महात्मा गांधी से प्रेरणा मिलती है-गीता चंद्रन
महात्मा
गांधी से लोगों को
प्रेरणा मिलती है। गांधीजी जो अब भी
राह दिखाते हैं। उनकी बातें, उनका जीवन, उनकी रचनाएं, उनका पहरावा, सब कुछ हमें
प्रभावित करता है। इसी के मद्देनजर भरतनाट्यम
नृत्यांगना गीता चंद्रन से बातचीत करने
का अवसर मिला। आज उन्हीं के
विचार उन्हीं की जुबानी अपने
ब्लाॅग में प्रस्तुत कर रही हूं।
आशा है, आपलोगों को पसंद आएगा।
एक नजर डालिएगा जरूर। डालेंगें न!-शशिप्रभा तिवारी
गांधीजी का
नाम जुबान पर आते ही, मेरा मस्तक नतमस्तक हो जाता है। उनकी घुटने से उपर तक की धोती,
नंगे बदन, चमड़े के चप्पल, चादर ओढ़े और आंखों पर गोल फ्रेम वाला चश्मा यह रूप आंखों
के सामने से सहज ही गुजर जाता है। मन में श्रद्धा के भाव उमड़ने लगते हैं। तब मेरे होठों
पर शब्द नहीं आ पाते। सिर्फ, सोचती हूं कि उन्होंने मानव, प्रकृति, देश, विश्व को दिया
और आजीवन देते रहे। कभी किसी से किसी चीज की शिकायत किए बिना। कभी मौन रहकर, कभी उपवास
कर, कभी आंदोलन का नेतृत्व कर, कभी सेवा तो कभी अपने चरखे के जरिए, उन्होंने शांति,
सह-अस्तित्व, बंधुत्व, मैत्री, सहयोग, आत्मनिर्भरता आदि का संदेश दिया।
दरअसल, मेरे
पिताजी गांधीवादी थे। वह गांधीजी के बारे में अक्सर हमलोगों के बीच चर्चा करते थे।
उन्होंने गांधीजी दर्शन को अपने जीवन में भी अपना रखा था। जैसे-अपने ज्यादा-से-ज्यादा
काम खुद करना और लोगों की सेवा करना। वैसे तो मैंने गांधीजी के बारे में भारतीय इतिहास
को पढ़ते हुए जाना। लेकिन, कुछ साल पहले मुझे एक इंटरनेशनल काॅन्फ्रेंस के लिए गांधी
के बारे में कोरियोग्राफी करने को कहा गया था। उस दौरान मैंने गांधीजी के बारे में
कई किताबें पढ़ीं। ताकि, उनके जीवन के बजाय उनके दर्शन को लोगों तक पहंुचा सकूं। उस
दौरान मुझे गांधीजी की महान दर्शन से अवगत होने का अवसर मिला।
मुझे लगता
है कि गांधीजी के कथनी और करनी में गजब की साम्यता थी। वह लोगों को उपदेश देकर, निर्देश
नहीं देते थे। बल्कि, अपने काम के जरिए प्रायोगिक और व्यावहारिक तौर पर समझा देते थे।
उनके विचारों के मूल में सत्याग्रह अहिंसा, अछूतोत्द्धार, आत्मनिर्भरता, खादी और महिला
स्वातंत्र था। लगभग सौ साल पहले उन्होंने जो चीजें, जो विचार, जो सिद्धांत हमें दिया,
उस पर अगर सच में, हमारा देश चल पाया होता तो आज हमारे सामने बहुत-सी समस्याएं नहीं
होतीं। क्योंकि आधुनिक विकास के बजाय उन्होंने व्यक्तित्व विकास पर ज्यादा जोर दिया
था।
सर्व धर्म
प्रार्थना की परिकल्पना बहुत अनूठी थी। वह धार्मिक सहिष्णुता के बजाय धार्मिक विश्वास
को उन्होंने महत्व दिया। प्रार्थना में वह खुद बैैठते थे, खुद गाते थे, सभी धर्मों
का साहचर्य होता था। वहां टाॅलरेट करने की बात नहीं, बल्कि सबकी स्वीकार्यता थी। वह
सिर्फ एक रिचुअल भर नहीं था। वह प्रार्थना सभा मानवता को कितना बड़ा संदेश था कि हम
सब एक हैं, हम एक साथ मिलकर ध्यान कर सकते हैं, क्योंकि उस परब्रम्ह के पास पहंुचने
का रास्ता सबका एक ही है। सिर्फ तरीके अलग-अलग हैं। आज जहां हर शहर, हर राज्य यहां
तक कि हर देश धर्म को लेकर, इतना उग्र हो जाता है, वहां गांधीजी को अपनाकर हम इन समस्याओं
से आसानी से निजात पा लेते। पर, हम अपने बीच के महात्मा को आत्मसात करने में बहुत देर
कर देते हैं।
अस्पृश्यता
निवारण के साथ, उन्होंने हाथों से मल सफाई किए जाने का विरोध किया। हालांकि, दशकों
बाद भी बहुत से कस्बों और गांवों अभी यह प्रथा जारी है। यह मानवता की अस्मिता के लिए
दुखद है। हमारे समाज में अस्पृश्यता की भावना कई स्तरों पर आज भी विद्यमान है। मुझे
लगता है कि हमारे भीतर से या दिमाग से कई स्तरों पर छूआछूत की भावना है। जबकि, गांधीजी
मैलो ढोने वालों की मानवीय गरिमा को कायम करने के लिए लगातार प्रयास करते रहे। इसके
मद्देनजर वह स्वयं या कस्तूरबा बाई से वाशरूम साफ करते या करवाते थे। स्वच्छता और स्वास्थ्य
के बारे में वह बार-बार चर्चा करते थे। लेकिन, यह नैतिक कर्तव्य हमारा समाज आज तक पूरी
तरह अपना नहीं पाया हैं। इसके लिए हम दोषी किसे ठहरा सकते हैं कि सिर्फ गंदगी और कूड़े
के ठीक से निस्तारण नहीं किए जाने से लाखों लोग हर साल डेंगू-मलेरिया-चिकनगुनिया जैसी
बीमारियों से ग्रस्त होकर काल के मुंह में चले जाते हैं। जबकि, छोटा-सा हमारा पड़ोसी
देश श्रीलंका इन बीमारियों से मुक्त है।
शहर, कस्बे
और अब हमारे गांव भी गारबेज मैनेजमेंट की समस्या से जूझ रहे हैं। जबकि, हम इस मामले
में आत्मनिर्भर थे। हमारे घरों में ही कचरे को अलग-अलग तरीके से निस्तारित कर लिया
जाता था। हमारे संस्कार में था। आज वह हमारे सेमिनारों का विषय बन रहा है-गारबेज मैनेजमेंट।
एक सामान्य सा उदाहरण है-हम लोग पके हुए कटहल को खाते हैं। उसके गूदे को खाया जाता,
उसके बीज की सब्जी बन जाती और छिलके को गाय खा जाती थी।
वास्तव में,
खादी के जरिए हाथ से अपने काम करने और स्वावलंबन का महत्व गांधीजी ने स्थापित किया
था। हम अपने काम खुद अपने हाथों से करते हैं, तब हम खुद से जुड़ते हैं। अपनी प्रकृति,
पर्यावरण, मिट्टी के साथ संबंध और जुड़ाव स्थापित करते हैं। लेकिन, आज दुखद स्थिति है
हि हमारे बच्चे या युवा अपने काम खुद नहीं करना चाहते। वह हाथों के हुनर से महरूम होते
जा रहे हैं। हम त्योहारों पर अपने घरों में मिठाइयां वगैरह बनाने से बचने लगे हैं।
ऐसे में बाजारवाद हम पर स्वाभाविकतौर पर हावी हो रहा है। हम बाजार से खरीदकर अपना काम
चला लेते हैं। इस तरह बच्चों में खुद से काम करने की प्रवृति ही नहीं आ रही। इसके लिए
हमलोग और हमारा समाज ही जिम्मेदार होगा। जबकि, हमारे हर प्रदेश, हर शहर में अलग-अलग
व्यंजन, वेशभूषा, आभूषण लोग बनाते और पहनते हैं। पर अब धीरे-धीरे माॅल कल्चर ने वह
सब हाशिए पर कर दिया है। गांधीजी ने एक सदी पहले ही हमें चेताया था, लेकिन, हमलोग कहां
जाग पाते हैं।
आज के दौर
में रही-सही कसर मीडिया ने पूरी कर दी है। गांधीजी भी लिखते थे, हर विषय पर अपने विचारों
को रखा। हरिजन अखबार का संपादन किया। अपनी जीवनी लिखी। मुझे उनकी किताब ‘एक्सपरिमेंट
विद टूथ‘ बेहद पसंद है। मैंने इसे कई बार पढा।
इसके जरिए अपने जीवन के सत्य को उजागर किया। उनके विचारों को सबसे बेहतर तरीके से हम
तीन बंदर के माध्यम से जानते हैं, जिसमें बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोला।
यानि अपने इंद्रियों पर एक नियंत्रण करने की बात उन्होंने की। लेकिन, आजकल हम टीवी
चैनलों पर व्यर्थ का संवाद सुनते हैं। इसमें किसी की कोई मर्यादा नहीं रही है। ऐसा
लगता है कि शब्दों के वाण से आक्रमण किया जा रहा है। यह लोग भूल गए हैं कि एब बार शब्द
तीर की तरह छूट जाते हैं, वो वापस नहीं लौट सकते। हम अच्छी चीजों को देखना-सुनना ही
भूल गए हैं। हम प्रकृति के सानिध्य में सूर्याेदय के सूर्य, सूर्यास्त के सूर्य, चांदनी
रात, पूर्णिमा और आमवस्या की रातों का आनंद लेना भूल गए हैं। हम टीवी, मोबाइल और दूसरे
गैजेटॅस तक सीमित रह गए हैं।
महात्मा गंाधी,
विवेकानंद, भारती, भगत सिंह, चंद्रशेखर जैसे रोल माॅडल आज हमारे सामने नहीं प्रस्तुत
किए जाते हैं। एक अजीब-सी रिक्तता है, चारों ओर। एक ऐसा संक्रमण काल जो बहुत चिंताजनक
है। आदर्शों के अभाव में हमारे युवा अपनी संस्कृति पर गौरवान्वित महसूस नहीं कर पाते।
गांधीजी ने धोती को धारण किया। उससे सांस्कृतिक पहचान कायम किया। एक दृढ-विश्वास के
साथ उन्होंने अपने संस्कार पर गर्व करना सिखाया। आज हमारी युवा पीढ़ी संदेह में है।
क्योंकि, उनके सामने गांधीजी जैसा आदर्श व्यक्तित्व नहीं है। उन्हें विश्व इतिहास का
पता है, पर हमारे देश में यक्षगान की परंपरा क्या है? नहीं मालूम। इतना ही नहीं, वह
विदेशी भाषा तो सीख रहे हैं, पर हिंदी और संस्कृत के प्रति उदासीन है। कभी-कभी सोचती
हूं तो मन आग्रही होकर, कह उठता है-गांधीजी फिर एक बार अवतरित होकर, हमें राह दिखा
दिजीए। कभी मौन रहकर, कभी उपवास कर, कभी आंदोलन का नेतृत्व कर,
कभी सेवा तो कभी अपने
चरखे के जरिए, उन्होंने
शांति, सह-अस्तित्व, बंधुत्व,
मैत्री, सहयोग, आत्मनिर्भरता आदि का संदेश दिया।
उनके विचारों के मूल में
सत्याग्रह अहिंसा, अछूतोत्द्धार, आत्मनिर्भरता, खादी और महिला स्वातंत्र
था। लगभग सौ साल पहले
उन्होंने जो चीजें, जो
विचार, जो सिद्धांत हमें
दिया, उस पर अगर
सच में, हमारा देश चल पाया होता
तो आज हमारे सामने
बहुत-सी समस्याएं नहीं
होतीं। क्योंकि आधुनिक विकास के बजाय उन्होंने
व्यक्तित्व विकास पर ज्यादा जोर
दिया था।
सर्व
धर्म प्रार्थना की परिकल्पना बहुत
अनूठी थी। वह धार्मिक सहिष्णुता
के बजाय धार्मिक विश्वास को उन्होंने महत्व
दिया। प्रार्थना में वह खुद बैैठते
थे, खुद गाते थे, सभी धर्मों का साहचर्य होता
था। वहां टाॅलरेट करने की बात नहीं,
बल्कि सबकी स्वीकार्यता थी। वह सिर्फ एक
रिचुअल भर नहीं था।
वह प्रार्थना सभा मानवता को कितना बड़ा
संदेश था कि हम
सब एक हैं, हम
एक साथ मिलकर ध्यान कर सकते हैं,
क्योंकि उस परब्रम्ह के
पास पहंुचने का रास्ता सबका
एक ही है। सिर्फ
तरीके अलग-अलग हैं। आज जहां हर
शहर, हर राज्य यहां
तक कि हर देश
धर्म को लेकर, इतना
उग्र हो जाता है,
वहां गांधीजी को अपनाकर हम
इन समस्याओं से आसानी से
निजात पा लेते। पर,
हम अपने बीच के महात्मा को
आत्मसात करने में बहुत देर कर देते हैं।
गांधीजी
ने कितने सारे आंदोलनों का नेतृत्व किया,
लेकिन अहिंसा और सत्य के
दम पर। जबकि, आज किसी भी
बात पर हमारा समाज
उग्र हो जाता है।
हिंसा करने पर लोग उतारू
हो जाते हैं। क्या बस जला देने
या तोड़-फोड़ कर देने से
देश की सम्पति का
नुकसान करना सही है। उन्होंने पूरी मर्यादा के साथ विरोध
करने की प्रेरणा दी
है। यहां तक कि जेल
में अकेले रहते हुए, अपने समय का सदुपयोग किया।
यह सकारात्मकता के साथ-साथ
समय के सही उपयोग
का उदाहरण हमारे सामने वह प्रस्तुत करते
हैं। वह संदेश देते
हैं कि हमारे जीवन
का एक-एक क्षण
बहुत कीमती है। हमें उसका भरपूर उपयोग करना चाहिए। कठिन परिस्थितियों से घबराना नहीं
चाहिए। और हर समय
अपने सामने एक लक्ष्य रखना
और उसके कार्यान्वयन के लिए योजना
बनाना।
महात्मा
गंाधी, विवेकानंद, भारती, भगत सिंह, चंद्रशेखर जैसे रोल माॅडल आज हमारे सामने
नहीं प्रस्तुत किए जाते हैं। एक अजीब-सी
रिक्तता है, चारों ओर। एक ऐसा संक्रमण
काल जो बहुत चिंताजनक
है। आदर्शों के अभाव में
हमारे युवा अपनी संस्कृति पर गौरवान्वित महसूस
नहीं कर पाते। गांधीजी
ने धोती को धारण किया।
उससे सांस्कृतिक पहचान कायम किया। एक दृढ-विश्वास
के साथ उन्होंने अपने संस्कार पर गर्व करना
सिखाया। आज हमारी युवा
पीढ़ी संदेह में है। क्योंकि, उनके सामने गांधीजी जैसा आदर्श व्यक्तित्व नहीं है। उन्हें विश्व इतिहास का पता है,
पर हमारे देश में यक्षगान की परंपरा क्या
है? नहीं मालूम। इतना ही नहीं, वह
विदेशी भाषा तो सीख रहे
हैं, पर हिंदी और
संस्कृत के प्रति उदासीन
है। कभी-कभी सोचती हूं तो मन आग्रही
होकर, कह उठता है-गांधीजी फिर एक बार अवतरित
होकर, हमें राह दिखा दिजीए।
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