करीब दो-एक साल पहले राजधानी दिल्ली में विदुषी गिरिजा जी आई हुईं थी। मैं यूँ ही बैठी उनकी बातें सुन रही थी। उनकी आवाज़ जितनी सुरीली है बातें और भी सुरीली हैं। उनके वह बातचीत का बनारसी अंदाज और भी लुभाता है। उन्होंने संस्कारों के बारे में कहा कि हमारे संस्कार हमारे जड़ हैं। इन्हें सींचना जरुरी है। यदि जड़ मजबूत होगी तभी पेड़ सुफल देने वाला होगा। आपको मालूम है कि हमारे नन्हें-नन्हें बच्चे हमारी नई पौध हैं .इनको अपनी संस्कृति से संस्कारवान बनाना बहुत जरुरी है।
बात आगे बढती गई तो बात आज के पहनावे खास तौर लड़कियों के पर आई .वह हंसती हुई बोली अब यह विषय तो बहुत गंभीर है . आज ऐसे लगता है कि बाज़ार ही सब कुछ तय करने लगा है , वो जो बाज़ार में आया सब बिना सोचे-विचारे खरीद-पहन रहें हैं। इसलिए, लोगों को किसी की तरफ देखने का भी वो लालसा नहीं रही जो पहले होती थी। अब पहले दुल्हन आती थी , एक घूँघट यानि नज़र का पर्दा होता था। डोली में आती थी, उसके पैर तक देख कर रंग का अंदाज लगाया जाता था . घर-बाहर के लोगों में दिलचस्पी और कौतुहल होता था फलां की बहु कैसी है . अब तो शादी से पहले ही वरमाला के समय ही आप उसे देख लेते हैं। फिर मज़ा कहाँ रह जाता है . ऐसे ही जब इतने खुले रहने लगेंगे तो पश्चिम या अन्य देश जिस वेश-भूषा से आपको जानते हैं कैसे जानेंगे या आप उनको अपना कौन-सा आदर्श पेश कर पाएंगे।
खैर! जैसे सब बातें आई-गई हो जाती हैं , मेरे ध्यान से भी उतर गया . लेकिन कुछ बातें मन में गहरी बैठ जाती हैं। हमें अपने गाँव की गरमी छुट्टियों में जाना याद आया। छुटपन में हर साल हमें गाँव में डेढ़-दो महीने बिताने का समय मिलता था . वहां चचेरे-फुफेरे भाई-बहनों की टोली के साथ खूब मस्ती होती। कभी नदी में नहाने , कभी खेत से तरबूज-खरबूज लेने , कभी शहतूत तोड़ने , कभी बेल-आम तोड़ने की योजना बनती . किसी को पता चलता की पड़ोस की काकी के यहाँ नई बहु आई है तो उसे बिना घूँघट के और अच्छी तरह देखने की बाजी लग जाती. हम दही मांगने के बहाने या किसी को ढूढने के बहाने उनके घर आते-जाते, और उस नव-वधू को सारे दिन परेशान किये रहते। लेकिन, वह भी बहुत फुर्तीली और सजग रहती। वह हमारे आहट को सुन लेती। वह कभी कभी पूरे चेहरे को पल्लू से ढँक लेती तो कभी एक कोने को दांतों तले दबा लेती .
आज जब उन अंदाजों को कत्थक सम्राट बिरजू महाराज के घूँघट की गतों में देखती हूँ , तो लाज-शर्म-हया के वो नाजुक पल याद आ जाती हैं . आधुनिक समाज उस आनंद को शायद दकियानूसी या कोई और नाम भले दे . पर घूँघट के पट का वो आनंद तो उन गीतों में महसूस किया जा सकता है कि राधा न बोले-न बोले रे , घूँघट के पट न खोले रे ......