#आज का कलाकार@ शशिप्रभा तिवारी
गुरु मौन प्रकाश है-ज्योति श्रीवास्तव
पिछले दिनों जयदेव उत्सव का आयोजन संचारी फाउंडेशन की ओर से किया गया। यह दो दिवसीय आयोजन एक और दो मई 2025 कां था। इंडिया हैबिटैट सेंटर में आयोजित उत्सव का समापन ओडिसी नृत्यांगना ज्योति श्रीवास्तव के नृत्य से हुआ। उन्होंने देवप्रसाद शैली का अनुसरण करते हुए, अभिनय से पगा नृत्य पेश किया। उनकी पहली पेशकश प्रोषितभर्तृका नायिका थी। उनका नृत्य अष्टपदी-‘विहरति वने राधा साधारणप्रणये‘ पर आधारित थी। यह रचना राग मिश्र काफी और जती ताल में निबद्ध थी। दूसरी प्रस्तुति अष्टपदी ‘रती सुख सारे गतम् अभिसारे‘ थी। इसमें वासकसज्जा नायिका के भावों को दर्शाया।
ओडिसी नृत्यांगना ज्योति श्रीवास्तव देश की जानीमानी ओडिसी नृत्यांगना हैं। उन्होंने गुरु दुर्गा चरण रणबीर और गुरु श्रीनाथ राउत की नृत्य रचनाओं को परंपरागत अंदाज में पेश किया। उन्होंने अभिनय में नायिका राधा और नायक कृष्ण के भावों को बहुत परिपक्वता और सुघड़ता से निभाया। उन्होंने नेत्रों, मुख और हस्तकों के जरिए एक एक बारीकी को खूबसूरती से उकेरा। अष्टपदी में राधा और कृष्ण के अलौकिक प्रेम का वर्णन है। देवप्रसाद ओडिसी नृत्य शैली में गुरुओं का मानना है कि राधा और कृष्ण दोनों एक हैं। राधा प्रकृति के हर अंश में कृष्ण का दर्शन करती है। नायिका राधा का विशेष प्रकृति प्रेम ही नृत्यांगना ज्योति के अभिनय में रूपायित होता दिखा। उनका अभिनय स्थूल से सूक्ष्म या द्वैत से अद्वैत को परिभाषित करता प्रतीत हुआ। इसमें नृत्य, गुरु और कला के प्रति समर्पण भाव का योगदान है, क्योंकि लंबे समय तक अपने नृृत्य कला को संजोकर रखना कलाकार के लिए एक चुनौती होती है। यह लगातार अभ्यास और कला के प्रति विशेष लगाव से ही संभव है। वास्तव में, अभिनय की सूक्ष्मता में अपने गुरु की शैली की शुद्धता कायम रखना आज के समय कलाकारों के लिए बड़ी जिम्मेदारी है। यही उनकी विशेषता भी है।
गौरतलब है कि पिछले दिनों उनके गुरु दुर्गा चरण रणबीर पùश्री से सम्मानित हुए। गुरु को सम्मान मिलना एक शिष्य के लिए गौरव का विषय होता है। इस बात को ओडिसी नृत्यांगना ज्योति श्रीवास्तव भी मानती हैं। और इसी मद्देनजर उन्होंने गुरु के सम्मान में इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में रात्री भोज का आयोजन किया। इस सम्मान मिलन समारोह में राजधानी दिल्ली की कई नृत्यांगनाएं शामिल हुईं। इस अवसर पर गुरु दुर्गा चरण रणबीर, उनकी पत्नी और नृत्यांगना पुत्री भी उपस्थित थे।
अपने गुरु के बारे में ज्योति कहती हैं कि गुरु जी के लिए ज्ञान सर्वोपरि रहा है। नृत्य के सैद्धांतिक, प्रायोगिक और रचनात्मक पक्ष सभी में उनका ज्ञान अद्वितीय है। वह संपूर्ण कला मर्मज्ञ हैं। मैं बचपन से ही उनसे नृत्य सीखी और आज भी उनके सान्निध्य में हूं। मैं अपनी सीनियर फेलोशिप का शोधकार्य उन्हीं के मार्ग दर्शन में पूरा कर रही हूं। मेरा सौभाग्य है कि गुरु मां का प्रेम मेरे प्रति अगाध है। मेरे पिता के न रहने के बाद पिता का प्यार और स्नेह मुझे गुरु जी से ही मिला।
ओडिसी नृत्यांगना ज्योति आगे कहती हैं कि गुरु के ज्ञान से पूरा जगत प्रकाशित होता है। आज मैं जो कुछ भी हूं, उसका पूरा श्रेय गुरु जी को ही जाता है। गुरु कृपा कई जन्मों के सुकर्म का फल होता है। हम अपनी संतान के जन्म के साथ ही उसके पालन पोषण में अपना सर्वस्व न्योछावर करते हैं। लेकिन कला जगत में गुरु को तो हम जानने के बाद ही उनसे जुड़ते हैं। उनको स्वीकार करते हैं। गुरु का सम्मान हम नहीं करते, तो यह कला के साथ बेईमानी है। गुरु के प्रति प्रेम, गुरु की सीख, गुरु की डांट, उनके द्वारा दी गई सजा, सब कुछ गुरु का प्रसाद है। उसे इसी रूप में हम ग्रहण करते हैं। तभी गुरु शिष्य का संबंध प्रगाढ़ बन पाता है। गुरु से जुड़कर ही हम कला के पथ के पथिक बन पाते हैं क्योंकि हमारी कलाएं अध्यात्मिक हैं। इसे अपनाने से पहले हमें भक्ति और अध्यात्म भाव से खुद को परिपूर्ण करना जरूरी है। गुरु दीपक की तरह है। दीपक कुछ बोलता नहीं है। दीपक मौन रहता है, उसका प्रकाश ही उसका परिचय देता है। सफल व्यक्ति कभी खुद को उजागर नहीं करते, बल्कि उनकी उपलब्धियां उन्हें उजागर करती हैं। गुण या कला या हुनर ही गुरु का प्रकाश है, जो शिष्यों के भी ज्योतिरूप में प्रकाशित होता है।
ओडिसी नृत्यांगना ज्योति आगे कहती हैं कि गुरु के ज्ञान से पूरा जगत प्रकाशित होता है। आज मैं जो कुछ भी हूं, उसका पूरा श्रेय गुरु जी को ही जाता है। गुरु कृपा कई जन्मों के सुकर्म का फल होता है। हम अपनी संतान के जन्म के साथ ही उसके पालन पोषण में अपना सर्वस्व न्योछावर करते हैं। लेकिन कला जगत में गुरु को तो हम जानने के बाद ही उनसे जुड़ते हैं। उनको स्वीकार करते हैं। गुरु का सम्मान हम नहीं करते, तो यह कला के साथ बेईमानी है। गुरु के प्रति प्रेम, गुरु की सीख, गुरु की डांट, उनके द्वारा दी गई सजा, सब कुछ गुरु का प्रसाद है। उसे इसी रूप में हम ग्रहण करते हैं। तभी गुरु शिष्य का संबंध प्रगाढ़ बन पाता है। गुरु से जुड़कर ही हम कला के पथ के पथिक बन पाते हैं क्योंकि हमारी कलाएं अध्यात्मिक हैं। इसे अपनाने से पहले हमें भक्ति और अध्यात्म भाव से खुद को परिपूर्ण करना जरूरी है। गुरु दीपक की तरह है। दीपक कुछ बोलता नहीं है। दीपक मौन रहता है, उसका प्रकाश ही उसका परिचय देता है। सफल व्यक्ति कभी खुद को उजागर नहीं करते, बल्कि उनकी उपलब्धियां उन्हें उजागर करती हैं। गुण या कला या हुनर ही गुरु का प्रकाश है, जो शिष्यों के भी ज्योतिरूप में प्रकाशित होता है।
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