संगीत के सुरों का संगत और पंडित राजेंद्र प्रसन्ना
शशिप्रभा तिवारी
पंडित राजेन्द्र प्रसन्ना बनारस घराने के बंासुरी और शहनाई वादक हैं। उन्हें अपने पूर्वजों से बंासुरी वादन की कला विरासत में मिली है। पर अपनी लगन और प्रतिभा के बल पर उन्होंने पारिवारिक विरासत को संजोया है। पंडित राजेन्द्र प्रसन्ना ने अपने पिता पंडित रघुनाथ प्रसन्ना और चाचा पंडित भोलानाथ व पंडित विष्णु प्रसन्ना से बंासुरी की बारीकियों को सीखा। बंासुरी में गायकी अंग को समाहित करने के लिए उन्होंने रामपुर सहसवान घराने के उस्ताद हाफिज अहमद और उस्ताद सरफराज हुसैन खंा साहब से तालीम ली।
वह अपने घर की परम्परा के बारे बताते हुए, कहते हैं कि हमारे पूर्वज कूचबिहार के दरबार के कलाकार थे। वहंा वो लोग नौबत खाने में शहनाई बजाते थे। पर मेरे पिताजी को ऐसा लगा कि शहनाई में वो इज्जत नहीं मिलेगी, जिसकी उन्हें उम्मीद थी, सो उन्होंने बासुरी बजाना और सिखाना शुरू किया। उन्होंने अपने छोटे भाई भोलेनाथ और पंडित रोनू मजूमदार के पिता भानु मजूमदार को सिखाया। बाद में, उन्होंने शिष्यों को तालीम देना अपना मुख्य ध्येय बना लिया। एक समय था, जब बंासुरी वादन के क्षेत्र में मेरे पिताजी और पंडित पन्ना लाल घोष का नाम था।
पंडित राजेन्द्र प्रसन्ना आगे कहते हैं कि मुझे शहनाई बजाना मेरे दादाजी ने सिखाया। पर 70 के दशक में मैंने बंासुरी बजाना शुरू किया। पिताजी से सीखने का मौका कम मिलता था क्योंकि वो मुम्बई में रहते थे और मैं बनारस में। वह चार सौ रूपए भेज देते थे, उससे घर का खर्च मुश्किल से चलता था। मुझे याद है कि मैंने सात साल की उम्र से ही शादी-व्याह के मौके पर शहनाई बजाता था। इससे माताजी को घर चलाने के लिए कुछ मदद मिल जाती थी। आठ साल की उम्र में कलकŸो में बालकलाकारों के संगीत उत्सव में पहली बार बजाया था। उस समय मुझे चाॅकलेट मिला था। उस वक्त मैंने पहली बार चॅाकलेट देखी थी। उस समारोह में मुझे मेरे चाचाजी लेकर गए थे।
वह अपना आदर्श पंडित रविशंकर और उस्ताद अमजद अली को मानते हैं। वह एक वाकया को याद करते हुए, कहते हैं सन् 2002 में पंडित रवि शंकर के साथ लंदन में काम करने का मौका मिला। वह समारोह राॅयल अलबर्ट हॅाल में आयोजित था। प्रोग्राम से पहले सात दिनों का रिहर्सल चला। सुबह ग्यारह बजे से रिहर्सल शुरू होती थी, पर पंडित रविशंकर हम कलाकारों से पहले ही वहां पहँुच जाते थे। उनका वह अनुशासन काफी प्रेरणादायी लगा। बाद म,ें उस वीडियो को प्रतिष्ठित ग्रैमी अवार्ड मिला।
गुरू-शिष्य परम्परा के बारे बताते हुए पंडित राजेन्द्र प्रसन्ना कहते हैं कि आजकल के बच्चे सीखना तो चाहते हैं, पर उन्हें नाम कमाने के लिए जल्दीबाजी रहती है। गुरू और बुजुर्गों की दुआ से बेसुरा भी सुर में हो जाता है। दुआओं से ही कला फलीभूत होती है। गुरूओं की फटकार से कलाकार अपनी कला को माँजता है। माँ-बाप और गुरू की बददुआ से कला खत्म हो जाती है।
पंडित राजेन्द्र प्रसन्ना के तीन बेटे हैं।उन्होंनेे भी उनसे तालीम ली है। वह कहते हैं कि मेरे बच्चों ने काॅलेज की पढाई की है। वे लोग मेहनत करें तो अच्छा कर सकते हैं। संगीत में रियाज सबसे जरूरी है। खानदानी संगीत भी बिना रियाज के टिक नहीं सकता। अगर कलाकार रियाज नहीं करेंगें तो मनचाहा स्वर नहीं निकाल पाएँगें। शहनाई वादकों की देश को बेहद जरूरी है, क्योंकि शहनाई सम्राट बिस्मिल्ला खंा के जाने के बाद इस क्षेत्र में शून्यता आ गई है। अपनी बहुमूल्य विरासत को संजोए रखने का दायित्व युवाओं पर है।
बांसुरी सीखने के बारे में वह कहते हैं कि छोटे बच्चों की तालीम की शुरूआत सरगम के साथ शुरू होती है। उसके बाद, तीव्र ‘मध्यम‘ वाले राग को प्राथमिकता दी जाती है। पहला राग ‘यमन‘ मैं सिखाता हँू। इसके बाद दूसरा राग भैरवी ली जा सकती है। लेकिन कायदे से राग को सीखने में एक शिष्य को एक या दो साल लग जाते हैं। यदि एक शिष्य अच्छे से एक राग को सीख ले तो उसे दूसरे राग को सीखने में देर नहीं लगती।
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