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Thursday, June 13, 2024

मेरा हमसफर कथक नृत्य!-@श्रुति सिन्हा, कथक नृत्यांगना

                          मेरा हमसफर कथक नृत्य!-@श्रुति सिन्हा, कथक नृत्यांगना


कथक नृत्यांगना श्रुति सिन्हा ने कथक नृत्य की शिक्षा गुरु रमा दास और गुरु पंडित मुन्ना शुक्ला से प्राप्त की। उन्होंने कथक नृत्य के साथ हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखा। वह दूरदर्शन की मान्यता प्राप्त कलाकार हैं। वह राजधानी दिल्ली में सिपा-श्रुति इंस्टीट्यूट आॅफ परफाॅर्मिंग आट्र्स के माध्यम से कथक नृत्य सीखा रही हैं। साथ ही, देश के विभिन्न शहरों के आयोजनों में नृत्य प्रस्तुत करती रही हैं। पिछले वर्ष श्रुति सिन्हा को डाॅ सरोजिनी नायडू नाइटिंगल सम्मान से सम्मानित किया गया।

आप कथक नृत्य से कैसे जुड़ी?

श्रुति सिन्हा-मेरा भी जीवन और कथक की यात्रा भी इससे अछूता नहीं रहा। मैं एक स्वतंत्रता सेनानी की पारिवारिक पृष्ठभूमि से हूं। मेरे दादा जी स्वर्गीय श्री कृष्ण नंद वर्मा, जो बिहार में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र ‘नवराष्ट्र‘ के संपादक थे। वे स्वतंत्रता की आहुति में समिधा बनकर जलने को खड़े हो गए। मेरे पिता स्वर्गीय सुबोध कुमार सिन्हा अभियंता थे। वे जयप्रकाश नारायण से और जेपी आंदोलन से जुड़े रहे। वे जेपी के अंत समय तक जेपी की डायालिसित करते रहे। वह होमियोपैथी चिकित्सा में उनका हाथ ऐसा सिद्ध था कि कई असाध्य बीमारियों को ठीक करने पर उन्हें लोग भगवान सरीखा मानने लगे। अपने जीवन के अंतिम क्षण तक वे मानवीयता के लिए जीते रहे। वे मुझे पटना के प्रसिद्ध दुर्गा पूजा पंडालों तथा रामलीलाओं में मुझे अपने साथ ले जाया करते थे। संभवतः उसकी छवि मेरे बालमन पर अमिट छाप छोड़ रही थी।
मेरी मां आज भी मेरी मानसिक आधारशिला रही हैं। अपने मां-पिता की मैं लाडली स्वाधीनता, आचार-विचार, संस्कार, मूल्यों और वैचारिक उत्तुंगता को अपने चारों ओर देखते-सुनते, गुनते बड़ी हो रही थी। मेरा बालमन स्वाधीनता भारत के भावों से ओत-प्रोत हो रहा था। यही वक्त था, जब रामलीला की नाट्य कला अपनी भाव-भंगिमा से मेरे बैठक की वातायन की सलाखों के पीछे से मेरी पांच वर्षीया निगाहों से छुपन-छुपाई खेल रही थी। मेरे गंभीर और निश्चेष्ट भाव से आबद्ध मेरे तन और मन को मेरे पिता ने पढ़ा। वह मेरी पहली गुरु रमा दास के पास मुझे नृत्य सीखाने ले गए।


आप कथक केंद्र से कैसे जुड़ीं?

श्रुति सिन्हा-मेरे चाचा जी उनदिनों दिल्ली में कार्यरत थे। उन्होंने ही मुझे बताया कि कथक केंद्र में एडमिशन के लिए फाॅर्म निकला है। मैंने इस तरह यहां दाखिला ले सकी। कथक की साधना के लिए मैं अपने गृह नगर पटना के घर की चारदिवारी से बाहर लांघ गई। जहां नृत्य की परंपरा को बिहार जैसे तथाकथित पिछड़ा प्रदेश पचा नहीं पा रहा था। किंतु, मन में लगन हो, जोश हो, निष्ठा हो और तपने व सहने की क्षमता हो तो दुनिया मुट्ठी में की जा सकती है। एक हाथ में कथक के प्रति साधना और दूसरे हाथ में सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक चुनौतियां। ये चुनौतियां सिर्फ मेरी ही नहीं, बल्कि हर उस कलाकार की हैं, जो किसी भी कला के प्रति समर्पित होता है। ये चुनौती प्रत्येक कला विशेष की है। आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। चुनौतियां संघर्ष करना सिखाती हैं, मांजती हैं। मैं कथक की अपने प्रारंभिक शिक्षा के साथ कथक केेंद्र में जब आई तो मानों लगा कि कथक का ककहरा अभी मुझसे कोसों दूर है। मैं रूप-रंग में सामान्य कद-काठी की थी। किंतु सांवले रूप और इस विश्वास के साथ कक्षाएं कर रही थी कि मैं एक दिन इस कथक मंदिर में रेखांकित की जाने वाली शिष्या बनूंगी।

कथक नृत्य के संदर्भ में आप क्या सोचती हैं?

श्रुति सिन्हा-उŸार भारत में इस प्रमुख लोकनृत्य की विकास यात्रा क्रमशः आगे बढ़ने लगी। सौ-सौ से अधिक घंुघरूओं को पैरों में बंाधकर तालबद्ध, पदचाप, विहंगम चक्कर लेते हुए, यह परसियन और मुस्लिम प्रभाव से मंदिर की रीति से दरबारी मनोरंजन तक पहंुच गई। उŸार भारत में मुगल शासकों को शाही दरबार में पहुंच कर इसे संरक्षण तो प्राप्त हुआ। किंतु अब इसका स्वरूप शनैः-शनैः परिवर्तित होने लगा। इस नृत्य में धर्म की अपेक्षा सौंदर्य बोध पर अधिक बल दिया जाने लगा। यह वह वक्त था जब कथक मंदिरों से निकलकर दरबार के मनोरंजन और रसास्वादन का पर्याय बन गई, तब कथक को अपने मौलिक रूप को बचाने के लिए चुनौती का सामने आने लगी।
इस राष्ट्रीय धरोहर की अस्मिता और देवदासी परंपरा की पुर्नप्रतिष्ठा हेतु प्रथम महिला उत्थान हेतु सामाजिक कार्यकर्ता और विधायक डाॅ मुथुलक्ष्मी रेड्डी ने ‘एंटी नाच कैम्पेन‘ चलाया, जिससे कथक और देवदासी धीरे-धीरे अपनी प्रतिष्ठा और अस्तित्व की ओर लौटने लगी। चुनौती आज भी है। आजादी के पच्चहŸारवें साल में कथक अपनी विकास यात्रा में कथक केंद्र, अनेक संस्थाओं, विद्यालयों, गुरूओं, साधकों, कलाकारों, रसिकों और सुधिजनों को समेटे हुए है। किंतु, कच्ची मिट्टी का संघर्ष से तपकर निकलना और परिपक्व घड़ा बनकर, कथक परंपरा की आधार शिला को और मजबूत बनाने की प्रक्रिया आज के युग में कठिन से कठिन होती जा रही है।

एक कलाकार के तौर पर आप किस तरह की चुनौती को महसूस करती हैं?

श्रुति सिन्हा-गुरू शिष्य परंपरा का आत्म बोधन मेरे भीतर प्रारंभ से ही था। मैं एकनिष्ठ भाव से अनवरत कथक सीखने की ओर बढ़ रही थी। चुनौतियां अभी और भी थीं, खुद को स्थापित करने की। पहले कलाकार को कला सीखने की चुनौती, फिर कला को हस्तांतरिक करने या उसके विकास में स्व योगदान की चुनौती। मेरी दृष्टि से कला किसी जाति, वर्ग, धर्म, संप्रदाय या उम्र का मोहताज नहीं। किंतु, यह भी सत्य है कि कला के विकास में द्रव्य विशेष का विशेष महत्व है। संसाधनों के बिना साधना कैसी और साधना के बिना साध्य कैसा? द्रव्य के बिना कला अपने अलौकिक रूप में अवश्य जीवित रह सकती है। उसके लौकिक रूप में विकास के लिए धन की आवश्यकता होती है। और उतनी ही आवश्यकता कलाकार को भी होती है। मेरी कथक सीखने और सीखाने की प्रक्रिया समानांतर चल रही थी।
मेरा मत है कि कलाकार बचेगा तो ही कला बचेगी। इस संरक्षण या बचाव के लिए सभी का सामाजिक दायित्व है कि भरतीय संस्कृति की इस लोकप्रिय नृत्य कला कथक को अधिक से अधिक महत्व और मान दें। हमारा दायित्व है कि हम कथक अथव किसी भी कला का उत्साहवर्द्धन या प्रेरणा हेतु भौतिक रूप से भी कलाकारों का स्तर ऊंचा उठाएं, जो कला के साथ विकास करे। इसके लिए भारतीय शिक्षा नीति के तहत जिस प्रकार भाषा साहित्य को एक-दूसरे प्रदेशों में द्वितीय भाषा के रूप में अध्ययन की छूट होती है, उसी प्रकार प्रारंभिक शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय स्तर तक की शिक्षा में नृत्य या संगीत कला के विनिमय ज्ञानवर्द्धन की नीति लागू करनी चाहिए। इससे संपूर्ण भारतीय नृत्य संस्कृति और समृद्ध होती जाएगी। नई पीढ़ी इस नृत्य कला से अवगत होगी। उनकी रूचि बढ़ेगी, साधना और फिर उस दिशा में नृत्य कला व्यवसाय के रूप में एक नई सोच विकसित होगी।

आप युवाओं को शास्त्रीय कला के प्रति कैसे जोड़ना चाहेंगी?

श्रुति सिन्हा-यह सच है कि आज व्यस्त जीवन में माता-पिता बच्चों को फटाफट प्रसिद्धि की ओर धकेलना चाहते हैं। चमक-दमक और मृग मरिचिका डांस शो में बच्चों को अधकचरे ज्ञान के साथ भेजते हैं। ऐसे बच्चे तात्कालिक लोकप्रियता से मोटी कमाई तो अवश्य कर लेते हैं। लेकिन, बच्चे के भविष्य और कला के साथ खिलवाड़ करते हैं। यह बात महत्वपूर्ण है कि यंत्रवत जीवन की आपाधापी मंे कथक जैसा शास्त्रीय नृत्य शारीरिक एवं मानसिक चुनौतियों को शांत करती है। नृत्य उपचार पद्धति में योग के संयोग के साथ कथक सहायक होती है। अभिभावकों को यह समझना आवश्यक है कि अंग्रेजी के डांस का पर्याय शास्त्रीय नृत्य कदापि नहीं बन सकती। रायगढ़ के महाराज चक्रधर सिंह ने कहा है-‘भावहीन होकर नृत्य एक मशीनी हरकत की तरह न रह जाए। नृत्य सिर्फ अंग संचालन है तो अपना अस्तित्व खो बैठेगा‘।

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