन्होंने निशा झावेरी से भी कथक की बारीकियों को ग्रहण किया है। वह अपने गुरु के साथ मंच प्रस्तुति देने के अलावा, अमेरिका, हांगकांग और ताइवान में नृत्य प्रस्तुत कर चुकी हैं। वह इनदिनों गुरुग्राम में कथक की नटवरी शैली को युवा कलाकारों को अपनी संस्था के माध्यम से सिखा रही हैं।
पढंत पर उनकी गुरु सुनयना हजारीलाल मौजूद थे। गुरु की उपस्थिति से शिष्या का मनोबल ऊंचा होना स्वाभाविक है। सुनयना हजारीलाल खुद एक गुणी कलाकार हैं। उनके साथ तबले पर बाबर लतीफ, गायन पर सोहैब हसन और सितार पर रईस अहमद मौजूद थे। उन्होंने बीती शाम त्रिवेणी सभागार में गणेश वंदना से नृत्य आरंभ किया। नृŸा और भाव पक्ष को पेश किया। तराना भी उनके नृत्य का आकर्षण रहा।
रस रंग समारोह में कथक नृत्यांगना अरूणा ने कृष्ण वंदना पेश किया। यह श्रीकृष्णाष्टकम के अंश-‘भजे व्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं‘ पर आधारित थी। यह आदिशंकराचार्य की रचना है। इसमें यमुना और कृष्ण जन्म के प्रसंग को बहुत मधुरता के साथ दर्शाया। बारिश के अंदाज को हस्तकों और पद घात से निरूपित किया। नृŸा पक्ष में गुरु जानकी प्रसाद की शैली को अरूणा ने प्रभावी तरीके से पेश किया। उनके नृत्य ठहराव के साथ नैसर्गिकता है, जो कथक नृत्यांगनाओं में कम देखने को मिलता है। उन्होंने इस अंश में ‘ता थेई तत्‘ के बोल पर लयकारी पेश किया। विलंबित लय में त्रिपल्ली, टुकड़े, परमेलू आदि पेश किया। मिश्र जाति की लड़ी में पैर का जानदार काम दिखा। वहीं, द्रुत तीन ताल में चतुश्र जाति की तिहाइयों और रेले की पेशकश खास रही। उन्होंने भाव अभिनय के लिए होरी का चयन किया था। इसके बोल थे-‘मानो मानो श्यम नंदलाल जी‘। अरूणा ने हस्तकों, पैर के काम, गतों, पलटे, चक्कर का प्रयोग बहुत सधे अंदाज में किया। नायिका राधा और नायक कृष्ण के भावों को दर्शाते हुए, उनके मुख के भावों और नेत्रों के भावों में बहुत सरलता और सहजता दिखी। उन्होंने अपने नृत्य का समापन तराने पर आधारित नृत्य से किया। यह राग वृंदावनी सारंग में निबद्ध था।
युवा संतूर वादक डाॅ बिपुल कुमार राय ने समारोह में शिरकत है। डाॅ बिपुल ने संतूर वादन की शिक्षा सूफियाना घराने के संतूर वादक पद्मश्री पंडित भजन सोपोरी से प्राप्त की है। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से मास्टर्स, एमफिल एवं पीएचडी की उपाधि प्राप्त की है। वह आकाशवाणी के ए-ग्रेड के कलाकार हैं। वह भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद के प्रतिष्ठित श्रेणी में है। वह साहित्य कला परिषद, दिल्ली सरकार के सांस्कृतिक सलाहकार एवं केंद्रीय विद्यालय गवर्निंग बाॅडी के सदस्य के रूप में अपनी सेवा प्रदान करते रहे हैं। उन्होंने मिश्र, आॅस्ट्रिªया, स्वीटजरलैंड, जर्मनी, कतर, चीन, थाईलैंड, श्रीलंका आदि देशों में संतूर वादन की प्रस्तुतियंा दी हैं। वह तानसेन समारोह, आकाशवाणी संगीत सम्मेलन, कला प्रकाश, संगीत नाटक अकादमी समारोह, सप्तक, संगीत विहान आदि समारोहों में शिरकत कर चुके हैं। पिछले साल संपन्न जी-20 के आयोजन में भी विदेशी मेहमानों के समक्ष उन्हें अन्य कलाकारों के साथ संतूर वादन का सौभाग्य मिला।
संतूर वादक बिपुल राय ने मारवा थाट का राग मारवा बजाया। राग मारवा माधुर्य से परिपूर्ण राग है। सो वादक बिपुल ने राग की प्रकृति के अनुरूप आलाप में कोमल ऋषभ और तीव्र मध्यम स्वरों पर ठहराव रखते हुुए वादन किया। राग का विस्तार मध्य सप्तक में खिल उठा। उन्होंने मध्य और द्रुत लय की गतों को पेश करते हुए, जोड़-झाले को बजाया। अपने वादन के चरम पर ‘ना-धिंन्ना‘ को मोहक अंदाज में बजाया। उन्होंने अपने वादन का समापन राग पहाड़ी के धुन से किया। इसमें गढ़वाली लोकधुन की झलक मोहक अंदाज में पेश किया। उनके साथ तबले पर युवा तबला वादक बाबर लतिफ ने दिया। दोनों कलाकारों ने अच्छे तालमेल से वादन को सरस बना दिया।
Sunday, October 20, 2024
shashiprabha: #आज के कलाकार/अंतरराष्ट्रीय भारतीय नृत्य महोत्सव--...
#आज के कलाकार/अंतरराष्ट्रीय भारतीय नृत्य महोत्सव--महती आयोजन @ शशिप्रभा तिवारी
अंतरराष्ट्रीय भारतीय नृत्य महोत्सव--महती आयोजन @ शशिप्रभा तिवारी
राजधानी दिल्ली में पिछले सोलह अक्टूबर से धूम मची हुई है. यह मौका- अंतरराष्ट्रीय भारतीय नृत्य महोत्सव है . इसमें देश के अलग अलग प्रान्तों से कलाकार आये हुए हैं. एक तरफ चर्चाओं का जोर है दूसरी तरफ कमानी सभागार में हर शाम कलाकर नृत्य पेश कर रहे है. वहीँ लोक कलाकार अपनी लोकसंगीत से समां बांध रहें हैं. संगीत नाटक अकादमी की लगभग सात दशक की यात्रा को फोटो के माध्यम से ललित कला अकादमी के कला दीर्घा में प्रदर्शित किया गया है .
अंतरराष्ट्रीय भारतीय नृत्य महोत्सव का आयोजन संगीत नाटक अकादमी की ओर से आयोजित किया गया। यह समारोह राजधानी दिल्ली में 16अक्तूबर को शुरू हुआ। एपीजे शिंदे सभागार में समारोह का उद्घाटन केंद्रीय संस्कृति मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत के उद्धबोधन से हुआ। उन्होंने कहा कि अतीत में भारत की संस्कृति और सनातन परंपरा को मिटाने के प्रयास किए गए लेकिन हमारी संस्कृति लगातार शाश्वत बनी हुई है। भारत गंगा और गीता तथा समृद्ध संस्कृति और लोक परंपराओं का देश है। शास्त्रीय और लोक नृत्य अविश्वसनीय है और संस्कृति को कई आयाम प्रदान करते हैं।
असम राज्यपाल लक्ष्मण प्रसाद आचार्य ने अपने संबोधन में 18अक्तूबर की संध्या को कमानी सभागार में कहा कि हमारी पहचान हमारी सांस्कृतिक इतिहास है। इन्हें संजोकर रखना चाहिए। यह आयोजन ऐतिहासिक महत्व का है। इसके अंतर्गत वैश्विक सांस्कृतिक संवाद अतीत, वर्तमान और भविष्य के संदर्भ में हो रहा है।
अंतरराष्ट्रीय भारतीय नृत्य महोत्सव के दौरान सांस्कृतिक संध्या का आयोजन कमानी सभागार में किया गया। इसका आरंभ नृत्य नाटिका मीरा से हुआ। यह डॉ सोनल मानसिंह की परिकल्पना थी। भक्ति काल की कवयित्री मीरा के जीवन चरित्र को संक्षिप्त तौर पर पेश किया। नृत्यांगना सोनल मानसिंह ने मीरा बाई के पदों को गाते हुए, भावों को दर्शाया।
इसे प्रस्तुत करने के लिए मीरा बाई की रचनाओं का चयन किया गया था। इनमें शामिल रचनाएं थीं- म्हारी घूमर नखराली सा,मोरे तो गिरिधर गोपाल ,एरी मैं तो प्रेम दीवानी ,हरि तुम हरो जन की भीर, पग घुंघरू बांध मीरा नाची रे, मणे चाकर राखो जी आदि। इस प्रस्तुति में द्रौपदी, प्रहलाद, गजराज की कथा को दर्शाया गया। कृष्ण मथुरा से द्वारका चले गए थे। मीरा बाई भी वृंदावन से द्वारका चली जाती हैं। कुछ समय बाद चितौड़ के महाराणा के दूत मीरा से क्षमा मांगने जाते हैं। मीरा द्वारकाधीश मंदिर में अनुमति के लिए अंदर चली गईं। फिर नहीं लौटीं। इसे गीत -अतर माही अवता न जाता मारग के जरिए दिखाया गया। द्वारकाधीश ने अपने आप में समा लिया था।पहली संध्या की दूसरी पेशकश कथकली नृत्य प्रस्तुति थी। महोत्सव की द्वितीय प्रस्तुति केरल कलामंडलम की प्रस्तुति गीतोपदेशम थी।
महोत्सव की दूसरी संध्या 17अक्तूबर को ममता शंकर और साथी कलाकारों ने नृत्य रचना प्रकृति पेश किया। आधुनिक समकालीन नृत्य शैली में प्रकृति के विविध पक्षों को चित्रित किया। हिरण्यागर्भा धरती के अनंत क्षमता का प्रदर्शन प्रभावकारी था। दूसरी पेशकश कुचिपुड़ी नृत्य थी। कलाकार थीं -शांता रत्ती। नृत्यांगना शांता ने तरंगम पेश किया। यह महाराजा स्वाति तिरुनाल की रचना -नाच रही गोपी पर आधारित थी। यह राग धनाश्री और आदि ताल में निबद्ध था। नटुवंगम और मृदंगम के विभिन्न ताल आवर्तन पर मोहक अंग संचालन और पद संचालन पेश किया।
तीसरी प्रस्तुति इंडोनेशिया के कलाकारों की थी । तक्शु आर्ट के कलाकारों ने रामायण के आख्यान को पेश किया। यह संस्था 1990से रामायण और इंडोनेशिया के लोकजीवन को पेश करती रही है। तक्शु आर्ट के कलाकारों ने सीता हरण, जटायु वध, राम रावण युद्ध के प्रसंग का निरुपण किया।
महोत्सव की तीसरी संध्या 18 अक्तूबर में किर्गिस्तान के जिल्दी समूह के कलाकारों ने लोकनृत्य पेश किया। उनकी प्रस्तुति में भारतीय कलाकारों के साथ संयुक्त रूप से भाग लिया। अगली प्रस्तुति मोहिनीअट्टम नृत्य थी। इसे सुनंदा नायर ने पेश किया। उन्होंने राम और शबरी के संवाद को नृत्य में पिरोया। यह रचना -चक्रवाक शबरी पात्र राग मालिका और ताल मालिका पर आधारित थी। उन्होंने सुंदर अभिनय पेश किया। महारास को मणिपुर नृत्यांगनाओं ने पेश किया। इसे जेएनएमडीए के कलाकारों ने पेश किया।

अंतरराष्ट्रीय भारतीय नृत्य महोत्सव की चौथी संध्या19अक्तूबर में कत्थक नृत्य पेश किया। इसे अर्चना जोगलेकर और उनकी शिष्य-शिष्याओं ने पेश किया। उनकी शिष्याओं ने अपने नृत्य का आरंभ नटराज स्तुति से किया। यह पूनम व्यास की रचना ‘जयदेव नटराज कीजिए कृपा आज‘ से किया। इसकी संगीत रचना श्रीधर फड़के ने की थी। इसमें गंगावतरण, समुद्र मंथन और त्रिपुरासुर वध के दृश्य को पेश किया गया। कथक की तिहाइयों, टुकड़े और भाव का सुंदर समावेश था। दूसरी प्रस्तुति गत निकास थी। इसमें सात्विक भाव, मुद्रा और गत भाव के जरिए रूपगर्विता व शंखिनी नायिका के भावों को दर्शाया गया। साथ ही शठ नायक के भाव को पेश किया गया। उनकी अगली पेशकश आसुय था। इसमें दो कलाकारों के अलग-अलग भावों को दर्शाया गया। एक कलाकार असंतुष्ट और इष्र्यालु है, वहीं दूसरा संतुष्ट, सरल है, वह अपनी कला को पूजा और जीवन मानता है। उनके आपसी भावों को शिष्य देखता है। यह रचना ‘सुर सजे संगिनी‘ पर आधारित थी। इसका संगीत शंकर महादेवन ने तैयार किया था। इसे सुर में गायक राहुल देशपांडे और मनीष काले ने पिरोया था।
अगली पेशकश लोकछंद कल्चरल यूनिट के कलाकारों की थी। मैत्रेयी पहाड़ी की नृत्य रचना सर्वेशम भारतम् कई भारतीय शास्त्रीय नृत्य शैलियों का संयोजन था। यह पंडित विनय चंद्र मुद्गल की रचना पर आधारित था। यह राग जयजयवंती में पिरोई गई थी। महोत्सव की चौथी थी संध्या का समापन कलाक्षेत्र के कलाकारों की प्रस्तुति से हुआ। भरतनाट्यम नृत्य शैली में कलाकारों ने सीता स्वयंवर प्रसंग को पेश किया। उनकी प्रस्तुति मोहक और प्रभावकारी थी। समारोह के दौरान देवभूमि लोक कला सोसाइटी, बनवारी लाल और साथी, वेदप्रकाश और साथी, प्रीतम सिंह और साथी कलाकारों ने उतराखंड, राजस्थान और हरियाणा की लोक संगीत को पेश किया.
Sunday, September 22, 2024
shashiprabha: #आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी @मेरा नृत्य -वाशिम राजा
#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी @मेरा नृत्य -वाशिम राजा
#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी
@मेरा नृत्य गुरु की कृपा है-वाशिम राजा
आज के युवाओं प्रतिभा की बहुमुखी है। वह सोशल मीडिया पर काफी एक्टिव नजर आते हैं। एक ओर कुछ युवा उसका सदुपयोग कर अपना करियर को बना रहे हैं, तो दूसरी ओर लाॅ के क्षेत्र में बहुत से युवा करियर बनाते हुए, नजर आ रहे हैं। इसके इतर एक ऐसा युवक वाशिम राजा हैं, जो इन दिनों शास्त्रीय नृत्य जगत में अपने नृत्य को लेकर बराबर चर्चा में बने हुए हैं।
पिछले दो वर्ष से वह लगातार विभिन्न मंचों पर कभी सामूहिक, कभी युगल तो कभी एकल नृत्य प्रस्तुत कर रहे हैं। कुचिपुडी नर्तक वाशिम राजा ने बचपन में नृत्य सीखना शुरू किया था। तब वह भरतनाट्यम और गौड़िया नृत्य सीखते थे। साथ ही लाॅ की पढ़ाई पूरी करके, बतौर लाॅ प्रोफेशनल प्रैक्टिस कर रहे थे। वर्ष 2018 में वह कुचिपुडी नृत्य गुरु वनश्री राव के संपर्क में आए और कुचिपुडी नृत्य सीखना शुरू किया। इसमें वह ऐसे रम गए कि उन्होंने लाॅ प्रैक्टिस छोड़ दिया और पूरी तरह प्रोफेशनल डांसर बनना तय कर लिया।
बहरहाल, हाल ही में उन्हें राजगोपाल बेस्ट मेल सोलोइस्ट अवार्ड की घोषणा की गई है। यह सम्मान उन्हें तीस नवंबर को आशीष मोहन खोकर के एटेंडेंट डांस एन्वल अवार्ड 2024 में प्रदान किया जाएगा। इस अवसर पर उनकी गुरु को रूक्मिणी देवी ओवर आॅल कंट्रीबुशन अवार्ड दिया जाएगा। यह समारोह बंग्लौर में आयोजित होना है। इस सम्मान के अलावा, उन्हें युवा नृत्य रत्न प्रभास सम्मान और भी कई अवार्ड मिले। पर सबसे बड़ी बात कि संगीत नाटक अकादमी की अध्यक्ष डाॅ संध्या पुरेचा ने उनके ऊर्जापूर्ण नृत्य देखकर इतनी प्रभावित हुईं कि उन्हें ‘महादेव-महेहश्वर‘ के नाम से पुकारती हैं। वाशिम पिछले कुछ महीने से लगातार दिल्ली, मुम्बई, बंगलौर, बड़ौदा, चेन्नै आदि शहरों में नृत्य पेश कर रहे हैं। अभी कुछ दिनों पूर्व वह तिजारा किले के महल-नीमराना में अपनी गुरु वनश्री राव के साथ नृत्य प्रस्तुत किया। इस समारोह में उन्होंने जगदोद्धारण, कालिया नर्तनम, देव देवम ओर तिल्लाना आदि नृत्य रचनाओं को पेश किया। वहां उन्हें देखने के लिए संस्कृति विद् और लेखक डाॅ आशीष खोकर भी पहुंचे। इसे वह अपनी बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं।
शास्त्रीय नृत्य कैसे सीखना शुरु किया?
कुचिपुडी नर्तक वाशिम राजा-मेरी मां को शास्त्रीय नृत्य में दिलचस्पी थी। इसलिए उन्होंने मुझे इस ओर प्रेरित किया। मुझे शास्त्रीय नृत्य के प्रति बचपन से ही आकर्षण था। मेरी मां ने मुझे प्रेरित किया। एक शाम मैं वनश्री राव मैडम का कुचिपुडी नृत्य देखा। उस शाम मैंने मन ही मन तय किया कि मैडम से कुचिपुडी नृत्य सीखना है। कार्यक्रम के बाद मैं उनसे मिला और उनसे अपने मन के बात को कहा कि मैं आपसे नृत्य सीखना चाहता हूं। शायद, वह शाम मेरे लिए एक नई शुरुआत थी।
मैडम ने अपने घर पर आकर मिलने को कहा। उनके नृत्य की क्वालिटी और सिखाने का अंदाज अनूठा है। वह अपने शिष्य-शिष्याओं को ज्यादा से ज्यादा देना चाहती हैं। अब यह हमारी क्षमता और विवेक है कि हम उनसे कितना ले पाते हैं। वह डांस के साथ-साथ जिस रचना पर हम नृत्य करते हैं, उसके एक-एक शब्द की व्याख्या, एक-एक भाव के संदर्भ को वह बताती हैं। वह हमें आर्थिक, मानसिक, भावनात्मक आदि सभी स्तरों पर सहयोग करने को तैयार रहती हैं।
अपने यादगार परफाॅर्मेंस के बारे में बताईए।
वाशिम राजा-पिछले वर्ष मैं गुरु जी के साथ कलाक्षेत्र गया था। वहां मुझे गुरु जी के साथ जगदोद्धारण करने का मौका मिला। गुरु वनश्री राव यशोदा और मैं कृष्ण की भूमिका में नृत्य किया। उस रोज भी मैं नृत्य करते हुए, बहुत भावुक हो गया था। यह सोचकर और भी दंग था कि ईश्वर की कैसी लीला है कि मुझे गुरु जी के साथ नृत्य करने का अवसर मिला।
इस वर्ष मार्च में, गणेश नाट्यालय में पुरुष नर्तकों का एक उत्सव हुआ था। इस उत्सव में मुझे एकल नृत्य करने का अवसर मिला। इस उत्सव में अनेक समीक्षकों ने मेरे नृत्य को बहुत सराहा। इसके बाद, मैंने तय किया कि अब सिर्फ नृत्य की साधना करूंगा। और मैंने लाॅ की नौकरी छोड़ने का फैसला किया। फिलहाल, पूरी तरह डांस में हूं। गुरु जी कहती हैं, एके साधे सब सधे, सब साधे सब जाए। इसलिए मैं अब आपलोगों के सामने उपस्थित हूं। बाकी सब ईश्वर की मर्जी और किस्मत जिधर ले जाए। हमें उसी ओर ही चल देना है।
Saturday, September 21, 2024
shashiprabha: #आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी. मेरे घराने में संगी...
#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी. मेरे घराने में संगीत की धारा@उस्ताद गुलाम सिराज, रामपुर सहसवान घराने के शास्त्रीय गायक
#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी
मेरे घराने में संगीत की धारा
@उस्ताद गुलाम सिराज, रामपुर सहसवान घराने के शास्त्रीय गायक
रामपुर सहसवान घराने के कई कलाकारों ने अपने संगीत से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को समृद्ध किया है। उस्ताद मुश्ताक हुसैन साहब ऐसे ही कलाकार थे। उनके गायकी के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उनकी स्मृति को गायक उस्ताद गुलाम सिराज ने संजोने का प्रयास किया है। उनकी यादों को बनाए रखने के उद्देश्य से पद्मभूषण उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां एसोसिएशन यानी पीयूएमएचकेए की स्थापना गायक गुलाम सिराज ने की है। हर साल हांगकांग और अन्य देशों में शास्त्रीय संगीत समारोह का आयोजन पिछले दस साल से कर रहे हैं। उनके आयोजनों में पंडित राजन साजन मिश्र, पंडित शिव कुमार शर्मा, उस्ताद गुलाम मुस्तफा खां, उस्ताद जाकिर हुसैन खां जैसे दिग्गज कलाकारों ने शिरकत किया है।
इस वर्ष भी जून में उन्होंने हांगकांग में समारोह का आयोजन किया। इसमें तबला वाद उस्ताद जाकिर हुसैन खां और सारंगी वादक साबिर खां ने समारोह में भाग लिया। साथ ही, उस्ताद गुलाम सिराज ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन पेश किया। उन्होंने इस कार्यक्रम में राग विहाग गाया था। इस अंक में उन्हीं से बातचीत के अंश-

अपनी संगीत यात्रा के संदर्भ मंे आप क्या कहना चाहेंगें?
उस्ताद गुलाम सिराज-हमारा परिवार खुशनसीब है। हमारे घर में पिछले कई पीढ़ियों से मां सरस्वती की कृपा बनी हुई है। लगभग तीन सौ साल से संगीत की परंपरा चली आ रही है। मेरे पिताजी उस्ताद गुलाम हुसैन खां और दादा जी उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां दोनों अच्छे गायक थे। दादा जी घराने के पहले गायक थे, जिन्हें पहला पद्मभूषण और संगीत नाटक अकादमी सम्मान दोनों मिला था। हम अपने बुजुर्गों के शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने हमें संगीत की विरासत में दी है। हम भी एक दफा खाना खाए बगैर रह सकते हैं, पर रियाज में नागा नहीं कर सकते।
संगीत को विदेश में रह कर कैसे अपनाया?
उस्ताद गुलाम सिराज-पिछले पच्चीस वर्षों से मैं मध्य एशिया के देशों में शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार से जुड़ा हुआ हूं। अपनी दादा जीं के नाम से संस्था पीयूएमएचकेए के माध्यम से रामपुरा सहसवान घराने की गायकी विदेशों में सीखा रहा हूं। मेरा मन है कि बहुत से युवा इस संगीत को सीखें, अपनाएं। लेकिन, मेरी एक सीमा है। वैसे मैं चाहता हूं कि भारत में भी जो सच में संगीत सीखना चाहते हैं, उन्हें संगीत से जोड़ूं।
क्या शास्त्रीय संगीत सीखना आसान है?
उस्ताद गुलाम सिराज-वास्तव में, संगीत को किसी को सीखाया नहीं जा सकता। यह कुछ तो घर के माहौल, परिवार के लोगों के व्यवहार और पूर्व जन्म की कृपा से संभव होता है। हमारी तो आंख खुलती ही थी, पिता जी के षड़ज साधना के स्वर और तानपुरे की धुन सुनकर। वह सुबह-सुबह जब गाते थे-धन धन सूरत कृष्ण मुरारी, इसे सुनकर हमारा दिन बन जाता था। मुझे लगता है कि उन्हीं सुरों के बीज हमारे कान में समा गए थे, सो हमें पता ही नहीें चला कि कब हम संगीत के इतने करीब आ गए।
आपने किस उम्र में गायन सीखना शुरू किया?
उस्ताद गुलाम सिराज-मेरी औपचारिक तालीम नौ साल की उम्र में शुरू हुई थी। मुझे याद आता है कि उस्ताद जफर हुसैन खां का प्रोग्राम था। मैं उनके साथ तानपुरे पर संगत कर रहा था। उन्होंने अपने साथ सुर लगाने को कहा, उसका पता नहीं मेरे मानस पर क्या असर हुआ कि मैंने तय कर लिया कि अब संगीत ही सीखना है और परफाॅर्मर बनना है। मैं खुद मंच प्रस्तुति देता हूं और युवा कलाकारों को भी प्रोत्साहित करता हूं।
खुदा का शुक्र है कि हमारे घर में अगली पीढ़ी भी संगीत को अपना रही है। मेरा बेटा और बेटी दोनों गाते हैं और म्यूजिक कंपोज भी करते हैं। दरअसल, घर के माहौल के कारण बच्चों की आधी तालीम तो सुनकर हो जाती है।
विदेश में भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रति लोगों का रूख कैसा है?
उस्ताद गुलाम सिराज-जब मैं बीस-पच्चीस साल पहले आया था, तब हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में बहुत कम लोग सुनने आते थे। धीरे-धीेरे लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है। अब तो हजार दो हजार लोग सुनने आते हैं। अब बीस बच्चे मुझसे संगीत सीखने आते हैं। वो भजन और गजल भी गाना चाहते हैं। कुछ बच्चे हारमोनियम, तबला, सितार भी सीखने के इच्छुक हैं। उन्हें संगीत की बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है। पर उनको समझाने की कोशिश करता हूं। उनके उच्चारण को ठीक करने की कोशिश करता हूं।
संगीत का प्रभाव कैसा महसूस करते हैं?
उस्ताद गुलाम सिराज-आज कल फिल्मों में भी मशीनों या कहूं कि आॅक्टोपैड जैसे वाद्यों से अलग-अलग वाद्यों की धुनें प्रयोग की जा रहीं हैं। सितार, वायलिन, सारंगी, पखावज जैसे वाद्यों का प्रयोग नहीं किया जाता है। इससे रूहानियत नहीं आती है। मशीनों की वह वजह से वह रस या भाव जगता ही नहीं कि इस संगीत से रूह ताजा हो जाए। नए गानें बहुत जल्दी हमलोग भूल जाते हैं, पर सत्तर या अस्सी की दशक के फिल्मों के गाने आज भी हमें याद है।
Friday, August 30, 2024
shashiprabha: #आज के कलाकार ---शशिप्रभा तिवारी--मेरे लिए नृत्य स...
#आज के कलाकार ---शशिप्रभा तिवारी--मेरे लिए नृत्य साधना है-@डाॅ समीक्षा शर्मा
#आज के कलाकार ---शशिप्रभा तिवारी
मेरे लिए नृत्य साधना है- @ डाॅ समीक्षा शर्मापिछले दिनों इंडिया इंरनेशनल सेंटर में माॅनसून उत्सव 23 अगस्त को आयोजित था। इस समारोह में कथक नृत्यांगना समीक्षा शर्मा ने एकल नृत्य प्रस्तुत किया। इसमें उन्होंने नवाचार करते हुए, स्वरचित नृत्य रचना कृष्ण अंग बहुरंग पेश किया। इस प्रस्तुति का आरंभ उन्होंने खाटू श्याम की वंदना से किया। इसमें उन्होंने खाटू श्याम के अवतरण और उनके जीवन व वंदन की कथा की व्याख्या पेश किया। यह वंदना रचना ‘खाटू श्या मजी अरज सुनो जी‘ पर आधारित थी। इस भजन की रचना समीक्षा शर्मा ने किया था। यह राग मिश्र मांड और दीपचंदी ताल में निबद्ध था। नृत्यांगना समीक्षा शर्मा ने प्रसंग को बहुत सरलता और सहजता से पेश किया। ‘शीश के दानी‘ व ‘भंवर में नैया‘ बोल को भाव और नाव की गत व सरपण गति से मोहक अंदाज में दर्शाया।
उनकी दूसरी प्रस्तुति थी-कृष्ण अंग बहुरंग। इस की परिकल्पना उन्होंने अपने गुरु पंडित राजेंद्र गंगानी के मार्गदर्शन में किया था। इसमें सांभरी के पशु पक्ष्यिों के प्रति प्रेम और प्राकृतिक प्रेम को विशेष् तौर पर समाहित किया गया था।
इसमें ऋषि संाभ्री के मछली प्रेम को दर्शाया। इसी के अगले अंश में विष्णु अवतार कृष्ण द्वारा कालिया मर्दन प्रसंग को दिखाया। इसके लिए सूरदास के पद तांडव गति मुंडन पर नाचत गिरिधारी का चयन किया गया था। इस प्रसंग को दर्शाने के क्रम में नृत्यांगना समीक्षा शर्मा ने मृग, गज, व्याघ्र, मीन, सर्प हस्तकों के जरिए दर्शाते हुए, गतियों को प्रभावकारी अंदाज में पेश किया। नृत्य में भाव पक्ष का प्रयोग संुदर था। इसके साथ तिहाइयों, टुकड़ो और गतों को बखूबी पेश किया। नृत्य का समापन कलिया मर्दन प्रसंग के बाद बावन चक्कर को प्रस्तुत किया।
नृत्यांगना समीक्षा ने बताया कि मैं बचपन से ही नृत्य करती हूं। नृत्य करने से मुझे आत्मसंतुष्टि मिलती है। मैं समय के साथ अपना सफर करते हुए, धीरे-धीरे आगे बढ़ती रही हूं। इसके बावजूद लगता है कि अभी तो बहुत कुछ करना बाकी है।
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर के इस आयोजन के दौरान अपनी प्रस्तुति के संदर्भ में उन्होंने बताया कि नृत्य के देवता भगवान शिव यानी नटराज को माना जाता है। हमलोग कृष्ण को नटनागर मानते हैं। वह भी कालिया सर्प के फन पर खड़े होकर नृत्य करते हैं। इस प्रसंग को कथक और अन्य नृत्य शैलियों के कलाकार कालिया मर्दन प्रसंग में पेश करते हैं। मैं कृष्ण से जुडे इस प्रसंग को थोड़े अलग तरीके से पेश करना चाहती थी। इसी क्रम में मुझे स्रांभि ऋषि प्रसंग का पता चला। फिर मैं मथुरा स्थित जैत गांव में गई। वहां मैंने लोककथा सुनी। यहां कालिया सर्प के मूर्ति को देखा। वहां लोगों ने बताया कि अंग्रेजों ने कालिया सर्प की मूर्ति पऱ गोलियां चलाई थी, जिससे उनके सिर से खून निकला था और ढेर सारे सर्प बिल में से निकल कर आ गए थे। इससे मुझे एक नया विचार मिला और मैंने इसे अपने प्रस्तुति में शामिल किया।
पंडित राजेंद्र गंगानी कथक नृत्यांगना समीक्षा शर्मा के गुरु हैं। उनके संदर्भ में वह कहती हैं कि गुरु जी की सबसे बड़ी खूबी उनकी निरंतरता है। जब भी बात करिए तब वह सबसे पहले पूछते हैं कि आपने रियाज किया या नहीं। वह बिना नागा किए रोज रियाज करते हैं। उनकी यह बात मुझे बहुत प्रेरित करता है।
बहरहाल, इस समारोह में कथक नृत्यांगना समीक्षा शर्मा के साथ संगत करने वाले कलाकार थे-तबले पर निशित गंगानी, गायक शोएब हसन, पखावज पर महावीर गंगानीा, सारंगी पर अयूब खान और पढंत पर प्रवीण प्रसाद।
Thursday, August 1, 2024
shashiprabha: # आज का कलाकार शशिप्रभा तिवारी ----कला का संसार बह...
# आज का कलाकार शशिप्रभा तिवारी ----कला का संसार बहुत तेजी से बदला है--@शांतनु चक्रवर्ती
# आज का कलाकार शशिप्रभा तिवारी
कला का संसार बहुत तेजी से बदला है--@शांतनु चक्रवर्ती
भरनाट्यम नर्तक शांतनु चक्रवर्ती ने डाॅ सोनल मानसिंह से भरतनाट्यम सीखा है। वह गुरु वी कृष्णमूर्ति से दो दशक से दो दशक से भरतनाट्यम की बारीकियों को सीख रह हैं। गौरतलब है कि मुरली मनोहर डांस उत्सव, नवरात्री उत्सव, महाशिवरात्री उत्सव, सावन महोत्सव, रास पूर्णिमा महोत्सव-2023, संगीत नाटक अकादमी के योग पर्व-2021 व नाट्य गति उत्सव-2022 आदि में शिरकत कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने संस्कृति मंत्रालय के आयोजनों-सुर ताल उत्सव में अपनी कला का प्रदर्शन किया। अरविंदो आश्रम के 150 वीं जन्म समारोह में शिरकत किया। वह भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद और दूरदर्शन की ओर से मान्यता मिली है।
मुझे लगता है कि हम सिर्फ शास्त्रीय नृत्य के कलाकार हैं। इसलिए सिर्फ डांस ही करेंगें। आज के समय में ये नहीं चल सकता है। एक अच्छे डांसर बनने के साथ, कलाकार को एक अच्छा स्पीकर या वक्ता भी बनना जरूरी है। इसका एक फायदा होता है कि आप की बात से आपके दर्शक प्रभावित हो सकें। मैं अपनी गुरु डाॅ सोनल मानसिंह जी से यह सब सीखा। वह बहुत प्रभावकारी तरीके से बोलती हैं। मैं अपनी मंच प्रस्तुति के समय भी यह कोशिश करता हूं कि दर्शकों को राग-ताल के अलावा, अपनी नृत्य रचना, उसकी परिकल्पना, उसकी कहानी भी लोगों को बताऊं ताकि लोगों को नृत्य समझ आए और वह दिलचस्पी के साथ नृत्य को देखें। वैसे भी भरतनाट्यम की ज्यादातर प्रस्तुति तमिल या संस्कृत में होती हैं।
भरतनाट्यम नर्तक शांतनु का मानना है कि शास्त्रीय कलाकार को शास्त्र का भी अच्छा जानकार होना चाहिए। इसके लिए उसे अध्ययन करना जरूरी है। वह कहते हैं कि हम कलाकारों को किताबें, साहित्य, शास्त्र संबंधी जरूर पढ़नी चाहिए। साथ ही, मूर्ति कला, चित्रकला, कविता आदि भी जानने और समझने की कोशिश करनी चाहिए। इससे हमारी प्रस्तुति और समृद्ध होती है। उत्तर भारत में रहता हूं। इसलिए तमिल के बजाय हिंदी या संस्कृत पर आधारित नृत्य वरणम के अंदाज में ज्यादा करता हूं। जैसे-तुलसीदास की रचना ‘श्रीराम चंद्र कपालु भजुमन‘ पर आधारित इस प्रस्तुति में अक्सर कलाकार अभिनय प्रस्तुत करते हैं। लेकिन, मैं दर्शकों को बांधने के लिए अभिनय के साथ जती पेश कर नृत्य को विस्तार देने का प्रयास करता हूं। मेरा प्रयास है कि भरतनाट्यम नृत्य को हिंदी भाषी दर्शक अच्छे से समझें, उसे देखें और उसे सराहें। इसी तरह मैंने संत दयानंद की रचना ‘भो शिव शंभो‘, स्वामी रविदास की रचना ‘कमल लोचन‘ की नृत्य रचनाएं भी की हैं। इसके लिए मैं अपने गुरु वी कृष्णमूर्ति जी का मार्गदर्शन आज भी लेता हूं। शास्त्रीय नृत्य जब मैं करता हूं, उसे करने से पहले मैं दर्शकों का ध्यान जरूर रखता हूं।
शांतनु आगे कहते हैं कि बीस साल पहले जब मैं शास्त्रीय नृत्य के क्षेत्र में प्रोफेशनल डांसर आया था, तब स्थितियां अलग थीं। दर्शक और उनकी अपेक्षाएं बदल गईं है। मैं देवताओं को केंद्र में रखकर कोरियोग्राफी करना चाहता हूं। पर मुझे एकल नृत्य करने का अवसर बहुत कम मिलता है। फिल्मों की तरह शास्त्रीय नृत्य इनदिनों सामूहिक नृत्य या कोरियोग्राफी ज्यादा हो गई है। उसमें भी नर्तकों की अपेक्षा नृत्यांगनाएं ज्यादा होनी चाहिए। मुझे याद आता है जब मैं गुरु जी सीख रहा था, उन रचनाओं को आज एक मैच्योर डंासर के नजरिए से पेश करना चाहता हूं, पर मेरे लिए आयोजकों के पास अवसर नहीं हैं। वैसे करना तो बहुत कुछ चाहता हूं। सब कुछ बहुत बदल गया है। यहां तक कि दक्षिण भारत में भी आयोजकों की मांग होती है कि आप परंपरागत शास्त्रीय भरतनाट्यम नृत्य के बजाय कुछ नई कोरियोग्राफी पेश करिए। इसके अलावा, आज ज्यादातर आयोजक मुफ्त में या कम पैसे में प्रोग्राम करने को कहते हैं। यह कैसा दबाव है? हम कलाकारों के समझ के परे की बात हो गई है!
मैं सोचता हूं कि डिजिटल युग में सब कुछ आपके मोबाइल पर उपलब्ध है। लोग छोटे-छोटे रील्स देखते हैं। उन्हें कुछ भी फास्ट देखना अच्छा लग रहा है। इसमें क्लासिकल डांस के रील्स भी खूब लोकप्र्रिय हो गए हैं। इन चीजों से हमारे दर्शकों का टेस्ट भी काफी बदल गया है। वह धैर्य से घंटे भर की प्रस्तुति को देखने शायद आॅडिटोरियम या मंदिरों में जाने से अब बचना चाहती है। समझ नहीं आता है कि अपने अच्छे समय का सदुपयोग अपने लिए उपयोग करने के बजाय लोग जाया क्यों कर रहे हैं। क्योंकि शास्त्रीय नृत्य तो आत्म आनंद के लिए है न कि मनोरंजन के लिए। आत्म आनंद पाने के लिए आपकी सभी इंद्रियों को सहज और मन का स्थिर होना जरूरी है। ताकि उस आनंद की अनुभूति में आप एक क्षण नहीं बल्कि घंटों और दिनों तक निमग्न रहें। भारतीय कलाओं के इस जादू को समझना बहुत जरूरी है।
अपनी नृत्य प्रस्तुतियों के संदर्भ में, नर्तक शांतनु बताते हैं कि डाॅ पद्मा सुब्रह्मण्यम की संस्था नृत्योदया है। जो हर साल महाशिवरात्री महोत्सव का आयोजन चेन्नैई और अन्य शहरों के शिव मंदिरों में करते हैं। इस समारोह में हमलोगों को नृत्य पेश करने का सुखद अनुभव प्राप्त हुआ। गुरु जी की नृत्य रचना नटराज को महाशिवरात्री महोत्सव में प्रस्तुत किया। उस दौरान हमें तंजावुर बृहदेश्वर मंदिर, कंुभकोणम मंदिर, तिरूवायवुर, थिरुपुरुपोंडि के शिव मंदिरों में महाशिवरात्री नृत्य समारोह में शिरकत करने का आनंददायक अवसर प्राप्त हुआ। ये मंदिर यूनेस्को की विश्व धरोहर स्थल हैं। वास्तव में, उससे जुड़कर हमें अलौकिक अनुभव प्राप्त हुआ।
Thursday, July 25, 2024
shashiprabha: #आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी---सीमाओं से परे है-क...
#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी---सीमाओं से परे है-कला @बाॅबी चक्रवर्ती, कुचिपुडी नृत्यांगना
#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी
सीमाओं से परे है-कला @बाॅबी चक्रवर्ती, कुचिपुडी नृत्यांगना
कुचिपुडी नृत्यांगना बाॅबी चक्रवर्ती मूलतः त्रिपुरा की निवासी हैं। उन्होंने शुरुआत में कथक नृत्य सीखा। फिर, उच्च शिक्षा के दौरान रवींद्रभारती विश्वविद्यालय में कुचिपुडी नृत्य सीखा। यहां उन्हें डाॅ माधुरी मजूमदार का सानिध्य मिला। इनदिनों वह देश की जानीमानी कुचिपुडी नृत्यांगना गुरु वनश्री राव से नृत्य सीख रही हैं। बाबी चक्रवर्ती उस्ताद बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार से सम्मानित हैं। वह कोलकाता दूरदर्शन की मान्यता प्राप्त कलाकार हैं।
बाॅबी चक्रवर्ती के अनुसार शास्त्रीय नृत्य सीखना आसान नहीं है। वह कहती हैं कि कुचिपुडी या कोई भी शास्त्रीय नृत्य सीखना आसान नहीं है। क्योंकि यह तपस्या का मार्ग है। इसमें आपको विशेष समझदारी के साथ पौराणिक साहित्य और भारतीय दर्शन का ज्ञान भी होना चाहिए ताकि आप अपने नृत्य में आध्यात्मिक स्तर को पा सकें और उसे आत्मसात कर सकें।
वह त्रिपुरा और कोलकाता में नृत्य प्रशिक्षण का कार्य निरंतर करती रहीं हैं। लेकिन खुद को भी निपुण बनाने के लिए अपनी गुरु के संपर्क में निरंतर रहती हैं। बहरहाल, बाॅबी बांग्लादेश के सिलहट शहर में भी कुचिपुडी नृत्य सिखाने जाती हैं। इस संदर्भ में वह बताती हैं कि लाॅक डाउन के दौरान मैं बहुत कठिन दौर से गुजर रही थी। व्यक्तिगत तौर पर परेशान थी। उन्हीं दिनों सिल्हट से एक कलाकार का फोन आया कि वह सात दिन का आॅन लाइन वर्कशाॅप करना चाहते हैं। इस तरह साल में दो या तीन वर्कशाॅप का सिलसिला शुरु हुआ। धीरे-धीरे वहां मेरे बीस शिष्य-शिष्याएं बन गए। उन्होंने इस समूह का नाम बी सी गौतम ग्रुप यानी बाॅबी चक्रवर्ती गौतम गु्रप रखा है। अब तो मैं वहां नियमित जाती हूं। वहां कला के प्रति लोगों का प्रेम और अनुराग देखकर मैं बहुत भावुक हो जाती हूं। वह मुझे भी प्रेरित करता है, कुछ नया करने और सीखने को।
पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित नृत्य समारोह में संगम नृत्य रचना पेश किया गया। इसमें ओडिसी नृत्यांगना रीना जाना, कुचिपुडी नृत्यांगना बाॅबी चक्रवर्ती और भरतनाट्यम नृत्यांगना रित्विका घोष ने शिरकत किया। इस समारोह के बाद, कुचिपुडी नृत्यांगना बाॅबी चक्रवर्ती से संक्षिप्त बातचीत हुई।
इंडिया हैबिटैट सेंटर के स्टेन सभागार में नृत्य रचना संगम का आरंभ कृष्ण वंदना से हुआ। यह राग श्री और आदि ताल में निबद्ध था। इसमें विष्णु के दशावतार का चित्रण किया गया। उनकी दूसरी प्रस्तुति संबंध था। यह राग वृंदावनी सारंग और एक ताली में निबद्ध था। इसमें सुर और ताल के माध्यम से वर्षा और घनश्याम को एकाकार होते रूप का निरूपण पेश किया गया। इसे तीनों नृत्यांगनाओं ने संयुक्त रूप से पेश किया। इस समारोह की अंतिम प्रस्तुति रास नृत्य थी। इसे बाॅबी, रीना और रित्विका ने एक साथ पेश किया। यह जयदेव की अष्टपदी ‘चंदन चर्चित नील कलेवर‘ पर आधारित थी। यह राग वंृदावनी सारंग और आदि ताल में निबद्ध था। कर्नाटक संगीत में निबद्ध रचना पर नृत्य की यह प्रस्तुति मनोरम थी।
अगले अंश में एकल नृत्य नृत्यांगनाओं ने पेश किया। इस में कुचिपुडी नृत्यांगना बाॅबी चक्रवर्ती ने तरंगम पेश किया। यह राग मोहना और आदि ताल में निबद्ध था। यह नारायण तीर्थ की रचना पर आधारित था। बाॅबी ने विभिन्न ताल आवर्तन में चारी भेद का विशद विवेचन प्रस्तुत किया। गुरु वेम्पति चिन्ना सत्यम की इस नृत्य रचना में दुरूह फुट वर्क का प्रयोग दिखता है। इसे बाॅबी ने बखूबी निभाया। जबकि, ओडिशी नृत्यांगना रीना जाना ने जयदेव की अष्टपदी ‘निंदति चंदनम‘ पर अभिनय पेश किया। यह राग मिश्र काफी और एक ताली में निबद्ध था। इस रचना में राधा का चित्रण विरहोत्कंठिता नायिका के तौर पर किया गया। इसके अलावा, भरतनाट्यम नृत्यांगना रित्विका घोष ने अभिसारिका नायिका के भावों को दर्शाया। उन्होंने महाराजा स्वाति तिरूनाल की लोकप्रिय रचना ‘चलिए कुंजन में‘ का चयन किया था। यह रचना राग वृंदावनी सारंग और आदि ताल में निबद्ध था।
Thursday, July 18, 2024
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#आज के कलाकार -शशिप्रभा तिवारी ---जिंदगी के मायने को कला ने बेहतर समझाया-@ सितार वादक पंडित उमाशंकर
#आज के कलाकार -शशिप्रभा तिवारी
जिंदगी के मायने को कला ने बेहतर समझाया-@ सितार वादक पंडित उमाशंकर
सितार वादक पंडित उमाशंकर सिंह सेनिया घराने के पंडित देबू चैधरी के वरिष्ठ शिष्य हैं। उन्हें आशिष चटर्जी से सीखने का मौका मिला। वह अपने गुरु की तरह ही सत्रह तारों के पर्दे वाले सितार को ही बजाते हैं। उन्हें बिहार सरकार की ओर से उस्ताद बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। वह एकल वादन के साथ-साथ कथक नृत्य प्रस्तुति और नाट्य प्रदर्शन के दौरान भी अपने वादन से संगीत को समृद्ध करते रहे हैं। अब तक करीब दो सौ नाट्य मंच प्रस्तुतियों के दौरान वादन कर चुके हैं। उमाशंकर अमेरिका, कनाडा, सिंगापुर, डेनमार्क, चीन, आॅस्टेªेलिया, ब्रिट्रªेन, जर्मनी, हांगकांग, ताइवान, चीन आदि देशों की यात्रा कर चुके हैं। वह भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद और आकाशवाणी से भी जुड़े हुए हैं।
सितार वादक पंडित उमा शंकर विविधा समारोह में शिरकत करेंगें। यह समारोह कला मंडली की ओर से त्रिवेणी सभागार में आयोजित है। इस समारोह में नाटककार और संगीत नाटक अकादमी के उपसचिव सुमन कुमार, कथक नृत्यांगना प्रतिभा सिंह तबला वादक पंडित रामकुमार मिश्र, छऊ नर्तक त्रिअन प्रतिबिंब, तालवाद्य कचहरी गगन सिंह बैस और बाल कलाकार लक्ष्या शंकर शिरकत करेंगे। समारोह की संयोजिका कला मंडली की निदेशक डाॅ स्मिता पराशर हैं। यह समारोह 19 जुलाई को आयोजित है।
विविधा के इस आयोजन के क्रम में ही सितार वादक उमाशंकर जी से संक्षिप्त बातचीत हुई। उसी का एक अंश प्रस्तुत है-
‘कला‘ कलाकार को संपूर्ण व्यक्तित्व प्रदान करती है। कलाकार स्वभाव से संवेदनशील और भावुक होते हंै। वह अपने जीवन को शत-प्रतिशत कला के प्रति समर्पित करता है। मुझे लगता है कि भारतीय कलाकार को बनाने वाले गुरू होते हैं। गुरू ही एक कलाकार को कुंभार की तरह गढ़ते हैं। इसलिए आज मैं जो कुछ भी हूं, वह सिर्फ अपने गुरू आशीष चटर्जी और पंडित देबू चैधरी के वजह से हूं।
हमारे यहां कलाएं जीवन की हिस्सा रही हैं। पहले कलाएं सिर्फ रोजी-रोटी कमाने का जरिया नहीं थीं। पर समय के साथ यह जीविकोपार्जन का साधन बना। यह सच है कि मेरे लिए भी यह आय का एक साधन है। मैं अपनी कला से सिर्फ, इतनी अपेक्षा है कि मेरी जरूरतें पूरी हो जाए।
मेरे जीवन में कला का साथ हर पल है। मेरा साज सितार जिसे मैं हर रोज बजाता हूं। मेरी पहचान-मेरा संगीत और सितार है। मैं इसके बिना अपने वजूद की कल्पना नहीं कर सकता हूं। कला के जरिए लोगांे के बीच नजर आता हूं। शायद, अगर दूसरे किसी क्षेत्र में रहता तो मेरा एक सीमित दायरा होता। जबकि, कला ने मुझे देश-विदेश के लोगों से जोड़ा है। मेरा मानना है कि संगीत के बारह स्वर-‘सरेगमपधनि‘ से सृष्टि जुड़ी है। जैसे-स-सागर, रे-रेगिस्तान, ग-गगन, प-पर्वत, ध-धरती और नि-नीर। इसमें मा-मां या जननी, जो मध्यम है, जिनसे हम उत्पन्न हुए हैं। संपूर्ण से जुड़कर ही हम पूर्ण होते हैं। हमारे लिए संगीत के स्वर और ब्रम्हाण्ड पूर्णता का अहसास है। इससे ही हमारा जीवन संपूर्ण आकार लेता है।
कला की लगन मुझे हमेशा खुद में डुबोए रखती है। ऐसे में, मन कहता है-‘बावरा मन‘ जो है हर वक्त किसी राग, किसी बंदिश, किसी ताल के बारे में सोचता रहता है। वही दुनिया सरस और मनोरम लगती है। क्योंकि कला मन-से-मन की दूरी मिटाती है। कुछ वर्ष पहले की बात है। मैं कार्यक्रम के सिलसिले में शंघाई गया था। वहां मुझे स्कूली बच्चों के बीच संगीत पेश करना था। मैंने चीनी भाषा के अभिवादन के कुछ शब्द और एक बालगीत की धुन को तैयार किया। उन बच्चों के बीच उसे पेश किया। कार्यक्रम के समापन बच्चों ने मुझे प्यार से घेर लिया और आयोजक दंग रह गए। यह कमाल है-हमारे हिंदुस्तानी संगीत का। यह कलाकार को बच्चों के बीच बच्चा, युवाओं के बीच युवा और बुजुर्गांे के बीच उनके अनुकूल बन जाने की प्रेरणा देता है। वास्तव में, कला ने मुझे जिंदगी से परिचित करवाया है।
Thursday, July 4, 2024
shashiprabha: #आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी; भारत की समृद्ध सं...
Thursday, June 27, 2024
#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी; भारत की समृद्ध संस्कृति प्रभावित रहा हू @विनोद केविन बचन
#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी
भारत की समृद्ध संस्कृति प्रभावित रहा हूं
@विनोद केविन बचन
ओडिसी नृत्य गुरु रंजना गौहर के पास इनदिनों विनोद केविन बचन ओडिशी नृत्य सीख रहे हैं। उनके पिता निजी कंपनी में नौकरी करते हैं और मां बिजनेस लेडी हैं। केविन वेम्पति चिन्ना सत्यम के एक शिष्य से कुचिपुडी नृत्य सीख रहे थे। उन्हीं दिनों उन्हें ओडिसी नृत्यंागना संगीता दाश का नृत्य नवरस देखा था। वह उन्हें बहुत अनूठा और अद्भुत लगा। इसलिए वह नृत्य सीखने भारत आ गए। उन्हें संगीत नाटक अकादमी की ओर से उस्ताद बिस्मिल्ला खां सम्मान से सम्मानित किया गया है।
आप भारत कैसे आए?
केविन वचन-शुरूआत में त्रिनिदाद में ही रहकर सीखना चाहता था। पर वहां जो टीचर थे वह लड़कों को ओडिसी सिखाने में दिलचस्पी नहीं लेेते थे, सो मैं कलाक्षेत्र के कुछ दोस्तों के साथ भारत आ गया। भुवनेश्वर में लगभग साढ़े तीन साल रहा। वहां मैं विŸाीय संकट और भावनात्मक अकेलेपन से जूझता रहा था। जापानी डांसर इको शिनोहारा भी मेरी तरह परेशान थी। संयोगवश, मैं दिल्ली आया और यहां मेरी मुलाकात रंजना जी से हुई। शुरू में ‘उत्सव‘ यानि गुरु जी की डांस एकेडमी में डांस करते हुए, थोड़ी झिझक होती थी। शर्म भी आती थी क्योंकि, तीन साल तक भुवनेश्वर में एक स्कूल से दूसरे स्कूल जाता रहा पर कुछ सीख नहीं पाया था। देर से ही सही मुझे समझ में आया है कि इच्छा और लक्ष्य जब एक हो जाते हैं तो कड़ी मेहनत से उसको प्राप्त किया जा सकता है।
अपनी वर्तमान गुरु रंजना गौहर जी से आपने क्या सीखा?
केविन वचन-मैं वहां सीखकर संतुष्ट नहीं हो पाया था। इसी दौरान वर्ष-2014 में गुरु रंजना गौहर से परिचय हुआ और मैं दिल्ली आ गया। उनसे ओडिशी नृत्य सीखने के लिए। पहले ही सप्ताह में ‘चित्रांगदा‘ के रिहर्सल के दौरान गुरु जी के डांस को करीब से देखने का मौका मिला। हमारी गुरु जी बताती हैं कि शास्त्रीय नृत्य या संगीत सीखने की जब आप शुरूआत करते हैं। तब आप कोई उद्देश्य लेकर नहीं सीखते। यह सोचकर सीखना शुरू नहीं करते कि मैं एक दिन बहुत नामी कलाकार बन जाऊंगी।
एक बार गुरु जी ने खुद बताया कि उनकी मां ने तो बस ऐसे ही डांस क्लास ज्वाइन करवा दिया था। वह कहती हैं कि वह अपने गुरू मयाधर राउत की परछाईं से भी सीखने की कोशिश करती थी। उनके पास जब क्लास के लिए जाती तो लगता उनसे ज्यादा-से-ज्यादा सीखूं। सीखने की भूख उनकी गजब की थी। शायद, उनके गुरु जी को यह बात समझ में आती होगी। यह मेरा अनुमान है। कितना सही होगा! पता नहीं। वह अपने क्लास के बाद, जब दूसरे बैच की क्लास चलती तो उसमें भी अपने गुरु जी की इजाजत लेकर बैठने की कोशिश करती ताकि कुछ और देख सकंे और गुरूजी का सानिध्य मिले। उनदिनों गुरूजी भारतीय कला केंद्र में सिखाते थे। वह दस बजे क्लास के लिए चली जाती थी। एक बजे तक क्लास होती। दोपहर में लंच होता। फिर, शाम को चार बजे दोबारा क्लास शुरू होती। उनका तब घर जो जंगपुरा में था, बार-बार आना-जाना संभव नहीं था। सो वह लंच लेकर जाती थी। गुरूजी से कहती कि आप जाईए मैं यहीं कमरे में प्रैक्टिस करूंगी। वह बाहर से ताला लगा कर चले जाते। वह अंदर से बंद करके और बिना घुंघरू के रियाज करती थी, जो गुरू जी सिखाए होते। उसे बड़े-से कमरे में शीशे के सामने खड़े होकर देख-देखकर रियाज करती। उनके अंदर कला को सीखने की भूख थी। वह उन दिनों करीब दस-बारह घंटे का रियाज करतीं थीं।
ओडिसी नृत्य में सीखना क्या आसान है?
केविन वचन-ओडिसी नृत्य बहुत सरल, भावनाओं से भरपूर, स्वाभाविक, इसमें अंगों की गतियां नजाकत से भरी हुई हैं। इससे कलाकार को अपने नृत्य में भावनाओं को अभिव्यक्त करना बहुत सरल और सहज लगता है। मुझे ओडिसी का तकनीकी और अभिनय दोनों ही पक्ष अच्छा लगता है। ओडिसी में पल्लवी में शुद्ध नृत्त पेश किया जाता है। इसमें विलंबित से मध्य और दु्रत लय में नृत्य एक पूरी यात्रा करते हैं। हमारे इस यात्रा में दर्शक भी शामिल होते हैं। अभिनय में साहित्य के साथ शुद्ध नृत्त का प्रयोग इसे एक नया विस्तार देता है।
एक डांसर को शारीरिक पीड़ा भी झेलना होता है। जब नृत्य सीखने की शुरूआत होती है, उस समय मांसपेशियों में दर्द उठना तो स्वाभाविक होता है। हाथ, पैर और पूरे शरीर को एक भंगिमा या गति में रखने से दर्द का अनुभव होता ही है। पर जब सीखनेवाला नृत्य का आनंद चख लेता है, तो वो शारीरिक पीड़ा जाती रहती है। अक्सर देखा जाता है कि कुछ लोग दो-तीन महीने डंास की प्रैक्टिस ही नहीं करतीं। फिर अचानक जब प्रोग्राम आता है तब आठ-दस घंटे का रीहर्सल करती हैं, जो उनके लिए घातक सिद्ध होता है। इसलिए मेरा मानना है कि प्रोफेशनल डंासर को नियम से रोजाना घंटे भर के रियाज के साथ-साथ योगासन और कसरत करना चाहिए। इससे बाॅडी की क्षमता बनी रहती है। क्योंकि एक डांसर का बाॅडी ही उसका इंस्टूमेंट है। वैसे भी डंासर और डांस एक ही सिक्के के पहलू हैं।
आपको भारत में क्या अपनापन मिला?
केविन वचन-मैं परफाॅर्मेंस करना शुरू किया। धीरे-धीरे मुझे लगा कि मुझे एकेडमिक लेवल पर भी कुछ करना चाहिए। मैं अपने देश त्रिनिदाद में बच्चों को भारतीय शास्त्रीय नृत्य सिखाना चाहता था, लेकिन वहां लोगों में बहुत दिलचस्पी नहीं दिखाई दी। मैं भारत की समृद्ध संस्कृति और नृत्य शैली से बहुत प्रभावित रहा हूं। मुझे गुरु और यहां के कलाकारों से बहुत अपनापन और प्यार मिला। मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं भारत का नहीं हूं। मेरे पेरेंट्स ने भी यहां रहने की अनुमति दे दिया। अब तो मुझे लगता है कि भारत ही मेरा अपना घर है।
आप नृत्य के अलावा क्या करना चाहते हैं?
केविन वचन-ंजब मैं दीदी के पास शुरू-शुरू में सीखना शुरू किया तो बहुत संकोच लगता था। मैं अपनी बातें उनसे शेयर नहीं कर पाता था। पर वह मुझे अपने साथ सारे दिन रखतीं थीं। उन्होंने बहुत प्यार से उड़िया गीत, अपने गुरु जी, ओडिसी नृत्य सबके बारे में बताया और समझाया। उन्होंने गुरु मायाधर की ओडिसी नृत्य शैली को अपनाया है। मैं भी उन्हीं की शैली में नृत्य करता हंू। धीरे-धीरे अब महसूस करता हूं कि हमारे ऊपर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। अपने गुरु की परंपरा को निभाने और उसे जारी रखने की जिम्मेदारी है। यह आसान नहीं है। यह सच है कि कलाकार अपनी कला के कारण अमर होते हैं। मैं अपने शोध कार्य के माध्यम से दादा गुरु मायाधर राउत जी के संघर्ष और उनके कार्यों को प्रकाश में लाना चाहता हूं। उनके नृत्य शैली की अद्भुत और अनूठे योगदान को हमें नहीं भूलना चाहिए। हालांकि, गुरु जी के अलावा, किरण सहगल और गीता महालिक उनकी परंपरा को निभा रहीं हैं। फिर भी एक युवा कलाकार के तौर पर इसे मैं अपना कर्तव्य समझता हूं। ईश्वर से प्रार्थना है कि मुझे शक्ति दें ताकि मैं इस कार्य को पूरा कर सकूं।
#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी --संगीत की अनवरत यात्रा@पंडित दुर्जय भौमिक
#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी
संगीत की अनवरत यात्रा
पंडित दुर्जय भौमिक के पहले गुरू बनारस घराने के पंडित दुलाल नट्टा थे। उसके बाद, उन्होंने पंडित वी मालवीय से वादन सीखा। दुर्जय भौमिक आकाशवाणी और दूरदर्शन के ए-ग्रेड के कलाकार हैं। वह आईसीसीआर के एम्पैन्ल्ड कलाकार हैं। उन्हें शंकर लाल संगीत समारोह, तानसेन संगीत समारोह, ताज महोत्सव, मैहर उत्सव जैसे समारोह में शिरकत करने का अवसर मिल चुका है। उन्हें वर्ष-2022 में न्यु एज तबला माइस्त्रो अवार्ड प्रदान किया गया। यह इंडो अफी्रकन चैम्बर आॅफ काॅमर्स ने दिया। इसके अलावा, उन्हें संगीत साधक सम्मान, संगीत सहोदर सम्मान, सप्तऋषि लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड आदि सम्मान मिल चुके हैं। इनदिनों वह तालयोगी पंडित सुरेश तलवरकर के सानिध्य में तबले की बारीकियो को सीख रहे हैं। साथ ही, सिखा भी रहे हैं।
पंडित सुरेश तलवरकर जी के सानिध्य में आप कैसे आए?
दुर्जय भौमिक-दरअसल, गुरु जी के सानिध्य में आने के बाद तबले के संदर्भ में नए ज्ञान की प्राप्ति हुई है। उनके अनुभवी नजर से ताल को देखना एक अलग ही नजरिया विकसित हो रहा है। हम कलाकार धीरे-धीरे सीखते हैं और आगे बढ़ते हैं। हमें अवसर और रास्ते का पहचानने की कोशिश करनी पड़ती है। गुरु जी के पास जब सीखते और समझते हैं, तब लगता है कि अभी तो हमारी यात्रा शुरू ही हुई है। आगे लंबा सफर तय करना शेष है। संगीत में एक मुकाम हासिल करने के बाद भी सफर जारी रहता है। और इसके लिए कलाकार को निरंतर प्रयास जारी रखना पड़ता है।
काॅलेज के दिनों में कोलकाता में अक्सर गुरु जी को सुनता था। उस समय मैं मन में सोचता था कि कभी न कभी गुरु जी से सीखना है। उन्हें दिल्ली में शंकरलाल संगीत समारोह में करीब से मिलने का मौका मिला। मैं बहुत हिम्मत जुटाकर उनसे निवेदन किया कि मैं आपसे सीखना चाहता हूं। तब उन्होंने कहा कि तुम मुम्बई आ जाओ। उन्होंने मार्च 1999 में बुलाया था। पर रेल का टिकट नहीं मिला। सो मैं पश्चिम एक्सप्रेस के चालू डिब्बे में बैठकर, उनके पास पहंुच गया। पहली बार उनके पास एक सप्ताह रहा। उस दौरान पहले उन्होंने मुझसे तबला बजवाया। उसके बाद मुझे समझाया और धीरे-धीरे सीखने का दौर फिर से शुरू हुआ।
तबला बजाना और उसके मर्म को समझकर बजाना क्या है?
दुर्जय भौमिक-मुझे याद आता है कि पहली बैठक में उन्होंने कायदा सीखाते हुए, कहा कि एक कायदा ठीक से बजा लोगे तो समझ लेना कि आगे कुछ और सीख पाओगे। सुबह नौ बजे से रात को आठ बजे तक सिर्फ तबला और संगीत की बातें, चर्चा और सीखने का सिलसिला चलता रहता था। एक-एक ताल को महीनों तक सीखना और रियाज करना। यह हमारा ध्येय होता था।
मुझे लगता है कि गुरु जी का सानिध्य मेरे जीवन की परम प्राप्ति है। उनसे अद्भुत ज्ञान दर्शन मिला है। तबला सिखाते हुए, बातचीत में संगीत का अनमोल दर्शन मिला है। दरअसल, इंसान को अंदर यानी मन से साफ होना चाहिए। तभी आपके बजाने में एक-एक शब्द शुद्धता से उतर पाता है। क्योंकि आपका संगीत में दिल-दिमाग का संयोग होता है। ऐसा संगीत ही आध्यात्मिक संगीत और रसमय संगीत कहा जाता है। तैयारी और रियाज से बजा लेना अलग बात है और ताल को समझकर, उसके भावों को अनुभूति कर बजाना अलग बात है। यह संगीत के मर्म को छूने जैसा ही है। बहुत नाजुक और बहुत कोमल! इसलिए नीचे की लय में बजाना मुश्किल होता है, वह बजाना तो उम्र की परिपक्वता और अनुभव से ही आता है। यह जन्मों की तपस्या से ही संभव है।
आपके प्रोफेशनल करियर की शुरूआत कैसे हुई?
दुर्जय भौमिक-मेरे करियर का सबसे पहला बड़ा मंच संकटमोचन संगीत समारोह था। इस समारोह में वर्ष 2002 में मुझे पंडित विश्वजीत राय जी के साथ बजाने का अवसर मिला। इसके बाद, पंजाब के पटियाला और कपूरथला के हैरिटेज फेस्टीवल में पंडित राजन एवं साजन मिश्र के साथ बजाया। फिर, बुद्धादित्य जी के साथ वर्ष 2005 में संगत करने का मौका मिला। यह तीन-चार बड़े आयोजनों में बजाकर मेरे अंदर आत्म विश्वास पैदा हुआ कि मैं बड़े-बड़े कलाकारों के साथ संगत कर सकता हूं।
वास्तव में, प्रतिष्ठित कलाकारों के साथ बजाते हुए, मुझे रोज कुछ नया सीखने का अवसर मिलता था और आज भी मिलता है। मुझे कमानी आॅडिटोरियम की वह शाम कभी नहीं भूलता, फेस्टीवल म्यूजिक फाॅर हारमनी आयोजित था। इस समारोह में मुझे पंडित राजन व साजन मिश्र के साथ संगत करने का अवसर मिला था। मैं इतने बड़े कार्यक्रम और कमानी के नाम से अंदर से थोड़ा घबराया हुआ था। लेकिन, पंडित जी ने बहुत प्यार से मुझसे बजवाया। यह उनकी महानता थी। साथ ही, मुझे पंडित भजन सोपोरी के साथ यूरोप की यात्रा करने का अवसर मिला। मैं वर्ष 2007 से लगातार तीन वर्षों तक उनके साथ जाता है। उस दौरान आॅस्ट्रिया में मेरी कुछ शिष्य भी बन गए थे। वो लोग तबले की ताल और आवाज से बहुत प्रभावित हुए। अपने ड्रम्स को छोड़कर वह तबला वादन मुझसे सीखने लगे। वह सिलसिला आज भी जारी है। उस दिन मुझे अहसास हुआ कि भारत की संस्कृति बहुत शक्तिशाली और प्रभावशाली है। सांस्कृतिक आदान-प्रदान से संस्कृति का विस्तार होता है।
आपने भविष्य को लेकर क्या सपना संजोया है?
दुर्जय भौमिक-मेरा सपना है कि मैं एक डिजिटल आॅडियो-विजुअल लाइब्रेरी बनाऊं। बड़े कलाकारों का डिजिटल कलेक्शन हो। इसमें कलाकार, उनके द्वारा गाया या बजाया गया राग, बंदिश, ताल, सबका विस्तार से वर्णन हो। शहर और महानगर में युवाओं के लिए सीखने की सुविधा है। लेकिन, गांव और कस्बों में प्रतिभावान बच्चों को अच्छे गुरु से सीखने का अवसर कम मिलता है या नहीं मिल पाता है। मेरी कोशिश होगी कि आने वाले समय में मैं उन बच्चों को बड़े कलाकारों से सीखने का अवसर मुहैया करवा सकूं। यह मेरा सपना है। बहुत से बच्चे कलाकार नहीं बन पाते क्योंकि करियर की अनिश्चितता रहती है। उनके माता-पिता को समझाने का प्रयास करूंगा और उन्हें वित्तीय सहायता छात्रवृत्तियां प्रदान करूं ताकि उन्हें प्रोत्साहन मिल सके।
Thursday, June 20, 2024
#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी;कथक नृत्य पूर्णतः साधना है @डाॅ पारूल पुरोहित वत्स,
#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी
कथक नृत्य पूर्णतः साधना है
-डाॅ पारूल पुरोहित वत्स, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित, डीन-स्कूल आॅफ परफाॅर्मिंग आर्ट्स
कथक से आप कैसे जुड़ी?
डाॅ पारूल-मैं मूलतः जोधपुर से हूं। बचपन से नृत्य सीखना शुरू कर दिया। मेरे पिता जी को मेरी शिक्षिका ने बताया कि आपकी बिटिया अभी बच्ची है। अभी छोटी है तो फिल्मी गानों पर नृत्य कर रही है। आपको अच्छा लग रहा है। थोड़ी बड़ी हो जाएगी और इन्हीं गानों पर नृत्य करेगी, तब आपको खुद में अच्छा नहीं लगेगा। इसलिए पारूल को अब शास्त्रीय नृत्य सिखाना ठीक रहेगा। इस तरह से हमारे शहर में गुरु खेमचंद प्रकाश जी से मेरी सीखने की शुरुआत हुई। वह पंडित संुदर प्रसाद जी के शिष्य थे। उनके मार्गदर्शन में मेरी तालीम शुरु हुई।
ईश्वर और गुरु की कृपा और माता-पिता के सहयोग से मैं धीरे-धीरे अपना सफर तया करती रही। मुझे सीसीआरटी और संगीत नाटक अकादमी स्काॅलरशिप मिला। राजस्थान में आयोजित होने वाले समारोह में निरंतर नृत्य करने का अवसर मिलता रहा। मेरी इन यात्राओं के दौरान पापा साथ होते थे।
कथक को बतौर करियर कैसे चुना?
डाॅ पारूल-आमतौर पर दसवीं तक तो सब कुछ सामान्य चलता रहा। लेकिन, बारहवीं में आने के बाद मैंने तय किया कि अब कला क्षेत्र में ही करियर बनाना है। इसी क्रम में मेरा चयन नृत्य ग्राम में हो गया और मैं एक नए सफर पर निकल पड़। दरअसल, उम्र के उस नाजुक दौर में मुझे खुद से उम्मीदें थीं और सीखने की लालसा थी। शायद, तभी मैं आगे बढ़ पाई। गुरु प्रतिमा बेदी और गुरु कुमुदिनी लाखिया के सानिध्य में मैं वाकई जान पाई कि कला क्या है? नृत्य क्या है? जीवन क्या है? भारतीय संस्कृति और दर्शन क्या है?
नृत्य ग्राम में जाकर मैं समझ पाई कि नृत्य साधना का मार्ग है। मैंने उसे उसी गंभीरता से साधने का प्रयास किया। यह सिर्फ तोड़े-टुकड़े सीखना भर नहीं है। खासतौर पर कथक आपके पूरे व्यक्तित्व को अनुशासन से भर देता है। वहीं मैं जान पाई कि नृत्य सीखने के साथ-साथ, नृत्य के बारे में बोलना और लिखना भी जरूरी है। श्रुति के आधार पर कलाओं की शिक्षा चलती रही है। लेकिन, आधुनिक समय में कथक के बारे में चर्चा, सोच-विचार और उसके सिद्धांत पर चिंतन-मनन के साथ लिखा जाने लगा।
अपने गुरुओं से क्या सीखा?
डाॅ पारूल-गौरी मां के साथ गुरु कुल में सुबह से शाम तक कला की ही बातें होती थीं। योग, अपने कमरे की सफाई, कथक का रियाज, रसोई की साफ-सफाई, सुबह-शाम आरती में भाग लेना। विदेश से आए कलाकारों को देखना और उनकी चीजों देखना-समझना लगातार चलता रहता था। डांस के साथ-साथ जीवन में हम और क्या-क्या कर सकते हैं। अपनी सोच को विकसित करने और अपने ही व्यक्तित्व के नए आयाम को तलाशने की दृष्टि उनके पास रहकर ही आया।
गौरी मां का मानना था कि जब आप मंच पर नृत्य करते हो तो आप अपने नृत्य को अपने ईष्ट देवता को समर्पित करते हुए पेश करो, न कि आॅडिटोरियम में बैठी आॅडियंस के लिए। जब आप ईश्वर को रिझाने के लिए नृत्य करते हैं, तो उसमें रस का समावेश स्वतः हो जाता है। ऐसे में रस का संचार पूरे वातावरण में हो जाता है। इससे दर्शक अछूता नहीं रहता।
नृत्य ग्राम में लगभग एक वर्ष रहने के बाद मैं अहमदाबाद आ गई। यहा कदंब में कुमु बेन के सानिध्य में बहुत तकनीकी बारीकियों को सीखा। उनसे साउंड, लाइट, काॅस्ट्यूम की एक-एक सूक्ष्मताओं को जानने-समझने का अवसर मिला। यह दृष्टि आई कि जीवन का लक्ष्य खुशी, शांति और मोक्ष है। कथक को साधना की तरह देखती रही हूं।
आप कथक नृत्य को क्यों खूबसूरत मानती हैं?
डाॅ पारूल-कथक का क्षेत्र वैसे भी व्यापक है। कथक साहित्य से जुड़ा हुआ है। लखनऊ, बनारस, जयपुर व रायगढ़ हर घराने की अपनी खूबसूरती है। हमारा नृत्य हमारे जीवन और वातावरण से जुड़ा हुआ है। कलाकार को कला के साथ अपनी संस्कृति, संस्कार, पर्यावरण, पारिस्थितिकी, राजनीति की समझ भी चाहिए। क्योंकि हम मयूर की गत या पनघट की गत में कहीं न कहीं अपनी प्रकृति की बात ही तो करते हैं। कथक या कोई भी नृत्य अंतः प्रेरणा से ही सीखा जा सकता है। कलाकार जबरदस्ती नहीं बनाया जा सकता है।