#आज के कलाकार-शशिप्रभा तिवारी
कथक नृत्य पूर्णतः साधना है
-डाॅ पारूल पुरोहित वत्स, राजस्थान संगीत नाटक अकादमी युवा पुरस्कार से सम्मानित, डीन-स्कूल आॅफ परफाॅर्मिंग आर्ट्स
कथक से आप कैसे जुड़ी?
डाॅ पारूल-मैं मूलतः जोधपुर से हूं। बचपन से नृत्य सीखना शुरू कर दिया। मेरे पिता जी को मेरी शिक्षिका ने बताया कि आपकी बिटिया अभी बच्ची है। अभी छोटी है तो फिल्मी गानों पर नृत्य कर रही है। आपको अच्छा लग रहा है। थोड़ी बड़ी हो जाएगी और इन्हीं गानों पर नृत्य करेगी, तब आपको खुद में अच्छा नहीं लगेगा। इसलिए पारूल को अब शास्त्रीय नृत्य सिखाना ठीक रहेगा। इस तरह से हमारे शहर में गुरु खेमचंद प्रकाश जी से मेरी सीखने की शुरुआत हुई। वह पंडित संुदर प्रसाद जी के शिष्य थे। उनके मार्गदर्शन में मेरी तालीम शुरु हुई।
ईश्वर और गुरु की कृपा और माता-पिता के सहयोग से मैं धीरे-धीरे अपना सफर तया करती रही। मुझे सीसीआरटी और संगीत नाटक अकादमी स्काॅलरशिप मिला। राजस्थान में आयोजित होने वाले समारोह में निरंतर नृत्य करने का अवसर मिलता रहा। मेरी इन यात्राओं के दौरान पापा साथ होते थे।
कथक को बतौर करियर कैसे चुना?
डाॅ पारूल-आमतौर पर दसवीं तक तो सब कुछ सामान्य चलता रहा। लेकिन, बारहवीं में आने के बाद मैंने तय किया कि अब कला क्षेत्र में ही करियर बनाना है। इसी क्रम में मेरा चयन नृत्य ग्राम में हो गया और मैं एक नए सफर पर निकल पड़। दरअसल, उम्र के उस नाजुक दौर में मुझे खुद से उम्मीदें थीं और सीखने की लालसा थी। शायद, तभी मैं आगे बढ़ पाई। गुरु प्रतिमा बेदी और गुरु कुमुदिनी लाखिया के सानिध्य में मैं वाकई जान पाई कि कला क्या है? नृत्य क्या है? जीवन क्या है? भारतीय संस्कृति और दर्शन क्या है?
नृत्य ग्राम में जाकर मैं समझ पाई कि नृत्य साधना का मार्ग है। मैंने उसे उसी गंभीरता से साधने का प्रयास किया। यह सिर्फ तोड़े-टुकड़े सीखना भर नहीं है। खासतौर पर कथक आपके पूरे व्यक्तित्व को अनुशासन से भर देता है। वहीं मैं जान पाई कि नृत्य सीखने के साथ-साथ, नृत्य के बारे में बोलना और लिखना भी जरूरी है। श्रुति के आधार पर कलाओं की शिक्षा चलती रही है। लेकिन, आधुनिक समय में कथक के बारे में चर्चा, सोच-विचार और उसके सिद्धांत पर चिंतन-मनन के साथ लिखा जाने लगा।
अपने गुरुओं से क्या सीखा?
डाॅ पारूल-गौरी मां के साथ गुरु कुल में सुबह से शाम तक कला की ही बातें होती थीं। योग, अपने कमरे की सफाई, कथक का रियाज, रसोई की साफ-सफाई, सुबह-शाम आरती में भाग लेना। विदेश से आए कलाकारों को देखना और उनकी चीजों देखना-समझना लगातार चलता रहता था। डांस के साथ-साथ जीवन में हम और क्या-क्या कर सकते हैं। अपनी सोच को विकसित करने और अपने ही व्यक्तित्व के नए आयाम को तलाशने की दृष्टि उनके पास रहकर ही आया।
गौरी मां का मानना था कि जब आप मंच पर नृत्य करते हो तो आप अपने नृत्य को अपने ईष्ट देवता को समर्पित करते हुए पेश करो, न कि आॅडिटोरियम में बैठी आॅडियंस के लिए। जब आप ईश्वर को रिझाने के लिए नृत्य करते हैं, तो उसमें रस का समावेश स्वतः हो जाता है। ऐसे में रस का संचार पूरे वातावरण में हो जाता है। इससे दर्शक अछूता नहीं रहता।
नृत्य ग्राम में लगभग एक वर्ष रहने के बाद मैं अहमदाबाद आ गई। यहा कदंब में कुमु बेन के सानिध्य में बहुत तकनीकी बारीकियों को सीखा। उनसे साउंड, लाइट, काॅस्ट्यूम की एक-एक सूक्ष्मताओं को जानने-समझने का अवसर मिला। यह दृष्टि आई कि जीवन का लक्ष्य खुशी, शांति और मोक्ष है। कथक को साधना की तरह देखती रही हूं।
आप कथक नृत्य को क्यों खूबसूरत मानती हैं?
डाॅ पारूल-कथक का क्षेत्र वैसे भी व्यापक है। कथक साहित्य से जुड़ा हुआ है। लखनऊ, बनारस, जयपुर व रायगढ़ हर घराने की अपनी खूबसूरती है। हमारा नृत्य हमारे जीवन और वातावरण से जुड़ा हुआ है। कलाकार को कला के साथ अपनी संस्कृति, संस्कार, पर्यावरण, पारिस्थितिकी, राजनीति की समझ भी चाहिए। क्योंकि हम मयूर की गत या पनघट की गत में कहीं न कहीं अपनी प्रकृति की बात ही तो करते हैं। कथक या कोई भी नृत्य अंतः प्रेरणा से ही सीखा जा सकता है। कलाकार जबरदस्ती नहीं बनाया जा सकता है।
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