मोहन
मैं बहुत दूर से
तुम्हारे बांसुरी की धुन सुनती हूँ
उस में अपना नाम सुनती हूँ
जानती हूँ!
तुम बहुत दूर हो
तुम्हारे विरह को जीती हूँ
उसमें तुम्हारा नाम जपती हूँ
सुनती हूँ !
धड़कने बहुत दूर से
अपने करीब तुम्हें तब ही पाती हूँ
उस उन्मेष में संपूर्ण होती हूँ
देखती हूँ !
फरकते होठ दूर से
बांसुरी की स्वर लहरी बन जाती हूँ
उस पल मैं कहाँ रह जाती हूँ ......
मैं बहुत दूर से
तुम्हारे बांसुरी की धुन सुनती हूँ
उस में अपना नाम सुनती हूँ
जानती हूँ!
तुम बहुत दूर हो
तुम्हारे विरह को जीती हूँ
उसमें तुम्हारा नाम जपती हूँ
सुनती हूँ !
धड़कने बहुत दूर से
अपने करीब तुम्हें तब ही पाती हूँ
उस उन्मेष में संपूर्ण होती हूँ
देखती हूँ !
फरकते होठ दूर से
बांसुरी की स्वर लहरी बन जाती हूँ
उस पल मैं कहाँ रह जाती हूँ ......
No comments:
Post a Comment