Popular Posts

Saturday, December 14, 2019

   



                             
                                    वर्तमान परिदृश्य और शास्त्रीय संगीत में राग-ताल के सौंदर्य

                                    शशिप्रभा तिवारी


शास्त्रीय संगीत में रस और सौंदर्य का समायोजन होता है। यह मन को छूता है। इसी के मद्देनजर दिल्ली विश्वविद्यालय की ओर से दो दिवसीय समारोह का आयोजन किया गया। इस आयोजन के दौरान संगीत के विद्वानों ने वर्तमान परिदृश्य और शास्त्रीय संगीत में राग-ताल के सौंदर्य पर परिचर्चा में भाग लिया। इसके अलावा, कुछ कलाकारों ने अपनी कला का प्रदर्शन किया।


समारोह के उद्घाटन सत्र में संगीत एवं कला विभाग की प्रमुख व डीन प्रो दीप्ती ओमचेरी भल्ला ने स्वागत भाषण दिया। इस दौरान दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो योगेश कुमार त्यागी, पूर्व राजनयिक चिन्मय गरेखान, संतूर वादक पंडित भजन सोपारी, सितार वादक पंडित देबू चैधरी मंच पर मौजूद थे।


उद्घाटन सत्र के दौरान सितार वादक पंडित देबू चैधरी ने कहा कि सौंदर्य और रस के बिना शास्त्रीय संगीत संभव ही नहीं है। हमारे गुरू उस्ताद मुश्ताक खां साहब कहते थे कि स्वर ईश्वर है, लय ज्ञान है, कर्म पथ है और ध्यान आत्मा है। जबकि, चिन्मय गरेखान ने अपने वक्तव्य में कहा कि हर कोई भीमसेन या अमीर खां नहीं हो सकता है। पर अपनी क्षमता के अनुकूल हर कलाकार को कोशिश करनी चाहिए। भारतीय संस्कृति तीन ‘स‘ यानि संस्कृति, संगीत और साड़ी से पूर्ण होती है। जबकि, पंडित भजन सोपोरी ने कहा कि अनहद नाद से शून्यता अथवा निराकार ब्रम्ह की अनुभूति होती है। यह शून्यता ही कुछ सूक्ष्म होता है तो विभाव, अनुभव और आनंद की अनुभूति देता है। इस परिचर्चा में भाग लेते हुए, पंडित अजय चक्रवर्ती ने कहा कि प्यार, विश्वास, श्रद्धा और समर्पण के बाद ही कोई सच्चा कलाकार बन सकता है।

अगले सत्र में शास्त्रीय गायन में राग और लय के सौंदर्य पर चर्चा विदुषी कृष्णा बिष्ट और पंडित अजय चक्रवर्ती ने किया। इस अवसर पर पंडित अजय चक्रवर्ती ने राग मालकौंस में रचना ‘आज की शुभ घड़ी‘ और ‘मेरे मन में बसो‘ को गाया। उन्होंने सरगम के सुर की साधना के अंदाज को भी पेश किया।








शाम की सभा में सरोदवादन पेश किया गया। इसे पंडित तेजंेद्र नारायण मजूमदार ने पेश किया। उनके साथ तबले पर पंडित रामकुमार मिश्र ने संगत किया। तेजेंद्र नारायण ने राग ललिता गौरी बजाया। इसमें मध्य लय की गत झप ताल में बजाया। उन्होंने राग पीलू बजाया। इसमें दो गतों को पेश किया, जो तीन ताल में निबद्ध थीं।


 अगले दिन वाद्य यंत्र में सौंदर्य विषय पर चर्चा हुई। इस सत्र में प्रो अनुपम महाजन, उस्ताद बहाउद्दीन डागर और पंडित भजन सोपोरी ने शिरकत किया। इस दौरानपंडित भजन सोपोरी ने कहा कि संगीत सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं है। यह भावपूर्ण होता है। यह अभिव्यक्ति की खूबसूरत प्रक्रिया है, जिससे साधक गुजरता है। उन्होंने भैरव थाट के राग बसंत मुखाारी को वादन के लिए चुना। राग बसंत मुखारी में विरह का करूण भाव है। यह कर्नाटक संगीत का लोकप्रिय राग है। उनके साथ तबले पर दुर्जय भौमिक और पखावज पर ऋषि उपाध्याय ने संगत किया। उन्होंने बंदिश ‘उठत जिया में हूक, सुनि कोयल के कूक‘ को संतूर पर बजाया। उन्होंने अत में तीन ताल में बंदिश को पेश किया।

संगीत विभाग की प्रो अनुपम महाजन ने सौंदर्य को परिभाषित करते हुए, कहा कि सौंदर्य भाव है जो हृदय के करीब हो। रागों के दो भाग बताए गए हैं-नादमई रूप एवं देवमई रूप। अभिनव गुप्त ने रस निस्पति के जरिए भाव अभिव्यक्ति की है। आज के परिप्रेक्ष्य में, जब कलाकार स्वतंत्र है, वह किस प्रकार अभिव्यक्ति पर बल दें।
इस सत्र में वीणा वादक उस्ताद बहाउद्दीन डागर का मानना था कि संगीत भगवान तक पहुंचने का मार्ग है। उन्होंने राग शुद्ध भैरवी बजाकर, राग के सौंदर्य को दर्शाया। उनके साथ पखावज पर पंडित डालचंद शर्मा ने संगत किया। पिताश्री की रचना ‘ए री जोबन तेरो‘ में सौंदर्य की दृष्टि से बदलाव किया जा सकता है। हालांकि, सबकुछ नियम में बंधे हैं। लेकिन, परंपरा का पालन करते हुए, हम इसमें बदलाव कर सकते हैं।

समारोह में संगीत विभाग के विद्यार्थियों ने वंदना पेश किया। इसका संचालन डाॅ पाश्र्वनाथ जी पाई किया। यह वंदना राग नाटई और आदि ताल में निबद्ध थी। दूसरे सत्र में ताल वाद्य के बारे में प्रो मुकंद भाले और पंडित सुरेश तलवरकर ने भाग लिया।  तबला वादक प्रो मुकंुद भाले ने अपने वक्तव्य में कहा कि ताल राग से भिन्न हैं। इसका सौंदर्य राग की तरह नहीं है। हम इसे ठेके, बंदिश के जरिए परिभाषित करते हैं।

अपने प्रदर्शन के क्रम में तालयोगी पंडित सुरेश तलवरकर ने रूपक ताल से वादन आरंभ किया। उन्होंने ठेके की बढ़त, पेशकार, फर्शबंदी की। उन्होंने अपने वादन में खाली-भरी तालों और आरोह-अवरोह को दर्शाया। सौंदर्य बंधन में होता है। नियमों में होता है। यह अतिआवश्यक है। इंसान शरीर, बुद्धि, मन और आत्मा के जरिए संगीत से जुड़ता है। कला मन से साधी जाती है। शरीर तंत्र क्रिया का सहभागी होता है। शास्त्र बजाया जाता है, विद्या दी जाती है और कला संस्कारों से आती है।

टप्पा गायन में राग एवं ताल के सौंदर्य के बारे में पंडित लक्ष्मण कृष्णराव और प्रो नजमा परवीन अहमद ने चर्चा की। पंडित लक्ष्मण राव ने कहा कि टप्पा गायन की स्वतंत्र शैली है। यह अत्यंत कष्टसाध्य है। पंजाबी भाषा में पाई जाती है। इसका जन्म पंजाब में हुआ और इस पर वहां के लोक गीत का प्रभाव है। टप्पा गाने के लिउ गले की लोच का उपयोग किया जाता है। इस समृद्ध गायकी का विस्तृत रूप है, जैसे-टप्पा तराने, टप्पा ठुमरी। बंगाल में इसे खुले मन से स्वीकार किया गया। यह वहां काफी प्रचलित हुआ।

उन्होंने पुरानी रिकार्डिंग सुनाकर, टप्पे गायन पर प्रकाश डाला। यह टप्पा आर्ता चक्रवर्ती का गाया हुआ था। पंडित लक्ष्मण कृष्णराव पंडित के साथ तबले पर सागर गुजराती, हारमोनियम पर विनय मिश्रा, तानपुरे पर आशिक कुमार व गायन पर आर्ता चक्रवर्ती मौजूद थे।

शाम की सभा में कर्नाटक संगीत में सौंदर्य के संबंध में मृदंगम वादक डाॅ टी भक्तवत्सलम ने जानकारी दी। उनके साथ सहयोगी कलाकार के तौर पर आर श्रीधर, एन पद्मनाभम, अनन्या, आदर्श, वीएसके अन्नदुर्रई मौजूद थे। उन्होंने प्रभावकारी मृदंगम वादन पेश किया। उन्होंने पांच अंशों में वादन पेश किया। शुरूआत आदि ताल से की। अगले अंश में खंड चापू ताल में निबद्ध कीर्तनम पेश किया। यह एनएस रामचंद्रन की रचना थी। फिर, रूपकम और मिश्र चापू ताल का परिचय दिया। उन्होंने अपने वादन का समापन राग कल्याणी व आदि ताल में निबद्ध रचना से की। यह मुत्थुस्वामी दिक्षितर की रचना थी।






अगली पेशकश विदुषी उमा गर्ग की थी। उन्होंने ख्याल गायन पेश किया। उनके साथ तबले पर पंडित आशीष सेनगुप्ता, हारमोनियम पर डाॅ विनय मिश्र और तानपुरे पर रिनदाना व अनुभूति ने संगत किया। शास्त्रीय गायिका उमा गर्ग ने राग मुलतानी गाया। उन्होंने इसमें विलंबित एक ताल में बंदिश-‘अल्लाह तू साहिब‘ गाया। उन्होंने बंदिश ‘बलमा मोरे तुम संग लागी प्रीत‘ से गायन को विराम दिया।

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ठुमरी-दादरा के रंग को बनारस घराने के पंडित भोलानाथ मिश्र ने पेश किया। उन्होंने राग पटदीप में बंदिश-‘ना जावो श्याम उन संग‘ को सुर में पिरोया। यह एक ताल में निबद्ध था। इसके बाद, उन्होंने राग देश में रचना ‘सौतन घर न जावो सैंया‘ को अपने सुर से नवाजा। यह जत ताल में निबद्ध था। उन्होंने दादरे में ठुमरी का अंदाज पेश किया। दादरे के बोल थे-‘जरा कह दो संवरिया से आया करे‘।



                                                                
 




                                       


समारोह के पहले दिन की परिचर्चा के दौरान कर्नाटक संगीत के सौंदर्य का परिचय भी करवाया गया। इस में वायलिन वादक डाॅ मैसूर मंजूनाथ, गायक डाॅ श्रीराम परसुराम और प्रो टीवी मणिकंडन ने भाग लिया। संगीत नाटक अकादमी सम्मान से सम्मानित डाॅ मैसूर मंजूनाथ ने वायलिन पर राग किरवाणी बजाया। उन्होंने राग और तानों के प्रयोग के जरिए राग किरवाणी के सौंदर्य को उजागर किया। उन्होंने तार सप्तक से लेकर मंद्र सप्तक में तानों का संचरण मोहक अंदाज में किया। उनके मधुर वादन ने समां बांध दिया।



Thursday, December 12, 2019





                             महात्मा गांधी से प्रेरणा मिलती है-गीता चंद्रन


महात्मा गांधी से लोगों को प्रेरणा मिलती है। गांधीजी जो अब भी राह दिखाते हैं। उनकी बातें, उनका जीवन, उनकी रचनाएं, उनका पहरावा, सब कुछ हमें प्रभावित करता है। इसी के मद्देनजर भरतनाट्यम नृत्यांगना गीता चंद्रन से बातचीत करने का अवसर मिला। आज उन्हीं के विचार उन्हीं की जुबानी अपने ब्लाॅग में प्रस्तुत कर रही हूं। आशा है, आपलोगों को पसंद आएगा। एक नजर डालिएगा जरूर। डालेंगें !-शशिप्रभा तिवारी







गांधीजी का नाम जुबान पर आते ही, मेरा मस्तक नतमस्तक हो जाता है। उनकी घुटने से उपर तक की धोती, नंगे बदन, चमड़े के चप्पल, चादर ओढ़े और आंखों पर गोल फ्रेम वाला चश्मा यह रूप आंखों के सामने से सहज ही गुजर जाता है। मन में श्रद्धा के भाव उमड़ने लगते हैं। तब मेरे होठों पर शब्द नहीं आ पाते। सिर्फ, सोचती हूं कि उन्होंने मानव, प्रकृति, देश, विश्व को दिया और आजीवन देते रहे। कभी किसी से किसी चीज की शिकायत किए बिना। कभी मौन रहकर, कभी उपवास कर, कभी आंदोलन का नेतृत्व कर, कभी सेवा तो कभी अपने चरखे के जरिए, उन्होंने शांति, सह-अस्तित्व, बंधुत्व, मैत्री, सहयोग, आत्मनिर्भरता आदि का संदेश दिया।

दरअसल, मेरे पिताजी गांधीवादी थे। वह गांधीजी के बारे में अक्सर हमलोगों के बीच चर्चा करते थे। उन्होंने गांधीजी दर्शन को अपने जीवन में भी अपना रखा था। जैसे-अपने ज्यादा-से-ज्यादा काम खुद करना और लोगों की सेवा करना। वैसे तो मैंने गांधीजी के बारे में भारतीय इतिहास को पढ़ते हुए जाना। लेकिन, कुछ साल पहले मुझे एक इंटरनेशनल काॅन्फ्रेंस के लिए गांधी के बारे में कोरियोग्राफी करने को कहा गया था। उस दौरान मैंने गांधीजी के बारे में कई किताबें पढ़ीं। ताकि, उनके जीवन के बजाय उनके दर्शन को लोगों तक पहंुचा सकूं। उस दौरान मुझे गांधीजी की महान दर्शन से अवगत होने का अवसर मिला।

मुझे लगता है कि गांधीजी के कथनी और करनी में गजब की साम्यता थी। वह लोगों को उपदेश देकर, निर्देश नहीं देते थे। बल्कि, अपने काम के जरिए प्रायोगिक और व्यावहारिक तौर पर समझा देते थे। उनके विचारों के मूल में सत्याग्रह अहिंसा, अछूतोत्द्धार, आत्मनिर्भरता, खादी और महिला स्वातंत्र था। लगभग सौ साल पहले उन्होंने जो चीजें, जो विचार, जो सिद्धांत हमें दिया, उस पर अगर सच में, हमारा देश चल पाया होता तो आज हमारे सामने बहुत-सी समस्याएं नहीं होतीं। क्योंकि आधुनिक विकास के बजाय उन्होंने व्यक्तित्व विकास पर ज्यादा जोर दिया था।

सर्व धर्म प्रार्थना की परिकल्पना बहुत अनूठी थी। वह धार्मिक सहिष्णुता के बजाय धार्मिक विश्वास को उन्होंने महत्व दिया। प्रार्थना में वह खुद बैैठते थे, खुद गाते थे, सभी धर्मों का साहचर्य होता था। वहां टाॅलरेट करने की बात नहीं, बल्कि सबकी स्वीकार्यता थी। वह सिर्फ एक रिचुअल भर नहीं था। वह प्रार्थना सभा मानवता को कितना बड़ा संदेश था कि हम सब एक हैं, हम एक साथ मिलकर ध्यान कर सकते हैं, क्योंकि उस परब्रम्ह के पास पहंुचने का रास्ता सबका एक ही है। सिर्फ तरीके अलग-अलग हैं। आज जहां हर शहर, हर राज्य यहां तक कि हर देश धर्म को लेकर, इतना उग्र हो जाता है, वहां गांधीजी को अपनाकर हम इन समस्याओं से आसानी से निजात पा लेते। पर, हम अपने बीच के महात्मा को आत्मसात करने में बहुत देर कर देते हैं।

गांधीजी ने कितने सारे आंदोलनों का नेतृत्व किया, लेकिन अहिंसा और सत्य के दम पर। जबकि, आज किसी भी बात पर हमारा समाज उग्र हो जाता है। हिंसा करने पर लोग उतारू हो जाते हैं। क्या बस जला देने या तोड़-फोड़ कर देने से देश की सम्पति का नुकसान करना सही है। उन्होंने पूरी मर्यादा के साथ विरोध करने की प्रेरणा दी है। यहां तक कि जेल में अकेले रहते हुए, अपने समय का सदुपयोग किया। यह सकारात्मकता के साथ-साथ समय के सही उपयोग का उदाहरण हमारे सामने वह प्रस्तुत करते हैं। वह संदेश देते हैं कि हमारे जीवन का एक-एक क्षण बहुत कीमती है। हमें उसका भरपूर उपयोग करना चाहिए। कठिन परिस्थितियों से घबराना नहीं चाहिए। और हर समय अपने सामने एक लक्ष्य रखना और उसके कार्यान्वयन के लिए योजना बनाना।

अस्पृश्यता निवारण के साथ, उन्होंने हाथों से मल सफाई किए जाने का विरोध किया। हालांकि, दशकों बाद भी बहुत से कस्बों और गांवों अभी यह प्रथा जारी है। यह मानवता की अस्मिता के लिए दुखद है। हमारे समाज में अस्पृश्यता की भावना कई स्तरों पर आज भी विद्यमान है। मुझे लगता है कि हमारे भीतर से या दिमाग से कई स्तरों पर छूआछूत की भावना है। जबकि, गांधीजी मैलो ढोने वालों की मानवीय गरिमा को कायम करने के लिए लगातार प्रयास करते रहे। इसके मद्देनजर वह स्वयं या कस्तूरबा बाई से वाशरूम साफ करते या करवाते थे। स्वच्छता और स्वास्थ्य के बारे में वह बार-बार चर्चा करते थे। लेकिन, यह नैतिक कर्तव्य हमारा समाज आज तक पूरी तरह अपना नहीं पाया हैं। इसके लिए हम दोषी किसे ठहरा सकते हैं कि सिर्फ गंदगी और कूड़े के ठीक से निस्तारण नहीं किए जाने से लाखों लोग हर साल डेंगू-मलेरिया-चिकनगुनिया जैसी बीमारियों से ग्रस्त होकर काल के मुंह में चले जाते हैं। जबकि, छोटा-सा हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका इन बीमारियों से मुक्त है।

शहर, कस्बे और अब हमारे गांव भी गारबेज मैनेजमेंट की समस्या से जूझ रहे हैं। जबकि, हम इस मामले में आत्मनिर्भर थे। हमारे घरों में ही कचरे को अलग-अलग तरीके से निस्तारित कर लिया जाता था। हमारे संस्कार में था। आज वह हमारे सेमिनारों का विषय बन रहा है-गारबेज मैनेजमेंट। एक सामान्य सा उदाहरण है-हम लोग पके हुए कटहल को खाते हैं। उसके गूदे को खाया जाता, उसके बीज की सब्जी बन जाती और छिलके को गाय खा जाती थी।

वास्तव में, खादी के जरिए हाथ से अपने काम करने और स्वावलंबन का महत्व गांधीजी ने स्थापित किया था। हम अपने काम खुद अपने हाथों से करते हैं, तब हम खुद से जुड़ते हैं। अपनी प्रकृति, पर्यावरण, मिट्टी के साथ संबंध और जुड़ाव स्थापित करते हैं। लेकिन, आज दुखद स्थिति है हि हमारे बच्चे या युवा अपने काम खुद नहीं करना चाहते। वह हाथों के हुनर से महरूम होते जा रहे हैं। हम त्योहारों पर अपने घरों में मिठाइयां वगैरह बनाने से बचने लगे हैं। ऐसे में बाजारवाद हम पर स्वाभाविकतौर पर हावी हो रहा है। हम बाजार से खरीदकर अपना काम चला लेते हैं। इस तरह बच्चों में खुद से काम करने की प्रवृति ही नहीं आ रही। इसके लिए हमलोग और हमारा समाज ही जिम्मेदार होगा। जबकि, हमारे हर प्रदेश, हर शहर में अलग-अलग व्यंजन, वेशभूषा, आभूषण लोग बनाते और पहनते हैं। पर अब धीरे-धीरे माॅल कल्चर ने वह सब हाशिए पर कर दिया है। गांधीजी ने एक सदी पहले ही हमें चेताया था, लेकिन, हमलोग कहां जाग पाते हैं।

आज के दौर में रही-सही कसर मीडिया ने पूरी कर दी है। गांधीजी भी लिखते थे, हर विषय पर अपने विचारों को रखा। हरिजन अखबार का संपादन किया। अपनी जीवनी लिखी। मुझे उनकी किताब ‘एक्सपरिमेंट विद टूथ बेहद पसंद है। मैंने इसे कई बार पढा। इसके जरिए अपने जीवन के सत्य को उजागर किया। उनके विचारों को सबसे बेहतर तरीके से हम तीन बंदर के माध्यम से जानते हैं, जिसमें बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोला। यानि अपने इंद्रियों पर एक नियंत्रण करने की बात उन्होंने की। लेकिन, आजकल हम टीवी चैनलों पर व्यर्थ का संवाद सुनते हैं। इसमें किसी की कोई मर्यादा नहीं रही है। ऐसा लगता है कि शब्दों के वाण से आक्रमण किया जा रहा है। यह लोग भूल गए हैं कि एब बार शब्द तीर की तरह छूट जाते हैं, वो वापस नहीं लौट सकते। हम अच्छी चीजों को देखना-सुनना ही भूल गए हैं। हम प्रकृति के सानिध्य में सूर्याेदय के सूर्य, सूर्यास्त के सूर्य, चांदनी रात, पूर्णिमा और आमवस्या की रातों का आनंद लेना भूल गए हैं। हम टीवी, मोबाइल और दूसरे गैजेटॅस तक सीमित रह गए हैं।

महात्मा गंाधी, विवेकानंद, भारती, भगत सिंह, चंद्रशेखर जैसे रोल माॅडल आज हमारे सामने नहीं प्रस्तुत किए जाते हैं। एक अजीब-सी रिक्तता है, चारों ओर। एक ऐसा संक्रमण काल जो बहुत चिंताजनक है। आदर्शों के अभाव में हमारे युवा अपनी संस्कृति पर गौरवान्वित महसूस नहीं कर पाते। गांधीजी ने धोती को धारण किया। उससे सांस्कृतिक पहचान कायम किया। एक दृढ-विश्वास के साथ उन्होंने अपने संस्कार पर गर्व करना सिखाया। आज हमारी युवा पीढ़ी संदेह में है। क्योंकि, उनके सामने गांधीजी जैसा आदर्श व्यक्तित्व नहीं है। उन्हें विश्व इतिहास का पता है, पर हमारे देश में यक्षगान की परंपरा क्या है? नहीं मालूम। इतना ही नहीं, वह विदेशी भाषा तो सीख रहे हैं, पर हिंदी और संस्कृत के प्रति उदासीन है। कभी-कभी सोचती हूं तो मन आग्रही होकर, कह उठता है-गांधीजी फिर एक बार अवतरित होकर, हमें राह दिखा दिजीए। कभी मौन रहकर, कभी उपवास कर, कभी आंदोलन का नेतृत्व कर, कभी सेवा तो कभी अपने चरखे के जरिए, उन्होंने शांति, सह-अस्तित्व, बंधुत्व, मैत्री, सहयोग, आत्मनिर्भरता आदि का संदेश दिया।

उनके विचारों के मूल में सत्याग्रह अहिंसा, अछूतोत्द्धार, आत्मनिर्भरता, खादी और महिला स्वातंत्र था। लगभग सौ साल पहले उन्होंने जो चीजें, जो विचार, जो सिद्धांत हमें दिया, उस पर अगर सच में, हमारा देश चल पाया होता तो आज हमारे सामने बहुत-सी समस्याएं नहीं होतीं। क्योंकि आधुनिक विकास के बजाय उन्होंने व्यक्तित्व विकास पर ज्यादा जोर दिया था।

सर्व धर्म प्रार्थना की परिकल्पना बहुत अनूठी थी। वह धार्मिक सहिष्णुता के बजाय धार्मिक विश्वास को उन्होंने महत्व दिया। प्रार्थना में वह खुद बैैठते थे, खुद गाते थे, सभी धर्मों का साहचर्य होता था। वहां टाॅलरेट करने की बात नहीं, बल्कि सबकी स्वीकार्यता थी। वह सिर्फ एक रिचुअल भर नहीं था। वह प्रार्थना सभा मानवता को कितना बड़ा संदेश था कि हम सब एक हैं, हम एक साथ मिलकर ध्यान कर सकते हैं, क्योंकि उस परब्रम्ह के पास पहंुचने का रास्ता सबका एक ही है। सिर्फ तरीके अलग-अलग हैं। आज जहां हर शहर, हर राज्य यहां तक कि हर देश धर्म को लेकर, इतना उग्र हो जाता है, वहां गांधीजी को अपनाकर हम इन समस्याओं से आसानी से निजात पा लेते। पर, हम अपने बीच के महात्मा को आत्मसात करने में बहुत देर कर देते हैं।

गांधीजी ने कितने सारे आंदोलनों का नेतृत्व किया, लेकिन अहिंसा और सत्य के दम पर। जबकि, आज किसी भी बात पर हमारा समाज उग्र हो जाता है। हिंसा करने पर लोग उतारू हो जाते हैं। क्या बस जला देने या तोड़-फोड़ कर देने से देश की सम्पति का नुकसान करना सही है। उन्होंने पूरी मर्यादा के साथ विरोध करने की प्रेरणा दी है। यहां तक कि जेल में अकेले रहते हुए, अपने समय का सदुपयोग किया। यह सकारात्मकता के साथ-साथ समय के सही उपयोग का उदाहरण हमारे सामने वह प्रस्तुत करते हैं। वह संदेश देते हैं कि हमारे जीवन का एक-एक क्षण बहुत कीमती है। हमें उसका भरपूर उपयोग करना चाहिए। कठिन परिस्थितियों से घबराना नहीं चाहिए। और हर समय अपने सामने एक लक्ष्य रखना और उसके कार्यान्वयन के लिए योजना बनाना।

महात्मा गंाधी, विवेकानंद, भारती, भगत सिंह, चंद्रशेखर जैसे रोल माॅडल आज हमारे सामने नहीं प्रस्तुत किए जाते हैं। एक अजीब-सी रिक्तता है, चारों ओर। एक ऐसा संक्रमण काल जो बहुत चिंताजनक है। आदर्शों के अभाव में हमारे युवा अपनी संस्कृति पर गौरवान्वित महसूस नहीं कर पाते। गांधीजी ने धोती को धारण किया। उससे सांस्कृतिक पहचान कायम किया। एक दृढ-विश्वास के साथ उन्होंने अपने संस्कार पर गर्व करना सिखाया। आज हमारी युवा पीढ़ी संदेह में है। क्योंकि, उनके सामने गांधीजी जैसा आदर्श व्यक्तित्व नहीं है। उन्हें विश्व इतिहास का पता है, पर हमारे देश में यक्षगान की परंपरा क्या है? नहीं मालूम। इतना ही नहीं, वह विदेशी भाषा तो सीख रहे हैं, पर हिंदी और संस्कृत के प्रति उदासीन है। कभी-कभी सोचती हूं तो मन आग्रही होकर, कह उठता है-गांधीजी फिर एक बार अवतरित होकर, हमें राह दिखा दिजीए।



Tuesday, December 10, 2019

कला के विस्तार का एक और आयाम



                  कला के विस्तार का एक और आयाम

                   शशिप्रभा तिवारी


               





समारोहया देवी सर्वभूतेषुलोक कला मंच में आयोजित था। इस कार्यक्रम का आयोजन सुरमंदिर की ओर से किया गया। इस समारोह में महिला कलाकारों शास्त्रीय संगीत और नृत्य पेश किया। इसमें शिरकत करने वाली कलाकारों में शामिल थीं-डाॅ अदिति शर्मा, इला शर्मा, डेल्फिन, सुधा रघुरामन, अनुप्रिया देवताले नतालिया रेमिरेज। इसके अलावा, वुसत इकबाल और कथक नृत्यांगना यामिका महेश कल्पना वर्मा नेरूदाद शिरिनप्रस्तुत किया। इस पेशकश में दास्तानगोई की दास्तान को कथक नृत्य रचना में पिरोया गया था।
धु्रपद गायिका बहनें डाॅ अदिति शर्मा और इला शर्मा ने राग परज में रचनाकान्ह कुंवर मुरलीधरऔर रचनारघुवीर धीर आयोध्या नगरको पेश किया। आलापचारी और बढ़त में राग का सौंदर्य मोहक था। उनके साथ पखावज पर मनमोहन नायक ने संगत किया।

नायिका शिरिन की कहानी के माध्यम से एक महिला की दास्तान को एक ओर वुसत इकबाल ने सुनाया, वहीं दूसरी ओर अमीर खुसरो अन्य पारंपरिक बंदिशों को आधार बनाकर नृत्य पेश किया गया। बनड़ा गीतआज नवल बन्नासे प्रस्तुति आरंभ हुई। विदाई गीतकाहे को व्याहे बिदेश‘, ‘मैं जो गई थी बीच बजरिया‘, ‘खुसरो रैन सुहाग कीके जरिए नृत्यांगनाओं ने भावों को दर्शाया। कथक नृत्यांगना यामिका महेश नेजो पिया आवन कह गएपर नायिका के विरह भावों को बखूबी दर्शाया। कथक के तोड़े, टुकड़े और तिहाइयों का प्रयोग भी यामिका ने सधे अंदाज में किया। वहीं सूफी रचनानिजाम तोरे सूरत पे मैं वारीमें नायिका के समर्पण भावों को संचारी आंगिक अभिनय के जरिए दर्शाया। इस पेशकश में कथक नृत्यांगना कल्पना वर्मा ने झूला गीतझूला किने डारो रेपर नायिका के चपल भावों को निरूपित किया। उन्होंने झूले, घंूघट सादी गतों का प्रयोग अपने नृत्य में किया। उन्होंने एक अन्य रचनामैं तो तोरे दामन लागीके माध्यम से भी नायिका शिरिन के भावों को परिपक्वता से दर्शाया। इस प्रस्तुति में नजर सादी गत का प्रयोग मोहक था। कुल मिलाकर, दिल्ली घराने के उस्ताद इकबाल अहमद की इस परिकल्पना को उनकी शिष्याओं ने गायन के माध्यम से साकार किया। जबकि, कलाकार वुसत इकबाल ने अपनी किस्सागोई अंदाज में संवाद के जरिए नायिका की कथा को बयान किया। कथक और दास्तानगोई का यह प्रयोग सराहनीय है।