फिर बज उठी शहनाई
लोकेश आनंद, शहनाई वादक
शहनाई वादक लोकेश आनंद को अपने पिता कालीचरणजी से शहनाई विरासत में मिली। आपके पहले गुरू आपके पिता रहे। इनदिनों लोकेश संगीत मार्तंड पंडित जसराज के सानिध्य में अपने वादन को निखारने में जुटे हुए हैं। उन्होंने शहनाई वादक पंडित अनंत लाल और दया शंकर से वादन सीखा। साथ ही, पंडित राजेंद्र प्रसन्ना से भी शहनाई वादन की बारीकियों को सीखा है। वह आकाशवाणी के ए-ग्रेड आर्टिस्ट हैं। बहरहाल, उन्होंने स्वर और लय के अनूठे लगाव से अपने वादन को नया अयाम देने की कोशिश में जुटे हुए हैं। इस बार, रूबरू में उनसे बातचीत के कुछ अंश प्रस्तुत हैं-शशिप्रभा तिवारी
आपने शहनाई वादन सीखने की शुरूआत कैसे की?
लोकेश-मेरे पिताजी विवाह-शादी में शहनाई बजाते थे। उन्होंने पंडित विष्णु प्रसन्ना से सीखा था। पर वह प्रोफेशनल कलाकार नहीं थे। उनकी इच्छा थी कि मैं शहनाई वादन सीखूं। शुरूआत में उन्होंने ही बांसुरी पर हाथ रखना और फूंक लगाना सीखाया। जब मैं बारह-चैदह साल का था, वह मुझे पंडित अनंत लाल जी और दया शंकर जी के पास ले गए।
उन दिनों मैं स्कूल में पढ़ता था। शनिवार-इतवार और छुट्टी के दिनों में गुरूजी के पास सीखने जाता। धीरे-धीरे मेरा मन पढ़ने की अपेक्षा संगीत में ज्यादा लगने लगा। इसके अलावा, मुझे सन् 1997 में मैं मुम्बई में कल के कलाकार कार्यक्रम में बजाने गया। वहां मुझे बहुत शाबाशी मिली। मेरे वादन की तारीफ हुई। मुझे सुरमणि सम्मान जब मिला, उस समय ही मैंने तय किया कि अब यह जीवन पूरी तरह शहनाई को समर्पित होगी।
आप पंडित जसराज के सानिध्य में कैसे आए?
लोकेश-गुरूजी को कुछ साल पहले शंकरलाल संगीत समारोह में सुनने गया था। गुरूजी गा रहे थे। और आस-पास नजर डाला तो हर किसी के आंखों से आंसू प्रवाहित हो रहे हैं। गुरूजी का गायन जारी था, मेरी आंखें बंद थीं। मुझे प्रतीत हो रहा था कि मेरे चारों ओर प्रकाश ही प्रकाश है। और मैं उस प्रकाश पंुज से रोशन हूं। वास्तव में, गुरूजी गाते हैं, उस समय ऐसा लगता है कि ईश्वर की कृपा बरस रही है। वो आनंदित होकर गाते हैं। हर बार उनको सुनता और एक अलग अनुभूति से गुजरता हूं। उसी दौरान मैं गुरूजी से सीखने की इच्छा जाहिर किया। उन्होंने उसे स्वीकार कर, मुझे अपने शिष्यत्व में लिया। यह मेरा सौभाग्य और पूर्व जन्म के पुण्य कर्म का प्रतिफल है।
पंडित जसराज के सानिध्य में आने के बाद अपने में किस तरह का परिवर्तन महसूस करते हैं?
लोकेश-मुझे मेरे गुरूओं ने हमेशा अपने साथ कार्यक्रमों में मंच पर बैठाते थे। कई बार अपने साथ-साथ बजाने का मौका भी देते थे। उन्हीं के मार्ग दर्शन में मैं समारोह में बजाना शुरू किया। लेकिन, पिछले दस सालों से पंडितजी के संग रह कर मैंने शहनाई में रागदारी संगीत को कर पाने में समर्थ हो पाया। मैं राग के चलन और उसको बरतने का तरीका मुझे पता चला।
गुरूजी के सानिध्य में संगीत के आध्यात्मिक पक्ष से अवगत हुआ। वह हमेशा आध्यात्मिक आनंद में मग्न रहते हैं। इससे भी मेरा परिचय हुआ। गुरूजी सभी से प्रेम से मिलते हैं। उनकी बातचीत का अंदाज बहुत आत्मीय है। उनके साथ ने मेरे व्यक्तित्व को निखार दिया है। इसमें कोई शक नहीं है।
आपने यादगार परफाॅर्मेंस के बारे में कुछ बताईए।
लोकेश-मैं पहली बार हैदराबाद में परफाॅर्म करने गया था। इस समारोह का आयोजन गुरूजी पंडित मणिराम और मोतीराम जी स्मृति में लगभग पचास सालों से कर रहे हैं। इस प्रोग्राम को लेकर काफी उत्साहित था। मुझे आधे घंटे का समय दिया गया था। मैंने अपना वादन खत्म किया तो लोगों की ओर से ‘वंस मोर‘ की आवाज आने लगी।
पिछले साल संकटमोचन मंदिर संगीत समारोह में हाजिरी लगाने का अवसर मिला। वह सिद्ध मंच है। वहां तो बाबा के दरबार में बस हाजिरी लग जाए, बस यही मन में रहता है। मेरे प्रोग्राम से पहले पंडित सुरेश तलवरकर जी का वादन था। उनके वादन के बाद, मंदिर में सुबह की आरती हुई। सुबह चार बजे का समय था, दर्शक बहुत कम संख्या में थे। मैं थोड़ा दुखी था। लेकिन, बजाते-बजाते एकाएक नजर उठाया तो देखता हूं। मंदिर के छत और छज्जे पर तीन-चार सौ की संख्या में वानरसेना मौजूद हैं। और चुपचाप मेरा वादन सुन रहे हैं। मैं हनुमानजी की लीला समझ गया। और क्या कहूं। आत्मविभोर हो गया।
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