मैं अपने हिस्से के बादल को
निहारती हूँ
शायद, तुम श्याम मेघ बन आओ
मैं सावन की फुहारों में भींग जाऊ
आँगन में झूला डालूँ
कजरी-झूला गाऊ
हरी चूड़ियाँ पहन खनखानाऊँ
हथेलियों में मेहंदी रचाऊँ
अब बाबुल का बुलावा नहीं आता
न आता है भाई का कोई संदेश
पता नहीं ,
कब और कैसे इतनी पराई
बन गई ?
कि अब उस ड्योढ़ी पर
चढ़ने से , पहले
सौ बार सोचेगा मन कान्हा!
यह तुम ही जानोगे
क्यों निहारती हूँ
मैं तुम्हारी राह
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