बनारस घराने की प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका सविता देवी जी का तानसेन सम्मान मिला था। तब ग्वालियर में उनका साथ मिला। अक्सर, उनसे बात होती थी। उनदिन उनकी तबीत ठीक नहीं थी। कहा कि आजकल ता अस्पताल से घर और घर से अस्पताल का सिलसिला चल रहा है। हाल में उन्होंने इस दुनियारी का अलविदा कहा, उन्हीं की याद में
वैशाली की नगरवधू को बार-बार पढ़ती हूं
-शशिप्रभा तिवारी
मेरे जीवन में बचपन से ही संगीत के सुर गूंजने लगे थे। मैं सोते-जागते संगीत के सात सुरों की गूंज को अपने आस-पास प्रतिध्वनित होते महसूस करती थी। लेकिन, मां ने अपनी कुछ व्यस्तताओं के कारण और मेरी पढ़ाई का नुकसान न हो, इसलिए हाॅस्टल में डाल दिया। स्कूल की पढ़ते हुए, मैंने हिंदी साहित्य के महान साहित्यकारों जयशंकर प्रसाद, मुशी प्रेमचंद, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, मैथिलीशरण गुप्त की लिखी रचनाओं को खूब पढ़ा।
मुझे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की रचनाएं ज्यादा आकर्षित करती हैं। मैंने काॅलेज की पढाई के दौरान जहां एक ओर सितार बजाना सीखा, वहीं दूसरी ओर बहुत सारी किताबें पढ़ीं। जिनमें जयशंकर प्रसाद का लिखा-कामायनी, ध्रुवस्वामिनी, आंसू, ममता, अजातशत्रु ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उन्होंने जिस नजर से स्त्री के भावों को समझा और उसकी पीड़ा को अभिव्यक्त किया है, वह मुझे भीतर तक छूता है। कभी-कभी सोचती हूं कि लेखक वाकई, तभी इतना सशक्त लिख पाते होंगें, जब वो उस दर्द को अपने भीतर महसूस करते होंगें।
उसी दौरान मेरे हाथ आचार्य चतुरसेन शास्त्री की अमरकृति ‘वैशाली की नगरवधू‘ लगी। यह हिंदी में लिखा एक गंभीर और प्रभावकारी बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास है। इस उपन्यास के आमुख में लिखते हैं कि यह रहस्योद्घाटन करता है। यह सत्य है, काले पर्दे के प्रति कि आर्यों के धर्म, साहित्य, राजसŸाा और संस्कृति की पराजय और मिश्रित जातियों की प्रगतिशील संस्कृति की विजय सहस्राब्दियों से छिपी हुई है। जिसे संभवतः किसी इतिहासकार ने आंख उघाड़कर देखा नहीं है।
‘वैशाली की नगरवधू‘ की कथा वस्तु में शिशुनाग वंश के राजा बिंबसार के समय के मगध राज्य का वर्णन है। इसमें ग्यारह वर्ष की अल्हड़ उम्र की बालिका आम्रपाली को नगर वधू घोषित कर दिया जाता है। क्योंकि, वैशाली में उस समय यह कानून था कि गणतंत्र की जो सबसे सुंदर बालिका होगी, उस पर पूरे गणतंत्र का समान अधिकार होगा। वह किसी एक व्यक्ति की होकर नहीं रह सकती है। आम्रपाली के सौंदर्य से मगध के सम्राट बिंबसार परिचित थे। वह उसके प्रति आसक्त भी थे, सो उन्होंने उसे पाने की लालसा से वैशाली पर आक्रमण भी किया।
आम्रपाली की पीड़ा को मैं अपने भीतर गहराई से महसूस करती हूं। जब पहली बार इस उपन्यास को पढ़ा, तब तो मेरे रोंगटे सिहर गए थे। हर पन्ना पढ़कर, मैं सोचने पर मजबूर हो जाती थी। वह बच्ची जो अपने बाबा से सुंदर कंचुकी खरीदने की जिद करती है। वह बालिका, जो अभी सखियों के साथ खेलना चाहती है, घूमना-फिरना चाहती है, उसे महल की कैद में विलासी जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है। उसे हर तरह का वैभव मिलता है। लेकिन, उसके अंदर की पीड़ा को तो सिर्फ भगवान बुद्ध ने ही समझा। वाकई, हमें जीवन में सब कुछ मिल जाता है, फिर भी संघर्ष की वह पीड़ा कभी भूलता नहीं। आम्रपाली के जीवन को जब देखती हूं तब लगता है कि कहीं न कहीं आज भी बहुत-सी आम्रपाली हमारे इर्द-गिर्द मौजूद हैं। भले हम उनके दर्द को महसूस नहीं करते या उनकी ओर देखना नहीं चाहते या उस तरफ से अपनी नजरों को हटा लेते हैं। पर, इससे समाज का सच नहीं बदलता।
दरअसल, भौतिक जीवन में सब कुछ मिल जाने के बावजूद भी स्त्री को सम्मान की चाहत हमेशा रहती है। चाहे मां के रूप में, चाहे कलाकार के रूप में या जिस रूप में भी हो उसे समाज से इज्जत की चाह हमेशा से रहती है। मैंने नारी की अस्मिता को गौरवान्वित करने के लिए ही अपनी मां के ऊपर किताब ‘मां सिद्धेश्वरी‘ लिखा। क्योंकि, मैंने मां के संघर्ष को अपने भीतर महसूस किया। वह दिन भर तो व्यस्त रहती थीं। कलाकार और विद्वान लोगों से घिरी रहती थीं। मैं भी उनदिनों दौलतराम काॅलेज में पढ़ाती थी, तो व्यस्त रहती थी। लेकिन, रात को जब हम निश्ंिचत होते तब मां से ढेर सारी बातें करते। हालांकि, मैं मां के साथ जब कार्यक्रमों में जाती थी, उनके साथ मंच पर बैठकर तानपुरा बजाती थी। उस समय बहुत कुछ देखती-सुनती थी। पर जब मां अपनी जुबान से अपनी बातें बतातीं थीं, तब खुशी भी होती और दुख भी होता। उनकी बातों को मैं डायरी में रोज लिखती थी। उसे ही मैं उस किताब का रूप देने का कोशिश की।
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