गुरू शिष्य परंपरा और वर्तमान परिस्थितियों की चुनौतियां
----शशिप्रभा तिवारी
जीवन में संगीत के सुर हैं और यह सुर ही जीवन है। यही भारतीय जीवन दर्शन है। जहां सुबह दिनचर्या की शुरूआत संगीत से होती है। हर काम को करते हुए, लोग गाते हैं। आमतौर पर यहां गाने-बजाने के लिए लोग किसी मंच या उत्सव या पर्व का इंतजार नहीं करते। ग्रामीण अंचल में गृहणी सुबह की शुरू अगर चक्की चलाने से करे या घर बुहारने से या अपने बच्चे को सुलाने के लिए भी वह गाती थी और गाती है। ये संगीत ही है, ये कला ही है और कलाकार मन ही है, जो हर हाल में जिंदगी को जीने का जज्बा देता है। लेकिन, पिछले वर्ष यानि 2020के मार्च महीने से ही जिंदगी ऐसा लगता है कि रूक गई है। इस दौर में, देश के कलाकार भी गहन पीड़ा से गुजर रहे हैं। और तो और गुरु-शिष्य परंपरा के सामने की चुनौतीपूर्ण स्थिति है। इस संदर्भ में, पंडित बिरजू महाराज के विचार पेश है-
हम कलाकारों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ गई है। जो कलाकार अपने संगीत और नृत्य के जरिए लोगों को कुछ देर के लिए ही सही सांसारिक परेशानियों से हटाकर दो-तीन घंटे के लिए अलग कर देते थे। उनको मानसिक शांति मिलता था। लोग एक जगह बैठकर हम कलाकारों को देख-सुन रहे हैं। उन्हें आनंद की प्राप्ति हो रही है। अब हम ऐसे क्षण का इंतजार कर रहे हैं। वो समय अच्छा आएगा है। सबको ताजगी देगा।
हम लोग तो बेताब हो रहे हैं कि हमें स्टेज पर और दर्शकों के सामने नृत्य प्रस्तुत करने का अवसर कब मिलेगा। कोलकाता, मलेशिया, मुम्बई की वर्कशाॅप मेरी कैंसिल हो गए हैं। मेरे शागिर्द कोलकाता में बहुत ज्यादा है। मेरे शिष्य-शिष्याओं का फोन आता है, सब मुझसे मिलने को बेचैन है। पर हालात ऐसे हैं कि सब मजबूर है।
एक गुरु के रूप में मैं युवा कलाकारों को तसल्ली को बनाए रखने और अपना ध्यान रखने की सलाह देता हूं। मैं खुद सुबह उठकर, ध्यान में चुपचाप बैठता हूं। अपने-आपको सोचता हूं मैंने क्या-क्या किया है? क्या करना है? कितना बाकी है। उसको पूरा करना और धैर्य का दामन पकड़े रहना है। शास्त्रीय संगीत और नृत्य को रियाज करना है। यहां तो हालत ऐसे ही हैं-जौन गत तोरी, वही गत मोरी।
एक उम्मीद का दीया मन में जलाए रखता हूं कि समय जरूर बदलेगा। खालीपन तो हमें भी महसूस होता है। मैं कविता-ठुमरी लिखता हूं। मेरी जिंदगी में रोज नया सृजन होता है। नहीं तो जिंदगी नीरस बन जाती है। आप हर पल कुछ नया तलाश पाते हैं, तो उसका आनंद ही अनूठा है। आप व्यस्त हों, आपके पास उदासी का समय कहां हैं? एक रोज की बात बताता हूं। हाल ही में, अचानक रात को तीन बजे नींद खुली। उस वक्त ध्यान में एक नई तिहाई बन गई। सो, अपने एक शागिर्द को फोन कर कहा कि एक नई तिहाई बनी है। इसे जल्दी से रिकार्ड कर लो। शायद, सुबह भूल जाऊं।
क्रिकेट के खेल में दो खिलाड़ी खेलते हैं, कई खिलाड़ी बैठे रहते हैं। कई बार तो दूसरे खिलाड़ियों को खेलने का मौका भी नहीं मिलता है। लेकिन, उनको तो ईनाम में ही बहुत मिल जाता है। क्रिकेट खिलाड़ी सब करोड़पति बन जाते हैं। हमारे फिल्म वाले भी सम्पन्न हैं। लेकिन, शास्त्रीय संगीत, नृत्य और लोक कलाओं से जुड़े कलाकारों की स्थिति डगमगाई हुई है। उन्हें रोजी-रोटी की भी किल्लत हो गई है। वह निराश हैं। समझ नहीं पा रहे हैं कि कैसे जीवन संघर्ष को जीतें। इस समय तो गुरूदेव रवींद्रनाथ ठाकुर के शांति-निकेतन की बहुत याद आती है। उनकी एक कविता की पंक्ति भी मन दोहराता है-‘पर, हमें बराबर लगता यह, भागा जाता है समय कहीं, रग-रग में भरी हुई है जल्दी, हो जाए कहीं कुछ देर नहीं’।
दरअसल, हम लोगों के जीवन में बाहर के आनंद नहीं भीतर के आनंद की बात कही जाती है। अगर, हमारे अंतस में, हमारे रियाज में आनंद का स्त्रोत मिल जाए, भीतर का झरना फूट पड़े तो हर स्थिति को हम सहन कर लेते हैं। यह तभी संभव है, जब हम खुद का तटस्थ निरीक्षण करते हैं। यह भारतीय कला हमारे अंतस का दीपक जलाती है। इस अंतस प्रकाश से हम सत्य को भली-भांति जान पाते हैं। फिर, हम जीवन की चैतन्यता, विराटता, विस्तार, अस्तित्व को जान पाते हैं। इस कठिन दौर में मैं युवा कलाकारों से यही कह रहा हूं, बार-बार कि समय कभी एक-सा नहीं होता है। हमें संघर्ष से जिंदगी के इस जंग को जीतना है, धैर्य रखना है। क्योंकि, सब दिन होत ना एक समाना।
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