#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी
मेरे घराने में संगीत की धारा
@उस्ताद गुलाम सिराज, रामपुर सहसवान घराने के शास्त्रीय गायक
रामपुर सहसवान घराने के कई कलाकारों ने अपने संगीत से हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत को समृद्ध किया है। उस्ताद मुश्ताक हुसैन साहब ऐसे ही कलाकार थे। उनके गायकी के लिए उन्हें पद्मभूषण से सम्मानित किया गया। उनकी स्मृति को गायक उस्ताद गुलाम सिराज ने संजोने का प्रयास किया है। उनकी यादों को बनाए रखने के उद्देश्य से पद्मभूषण उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां एसोसिएशन यानी पीयूएमएचकेए की स्थापना गायक गुलाम सिराज ने की है। हर साल हांगकांग और अन्य देशों में शास्त्रीय संगीत समारोह का आयोजन पिछले दस साल से कर रहे हैं। उनके आयोजनों में पंडित राजन साजन मिश्र, पंडित शिव कुमार शर्मा, उस्ताद गुलाम मुस्तफा खां, उस्ताद जाकिर हुसैन खां जैसे दिग्गज कलाकारों ने शिरकत किया है।
इस वर्ष भी जून में उन्होंने हांगकांग में समारोह का आयोजन किया। इसमें तबला वाद उस्ताद जाकिर हुसैन खां और सारंगी वादक साबिर खां ने समारोह में भाग लिया। साथ ही, उस्ताद गुलाम सिराज ने हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन पेश किया। उन्होंने इस कार्यक्रम में राग विहाग गाया था। इस अंक में उन्हीं से बातचीत के अंश-
अपनी संगीत यात्रा के संदर्भ मंे आप क्या कहना चाहेंगें?
उस्ताद गुलाम सिराज-हमारा परिवार खुशनसीब है। हमारे घर में पिछले कई पीढ़ियों से मां सरस्वती की कृपा बनी हुई है। लगभग तीन सौ साल से संगीत की परंपरा चली आ रही है। मेरे पिताजी उस्ताद गुलाम हुसैन खां और दादा जी उस्ताद मुश्ताक हुसैन खां दोनों अच्छे गायक थे। दादा जी घराने के पहले गायक थे, जिन्हें पहला पद्मभूषण और संगीत नाटक अकादमी सम्मान दोनों मिला था। हम अपने बुजुर्गों के शुक्रगुजार हैं कि उन्होंने हमें संगीत की विरासत में दी है। हम भी एक दफा खाना खाए बगैर रह सकते हैं, पर रियाज में नागा नहीं कर सकते।
संगीत को विदेश में रह कर कैसे अपनाया?
उस्ताद गुलाम सिराज-पिछले पच्चीस वर्षों से मैं मध्य एशिया के देशों में शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार से जुड़ा हुआ हूं। अपनी दादा जीं के नाम से संस्था पीयूएमएचकेए के माध्यम से रामपुरा सहसवान घराने की गायकी विदेशों में सीखा रहा हूं। मेरा मन है कि बहुत से युवा इस संगीत को सीखें, अपनाएं। लेकिन, मेरी एक सीमा है। वैसे मैं चाहता हूं कि भारत में भी जो सच में संगीत सीखना चाहते हैं, उन्हें संगीत से जोड़ूं।
क्या शास्त्रीय संगीत सीखना आसान है?
उस्ताद गुलाम सिराज-वास्तव में, संगीत को किसी को सीखाया नहीं जा सकता। यह कुछ तो घर के माहौल, परिवार के लोगों के व्यवहार और पूर्व जन्म की कृपा से संभव होता है। हमारी तो आंख खुलती ही थी, पिता जी के षड़ज साधना के स्वर और तानपुरे की धुन सुनकर। वह सुबह-सुबह जब गाते थे-धन धन सूरत कृष्ण मुरारी, इसे सुनकर हमारा दिन बन जाता था। मुझे लगता है कि उन्हीं सुरों के बीज हमारे कान में समा गए थे, सो हमें पता ही नहीें चला कि कब हम संगीत के इतने करीब आ गए।
आपने किस उम्र में गायन सीखना शुरू किया?
उस्ताद गुलाम सिराज-मेरी औपचारिक तालीम नौ साल की उम्र में शुरू हुई थी। मुझे याद आता है कि उस्ताद जफर हुसैन खां का प्रोग्राम था। मैं उनके साथ तानपुरे पर संगत कर रहा था। उन्होंने अपने साथ सुर लगाने को कहा, उसका पता नहीं मेरे मानस पर क्या असर हुआ कि मैंने तय कर लिया कि अब संगीत ही सीखना है और परफाॅर्मर बनना है। मैं खुद मंच प्रस्तुति देता हूं और युवा कलाकारों को भी प्रोत्साहित करता हूं।
खुदा का शुक्र है कि हमारे घर में अगली पीढ़ी भी संगीत को अपना रही है। मेरा बेटा और बेटी दोनों गाते हैं और म्यूजिक कंपोज भी करते हैं। दरअसल, घर के माहौल के कारण बच्चों की आधी तालीम तो सुनकर हो जाती है।
विदेश में भारतीय शास्त्रीय संगीत के प्रति लोगों का रूख कैसा है?
उस्ताद गुलाम सिराज-जब मैं बीस-पच्चीस साल पहले आया था, तब हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में बहुत कम लोग सुनने आते थे। धीरे-धीेरे लोगों की दिलचस्पी बढ़ी है। अब तो हजार दो हजार लोग सुनने आते हैं। अब बीस बच्चे मुझसे संगीत सीखने आते हैं। वो भजन और गजल भी गाना चाहते हैं। कुछ बच्चे हारमोनियम, तबला, सितार भी सीखने के इच्छुक हैं। उन्हें संगीत की बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है। पर उनको समझाने की कोशिश करता हूं। उनके उच्चारण को ठीक करने की कोशिश करता हूं।
संगीत का प्रभाव कैसा महसूस करते हैं?
उस्ताद गुलाम सिराज-आज कल फिल्मों में भी मशीनों या कहूं कि आॅक्टोपैड जैसे वाद्यों से अलग-अलग वाद्यों की धुनें प्रयोग की जा रहीं हैं। सितार, वायलिन, सारंगी, पखावज जैसे वाद्यों का प्रयोग नहीं किया जाता है। इससे रूहानियत नहीं आती है। मशीनों की वह वजह से वह रस या भाव जगता ही नहीं कि इस संगीत से रूह ताजा हो जाए। नए गानें बहुत जल्दी हमलोग भूल जाते हैं, पर सत्तर या अस्सी की दशक के फिल्मों के गाने आज भी हमें याद है।
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