अजीब सी ख़ामोशी पसरी है
क्या इस शिखर पर पहुंच कर
हार गए हम
लगता है, केशव
सिर्फ तुम्हारी शरण में सुकून है
अब तक के युद्ध में
पता तो होता था
आपका सामना किससे है
हर मन चुप-सा कराह रहा है
मन उद्विग्न है
सब हथियार डाल चूका है
क्या अब भी तुम आओगे?
जीवन का, कर्म का, उत्साह का
सन्देश दे पाओगे
इस बेचैनी, इस निराशा के पल में
हंसने-मुस्कुराने का
कोई वजह दे पाओगे
हमारी बस्ती में
धीमी-धीमी सुलगती उदासी को
आओ न, कान्हा!
अपनी बंसी की टेर से
एक गुनगुनाहट में बदल दो ,
फिर, एक बार !
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