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Friday, January 31, 2020




                                                            बासंती बयार के साथ बासंती रंग
                                                                     
                                                                               और 

                                                            पंडित जसराज, वरिष्ठ शास्त्रीय गायक


कुछ समय पंडित जसराज राजधानी दिल्ली आए थे। उस दौरान उनसे बसंत के मौसम और जीवन के बसंत के बारे में कुछ बातचीत हुई। उसी के कुछ अंश पेश हैं। प्रस्तुति शशिप्रभा तिवारी



पंडित जसराज कहते हैं ---बसंत की चंचल बयार के साथ ही ठंढ के मौसम से राहत मिलने लगती है। इसी बसंत के मौसम का पहला आह्वान विद्या की देवी सरस्वती की पूजा से होता है। उसी दिन हम कलाकार, रसिक, साहित्यकार जैसे सरस्वती पुत्र-पुत्रियां एक-दूसरे को बसंत की बधाई देते हैं और अपने वाद्यों का पूजन करते हैं। इसी दिन से राग बसंत, बहार, होली, फाग को गाने की शुरूआत भी करते हैं। तब मैं भी बसंत की वह सुंदर बंदिश को गाने से खुद को रोक नहीं पाता-‘और राग बने बाराती, दुल्हा राग बसंत‘। दरअसल, सुंदरता है तो अलग-अलग तरह से सजती है, प्रकृति तो अपना श्रृंगार खुद ही कर लेती है। इस मौसम में सरसों के पीले फूल, पलास के बसंती फूल और भी तरह-तरह के पौधें पुष्पित-पल्लवित हो उठते हैं। बसंत का यह पीतांबरी सौंदर्य भगवान की ही कृपा है।








बसंत की बहार की पराकाष्ठा का त्योहार है-होली। जसराजजी आगे कहते हैं--- रंगों का त्योहार होली भी हर त्योहार के जैसे वर्ष भर के इंतजार के बाद आता है। इन त्योहारों के माध्यम से हम अपनी आस्था को और मजबूत होता पाते हैं। जब हम बच्चे होते हैं, उस समय माता-पिता तीज-त्योहारों या रीति-रिवाजों से जोड़ते हैं। हमें उन्हें मानना चाहिए। धीरे-धीरे हम अपने उम्र के पड़ावों से जैसे-जैसे गुजरते हैं, वैसे-वैसे उन अदृश्य शक्तियों से परिचित होते हैं। जिंदगी के अनुभव हमें समृद्ध करते हैं और हमारे विश्वास को सबल बनाते हैं। हम कभी भी किसी की आस्था-विश्वास को ठेस नहीं पहुंचा सकते। हमारे रीति-रिवाज, त्योहार, धार्मिक उत्सव, जो भी हैं-वह सही हैं। आप या हम इस पर अंगुलियां नहीं उठा सकते। हम जितनी अपने धर्म या रीति-रिवाज के प्रति श्रद्धा रखते हैं, उतनी सबके प्रति रखनी चाहिए।


वह मानते हैं कि मेरा यह सौभाग्य है कि मुझे बरसाने, मथुरा, गोकुल, वंृदावन यानि कृष्ण, राधा और गोपियों की नगरी में रमने का अवसर मिला। मैं होली को राधा-कृष्ण के प्रेम की अभिव्यक्ति का पर्व मानता हूं। जिस तरह कृष्ण-गोपियों के साथ शारदीय पूर्णिमा को रास नृत्य करते हैं, उस तरह ही वह होली के रंगों में सराबोर कर देते हैं। वहां कृष्ण राधामय हो जाते हैं और राधा कृष्णमय हो जाती हैं। कोई अंतर नहीं रह जाता है। और तो और गोपियों गोपाल से कहती हैं कि हमारे आंखों में लाल गुलाल मत डालो, अन्यथा हम आपके सुंदर रूप को नहीं देख पाएंगें। तभी तो हम गाते हैं कि

‘लाल गुपाल,
गुलाल हमरी आंखिन में जिन डारो जू,
बदन चंद्रमा
इन अंतर गुण बन बारो जू‘


पंडित जसराज कहते हैं  कि अक्सर, मैं जब किसी मंदिर में जाता हूं, तब भगवान के चरणों में स्वर सुमन अर्पित करता हूं। ऐसे ही एक बार बरसाने में मैं राधाजी के मंदिर में गर्भ गृह में बैठकर यूं ही गा रहा था। वहां राधा जी के मंदिर में तीन युवतियां बैठी थीं, पुजारी शोर मचा रहे थे और मैं बैठकर गा रहा था। तभी उनमें से एक ने पुजारी जी को डांटते हुए, चुप रहने को कहा। कुछ देर गाने के बाद, जब मैं उठकर जाने लगा। तब वही कन्या बोली कि यहां समय लेकर आईए और समयानुसार गाईए। मैंने कहा कि मैं आपके पैर छूना चाहता हूं। अभी मेरे जेब में सिर्फ ये पचास का नोट है, यह देना चाहता हूं। उसके बगल में खड़ा संावला-सा युवक अचानक कहां से प्रकट हा गया, उसने कहा कि ये पैर छूना चाहते हैं, तो छूने दो। और पंडितजी जो दे रहे हैं, ले लो। दोनों का आदेश कमाल का। इतना जबरदस्त अहसास! मैं अनुभूति करता हूं कि साक्षात राधा जी और कृष्ण जी थे। यह मेरी आत्मा बोलती है। फिर, मैं तीन दिन वहीं बरसाने में रहा। वहां बैठा राधा रानी को निहारता और गीतों को गाता रहता। मगर, वो घटना मेरे मन पर अमिट छाप छोड़ गई।


जसराजजी आगे कहते हैं----हालंाकि, उसके बाद कई बार बरसाने जाना हुआ। वंृदावन में बांके बिहारीजी के मंदिर में गीत गाया हूं। उस जगह पर बैठ कर गाने का सौभाग्य जहां स्वामी हरिदासजी बैठ कर अपने गोपाल के लिए गाया करते थे। कुछ ऐसी कृपा रही है। वह अद्भुत है कृपानिधान है, जो मुझ पर कृपा करता रहता है। मैं उसी के श्याम रंग में रंगा खुद को पाता हूं। होली हो तब भी और न हो तब भी। वैसे होली के रंग खुशियों के रंग होते हैं, जो हमें खुश रहने और खुशी बांटने की प्रेरणा देते हैं।

पंडित जसराज कहते हैं कि मुझे होली में रंगों से खेलना, गुलाल लोगों के गालों पर मलना और गुलाल हवा में उड़ाना बहुत पसंद था। था! इसलिए कि अब वैसे नहीं खेलता जैसे पहले खेलता था। हां! होली ऐसा त्योहार है, जो हर साल अपनी खूबसूरत याद साल भर के लिए दे जाती है। उसकी रंग में खुद को रंगा हुआ महसूस करता रहता हूं। मुझे लगता है कि हर होली मुझ पर अपना अलग रंग महसूस करवाकर चली जाती है। इस बार भी मैं होली के समय मथुरा में ही रहूंगा। देखूं इस बार गोपाल की नगरी की होली का रंग मुझपर कैसी छाप छोड़ती है। मैं बहुत अधीर से उन पलों का इंतजार कर रहा हूं।


उनका संदेश है---होली तो हम खुशियों से भर देती थी। हैदराबाद में होली का कार्यक्रम सारे दिन चलता रहता था। नवाब साहब की ओर से ‘चंदू लाल की बारादरी‘ में होली का समारोह आयोजित किया जाता था। वह बहुत बड़ी बावड़ी थी। जिसमें रंगीन पानी भरा जाता था। एक तरफ हर अतिथि को उस पानी में डुबोया जाता और हर कोई एक-दूसरे को रंग-बिरंगा देखकर हंसता-मुस्कुराता। दूसरी तरफ वहां महिला और पुरूष कलाकार संगीत का महफिल जमाए रखते। ऐसा खुशमिजाज माहौल होता था, किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं होती थी, कि मुझे भिंगोया क्यों? रंग क्यों लगाया? पिचकारी के फव्वारे क्यों चलाया? वहां सभी गाना-बजाना सुनते, झूमते, खाते-पीते और जिंदगी के रंग में रंगकर आनंद में डूब जाते थे। यह सच है कि आज का माहौल काफी बदल चुका है। मुझे लगता है कि हमें समय के अनुसार ढल जाना चाहिए। उस समय का माहौल कुछ वैसा ही था, आज समय बदल गया है। लोग दूर से ही फेसबुक, वाट्स-अप, ट्विटर पर मैसेज के जरिए ही होली मना रहे हैं, तो यह बदलते समय का तकाजा है। हो सकता है कि लोगों को जिंदगी में रंगों की कमी महसूस होगी तो वह खुद ही रंग-बिरंगे रंग में रंगने को घर से निकलकर आएंगें।





Wednesday, January 29, 2020




बनारस घराने की प्रसिद्ध शास्त्रीय गायिका सविता देवी जी का तानसेन सम्मान मिला था। तब ग्वालियर में उनका साथ मिला। अक्सर, उनसे बात होती थी। उनदिन उनकी तबीत ठीक नहीं थी। कहा कि आजकल ता अस्पताल से घर और घर से अस्पताल का सिलसिला चल रहा है। हाल में उन्होंने इस दुनियारी का अलविदा कहा, उन्हीं की याद में




                                               वैशाली की नगरवधू को बार-बार पढ़ती हूं

                                              -शशिप्रभा तिवारी


मेरे जीवन में बचपन से ही संगीत के सुर गूंजने लगे थे। मैं सोते-जागते संगीत के सात सुरों की गूंज को अपने आस-पास प्रतिध्वनित होते महसूस करती थी। लेकिन, मां ने अपनी कुछ व्यस्तताओं के कारण और मेरी पढ़ाई का नुकसान न हो, इसलिए हाॅस्टल में डाल दिया। स्कूल की पढ़ते हुए, मैंने हिंदी साहित्य के महान साहित्यकारों जयशंकर प्रसाद, मुशी प्रेमचंद, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, मैथिलीशरण गुप्त की लिखी रचनाओं को खूब पढ़ा।
मुझे ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की रचनाएं ज्यादा आकर्षित करती हैं। मैंने काॅलेज की पढाई के दौरान जहां एक ओर सितार बजाना सीखा, वहीं दूसरी ओर बहुत सारी किताबें पढ़ीं। जिनमें जयशंकर प्रसाद का लिखा-कामायनी, ध्रुवस्वामिनी, आंसू, ममता, अजातशत्रु ने मुझे बहुत प्रभावित किया। उन्होंने जिस नजर से स्त्री के भावों को समझा और उसकी पीड़ा को अभिव्यक्त किया है, वह मुझे भीतर तक छूता है। कभी-कभी सोचती हूं कि लेखक वाकई, तभी इतना सशक्त लिख पाते होंगें, जब वो उस दर्द को अपने भीतर महसूस करते होंगें।




                                                      




उसी दौरान मेरे हाथ आचार्य चतुरसेन शास्त्री की अमरकृति ‘वैशाली की नगरवधू‘ लगी। यह हिंदी में लिखा एक गंभीर और प्रभावकारी बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास है। इस उपन्यास के आमुख में लिखते हैं कि यह रहस्योद्घाटन करता है। यह सत्य है, काले पर्दे के प्रति कि आर्यों के धर्म, साहित्य, राजसŸाा और संस्कृति की पराजय और मिश्रित जातियों की प्रगतिशील संस्कृति की विजय सहस्राब्दियों से छिपी हुई है। जिसे संभवतः किसी इतिहासकार ने आंख उघाड़कर देखा नहीं है।

‘वैशाली की नगरवधू‘ की कथा वस्तु में शिशुनाग वंश के राजा बिंबसार के समय के मगध राज्य का वर्णन है। इसमें ग्यारह वर्ष की अल्हड़ उम्र की बालिका आम्रपाली को नगर वधू घोषित कर दिया जाता है। क्योंकि, वैशाली में उस समय यह कानून था कि गणतंत्र की जो सबसे सुंदर बालिका होगी, उस पर पूरे गणतंत्र का समान अधिकार होगा। वह किसी एक व्यक्ति की होकर नहीं रह सकती है। आम्रपाली के सौंदर्य से मगध के सम्राट बिंबसार परिचित थे। वह उसके प्रति आसक्त भी थे, सो उन्होंने उसे पाने की लालसा से वैशाली पर आक्रमण भी किया।

आम्रपाली की पीड़ा को मैं अपने भीतर गहराई से महसूस करती हूं। जब पहली बार इस उपन्यास को पढ़ा, तब तो मेरे रोंगटे सिहर गए थे। हर पन्ना पढ़कर, मैं सोचने पर मजबूर हो जाती थी। वह बच्ची जो अपने बाबा से सुंदर कंचुकी खरीदने की जिद करती है। वह बालिका, जो अभी सखियों के साथ खेलना चाहती है, घूमना-फिरना चाहती है, उसे महल की कैद में विलासी जीवन जीने को मजबूर होना पड़ता है। उसे हर तरह का वैभव मिलता है। लेकिन, उसके अंदर की पीड़ा को तो सिर्फ भगवान  बुद्ध ने ही समझा। वाकई, हमें जीवन में सब कुछ मिल जाता है, फिर भी संघर्ष की वह पीड़ा कभी भूलता नहीं। आम्रपाली के जीवन को जब देखती हूं तब लगता है कि कहीं न कहीं आज भी बहुत-सी आम्रपाली हमारे इर्द-गिर्द मौजूद हैं। भले हम उनके दर्द को महसूस नहीं करते या उनकी ओर देखना नहीं चाहते या उस तरफ से अपनी नजरों को हटा लेते हैं। पर, इससे समाज का सच नहीं बदलता।

दरअसल, भौतिक जीवन में सब कुछ मिल जाने के बावजूद भी स्त्री को सम्मान की चाहत हमेशा रहती है। चाहे मां के रूप में, चाहे कलाकार के रूप में या जिस रूप में भी हो उसे समाज से इज्जत की चाह हमेशा से रहती है। मैंने नारी की अस्मिता को गौरवान्वित करने के लिए ही अपनी मां के ऊपर किताब ‘मां सिद्धेश्वरी‘ लिखा। क्योंकि, मैंने मां के संघर्ष को अपने भीतर महसूस किया। वह दिन भर तो व्यस्त रहती थीं। कलाकार और विद्वान लोगों से घिरी रहती थीं। मैं भी उनदिनों दौलतराम काॅलेज में पढ़ाती थी, तो व्यस्त रहती थी। लेकिन, रात को जब हम निश्ंिचत होते तब मां से ढेर सारी बातें करते। हालांकि, मैं मां के साथ जब कार्यक्रमों में जाती थी, उनके साथ मंच पर बैठकर तानपुरा बजाती थी। उस समय बहुत कुछ देखती-सुनती थी। पर जब मां अपनी जुबान से अपनी बातें बतातीं थीं, तब खुशी भी होती और दुख भी होता। उनकी बातों को मैं डायरी में रोज लिखती थी। उसे ही मैं उस किताब का रूप देने का कोशिश की।

सच कहूं, तो आज भी मेरे पलंग के सिरहाने पर आपको ‘वैशाली की नगर वधू‘ रखा हुआ, मिल जाएगा। क्योंकि, जीवन का सच और संघर्ष उससे बेहतर मुझे नहीं लगता। इसलिए, आज भी उसे बार-बार पढ़कर, पुरानी यादों को ताजा करती हूं और जीवन में संघर्ष करने के लिए प्रेरित होती हूं। वैसे भी जीवन आशा-निराशा, सुख-दुख, हंसी-गम की कहानी ही तो है। कभी-कभी सोचती हूं कि हम तो काशीवासी हैं। काशी यानी ‘आनंदवन‘, जहां हर समय ‘बरसत रंग आनंदवन‘ है, पर फिर भी, अब कामना रहती है कि काशी की मिट्टी वहीं काशी की माटी में ही मिल जाए।

Friday, January 17, 2020

अनबाउंड बीट्स आॅफ इंडिया समारोह





                                    अनबाउंड बीट्स आॅफ इंडिया समारोह
                                 
                                    शशिप्रभा तिवारी


उत्सव की ओर से आयोजित किया जाने वाला यह सलाना जलसे का कलाकार वर्ष भर इंतजार करते हैं। वरिष्ठ कलाकारों की ओर से युवा कलाकारों को यह अवसर देना, वास्तव में, उन्हें मान्यता प्रदान करने जैसा है। यह प्रयास सराहनीय है।





पिछले दिनों राजधानी में अनबाउंड बीट्स आॅफ इंडिया समारोह का आयोजन किया गया। इसमें विभिन्न नृत्य शैली के युवा कलाकारों ने नृत्य पेश किया। समारोह में ओडिशी, भरतनाट्यम, कुचिपुडी, कथक, मोहिनीअट्टम नृत्य शैली में अंकिता बख्शी, विनोद केविन बचन, मोहित श्रीधर, दीक्षा रावत, आयना मुखर्जी, चित्रा दलवी वारटक और वाणी भल्ला पाहवा ने नृत्य पेश किया। इस समारोह का आयोजन उत्सव की ओर से किया गया।







कुचिपुडी गुरू जयराम राव और वनश्री राव की शिष्या आयना मुखर्जी ने समारोह में शिरकत किया। आयना ने दशावतार पेश किया। यह राग मोहनम और मिश्र चापू ताल में निबद्ध था। इसकी परिकल्पना डाॅ वेम्पति चिन्नासत्यम ने की थी। आयना ने गुरू वनश्री राव की नृत्य रचना चित्रसभा पेश किया। इसमें कैलाश पर्वत पर भृंगी व भूत गणों के साथ नृत्य करते भगवान शिव को उन्होंने नृत्य में दर्शाया। भगवान शिव को भस्म विभूषित, त्रिनेत्रवाले और रूद्राक्ष धारण किए हुए हैं। यह राग गौरी और आदि ताल में निबद्ध थी। 
इसी प्रसंग को भरतनाट्यम नृत्यांगना चित्रा दलवी वारटक ने पेश किया। स्वाति तिरूनाल की यह रचना राग हंसध्वनि और आदि ताल में निबद्धि था। यह डाॅ संध्या पुरेचा की नृत्य रचना थी। रचना ‘शंकर श्री गिरिनाथ प्रभु‘ पर यह आधारित थी। 




इंडिया हैबिटाट सेंटर में आयोजित इस नृत्य समारोह का आरंभ अंकिता बख्शी के ओडिशी नृत्य से हुआ। गुरू रंजना गौहर की शिष्या अंकिता और विनोद केविन बचन ने नृत्य किया। दोनों शिष्या-शिष्य ने नृत्यांगना रंजना गौहर की नृत्य रचनाओं को पेश किया। समारोह की शुरूआत में अंकिता ने मंगलाचरण पेश किया। यह रचना ‘जय जय जननी‘ पर आधारित थी। यह राग प्रथम मंजरी और एक ताली में निबद्ध था। नर्तक विनोद केविन बचन ने अर्धनारीश्वर में शिव-पार्वती के रूप को पेश किया। यह आदि शंकराचार्य की रचना पर आधारित था। राग मालिका और ताल मालिका में इसे पिरोया गया था। उनकी दूसरी प्रस्तुति विश्व रूप दर्शन थी। यह श्रीमद्भगवत गीता के श्लोक पर आधारित थी। यह राग मालकौंस व अहीर भैरवी और एक ताली में निबद्ध थी। इसमें व्यथित अर्जुन के भाव को विनोद केविन ने दर्शाया। यहीं कृष्ण ने उन्हें कर्म का संदेश और विश्व रूप का दर्शन दिया। इन नृत्य रचना की संगीत रचना आचार्य बंकिम सेठी की थी।

मोहिनीअट्टम नृत्य शैली में वाणी भल्ला ने नृत्य पेश किया। गुरू भारती शिवाजी की वरिष्ठ शिष्या वाणी ने शुद्ध नृत्त का अंदाज मुखचालम में पेश किया। विभिन्न ताल अवर्तनों पर अंग, पद और हस्त संचालन उन्होंने पेश किया। यह सोपानम संगीत के राग मालिका-बेगड़, सावेरी व देसखी में पिरोई गई थी। वाणी ने जयदेव की अष्टपदी ‘ललित लवंग लता‘ को नृत्य में पिरोया। यह राग पुरूनीर, बसंत और मध्यमावती में निबद्ध थी। राधा कृष्ण के भावों का यह विवेचन मार्मिक था।

इस समारोह में कथक नृत्य को नृत्यांगना दीक्षा रावत और नर्तक मोहित श्रीधर ने पेश किया। गुरू उमा डोगरा की शिष्या दीक्षा रावत ने धमार ताल में शुद्ध नृत्त पेश किया। इसके अलावा, ठुमरी ‘बाट चलत‘ पर भाव दर्शाया। दीक्षा ने तीन ताल में निबद्ध तराने को भी नृत्य में पिरोया। जबकि, पंडित राजेंद्र गंगानी के शिष्य मोहित श्रीधर ने जयपुर घराने की तकनीकी बारीकियों को नृत्य में पिरोया। उन्होंने तीन ताल में पैरों के काम के जरिए तैयारी और विभिन्न लयकारी को दर्शाया। गोस्वामी तुलसीदास की रचना रूद्राष्टकम में शिव के रूप को उन्होंने चित्रित किया। यह राग रागेश्वरी और बागेश्वरी में निबद्ध था। उन्होंने धमार ताल में पखावज के बोलों पर वीर रस का अंदाज दर्शाया।

Wednesday, January 1, 2020

आज नया सूरज

आज नया सा सूरज लगा
मैंने हथेली की ओट कर
देखा था
समय काफी बीत चूका था
नीले आसमान में
उड़ते कबूतर के जोड़े  थे 
मेरी  स्मृति  में
वही बात आई
तुम्हारी यादों की पोटली
सिराहने रखती हूँ
उसे ही ओढ़ती हूँ
और बिछाती  हूँ
उन्ही को बांटती हूँ
बातचीत के जरिये
और उन्ही के बीज बोती हूँ
क्यारिओं में मेथी दाने की तरह
कुछ मीठे, कुछ कड़वी यादों को
संभाले रखना चाहती हूँ
कहीं कोई खोल न दे
कहीं कोई बिखेर न दे
कभी-कभी सोच कर डरती हूँ
सच, कहा कान्हा !
यादों के सहारे जिंदगी बीत जाती है
बरस और बरस ....
तुम्हारी मुरली की धुन
सुन-सुन गुनती हूँ
कुछ सुख और दुःख की बातें
यही यादें सौंप कर
उड़ जाता है
कबूतर का वह जोड़ा
अनंत आसमान में