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Thursday, February 20, 2020

सत्रीय नृत्य का अखिल भारतीय विस्तार जरूरी है




                                             सत्रीय नृत्य का अखिल भारतीय विस्तार जरूरी है
                                              -अन्वेषा मोहंता

अन्वेषा मोहंता गुरू घनाकांत बोरा की शिष्या हैं। अन्वेषा देश-विदेश में सत्रीय नृत्य पेश करती रही हैं। उन्हें उस्ताद बिस्मिल्ला खां युवा पुरस्कार और भारत कला रत्न सम्मान मिल चुके हैं। कल यानि 20 फरवरी को खजुराहो नृत्य समारोह में सत्रीय नृत्य के गुरू जतीन गोस्वामी कालिदास सम्मान से मध्य प्रदेश सरकार ने सम्मानित किया है। उसी के मद्देनजर सत्रीय नृत्य  कलाकार अन्वेषा मोहंता रूबरू हो रहे हैं-शशिप्रभा तिवारी

आपका सत्रीय नृत्य से परिचय कैसे हुआ?

अन्वेषा मोहंता -मैंने बचपन से ही सत्र और सत्रीय नृत्य के वातावरण हो देखा है। यह बहुत पवित्र कला थी। छुटपन में भावना यानि सत्रीय नाटक देखती थी। इसके कलाकार बहुत समर्पित भावना से अभिनय करते हैं। उनमें समर्पण भाव बहुत ज्यादा होता है। मेरे लिए सत्रीय मेरा जीवन और भगवान के प्रति समर्पण है। कलाकार आंख बंद करते हुए, नामघर में घुसते हैं, खुद को गुरू के आसन के प्रति समर्पित कर देते हैं। बाद में, मुझे पता चला कि यह सत्र की परंपरा है।

आप अपने पारिवारिक पृष्ठभूमि के बारे में बताईए?
अन्वेषा मोहंता -हमारे पूर्वज सत्र से जुड़े हुए हैं। हमलोग शिवसागर जिले के कंुवरपुर गांव में रहते थे। फिलहाल तो गुवाहाटी में रहते हैं। जो रीति-रिवाज सत्र में होते हैं, वही हमारे घर में भी निभाई जाती है। हमारे दादाजी सत्राधिकारी थे। हमने सत्र की परंपरा अपनी दादी मां से सीखा। वह हम बच्चों को कीर्तन सिखाती थीं। उन्होंने ही सिखाया कि शंख, नगाड़ा या झाल बजता है, उस समय किस तरह बैठना है। वह सब देखते-समझते अपने-आप ही समर्पण भाव जाग जाता है। इसके लिए अलग से प्रयास करने की जरूरत नहीं पड़ती। दादी सत्र के ग्रंथों को पढ़ती थीं और हम सुनते थे। हम सुनते-सुनतते याद किया और वो धीरे-धीरे हमारे तन-मन का हिस्सा बन गया। कीर्तन के समय की प्रार्थना का असर दिलो-दिमाग पर बहुत ज्यादा होता है।

आप किस सत्र से जुड़ी हुई हैं?
अन्वेषा मोहंता -हमलोग पालनाथ सत्र के साथ संबंधित हैं। साल में सात-आठ बार, विशेष अवसरों पर तो हमलोग सपरिवार शिवसागर चले ही जाते हैं। वहां सत्र में सभी भक्तगण जुटते हैं। सभी गाते हैं, सभी भाव करते हैं। दादाजी की पुण्यतिथि और बिहू के अवसर पर हम शिवसागर जरूर जाते हैं। सत्र में ‘भावना‘ की प्रस्तुति मुझे बहुत आकर्षित करता है। वहां वही आदमी शाम को नामघर में अभिनय करता है, अगले दिन सुबह उसे ही खेत में किसानी करते देखती हूं। इस उम्र में सोचती हूं कि एक-एक इंसान को कितने किरदार निभाने पड़ते हैं। एक भावना रात को आठ बजे रात को शुरू होती है और सुबह पांच बजे खत्म होती है। कथावाचन, किरदार का इन्वाॅल्वमेंट ऐसे छूता है।



आप अपने गुरूजी के बारे में कुछ बताईए?
अन्वेषा मोहंता 
मैं गुरुजी के सानिध्य में छह साल की उम्र से हूं। एक बार गुरुजी को नृत्य करते देखा, उनसे पूछा कि आप ही कृष्ण थे? उनका जवाब था-वो तो मेरे साथ रहते हैं। क्या तुम कृष्ण के साथ नृत्य करोगी। इस तरह गुरुजी के साथ एक दोस्ताना रिश्ता बन गया। वह मेरे पिता की तरह मेरी हर बात समझते हैं, जो मैं उन्हें बताना चाहती हूं। आमतौर पर, गुरु काफी स्ट्रिक्ट होते हैं। पर सौभाग्य से मेरे गुरुजी बहुत ही सरल और सहज हैं। नृत्य के किसी स्टेप में बैठना है। तो उस के पीछे के भाव, आशय और तात्पर्य को वह बहुत गंभीरता से समझाते हैं। मुझे लगता है, जब तक गुरुजी का सानिध्य है, मैं नृत्य सीखती रहूंगी।
करीब दस साल सीखने के बाद भी, आज भी जब मुझे समय मिलता है। मैं गुरुजी के पास चली जाती हूं। गुरुजी के साथ-साथ टैªवल करते-करते मैंने बहुत सीखा है। मैंने कभी एक घंटे जाकर, सिर्फ क्लास करके नृत्य नहीं सीखा है। मैं गुरुजी के पास घंटों बैठकर साहित्य की चर्चा करते हैं। संगीत के बारे में बात होती है। सत्र के जीवन के बारे में समझने की कोशिश करते हैं।

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